आदरणीय प्रभाष जोशी जी, मुझे नहीं मालूम कि आपके दिल में क्या है जो आप चुनाव में नेताओं के बयान वाली खबरों के अखबारों में पैसे लेकर छपने से इतने खफा हैं। लेकिन पिछले हफ्ते जनसत्ता में आपने जितना भी कागज काला किया उसमें आपने तमाम साफगोइयों के बावजूद अपनी कुंठाओं को छिपा नहीं सके। आप अच्छी तरह जानते हैं कि आप एक असफल अखबार के सफल संपादक हैं। प्रायः ऐसा होता नहीं है, लेकिन आप लोगों को यह मनवाने में सफल रहे। जिस जनसत्ता के आप संपादक हैं आज वह गली मोहल्लों में छपने वाले स्थानीय अखबारों से भी कम संख्या में लोगों द्वारा खरीदा व पढ़ा जाता है। यदि सार्थक पत्रकारिता के प्रति आम जनमानस का यह रवैया है तो इसमें आपकी कोई गलती नहीं है। अलबत्ता आपको ऐसे पाठकों के बारे में जरुर लिखना चाहिए। उम्मीद है भविष्य में आप इस पर जरूर लिखेंगे। मैं विषय से भटक गया था। हां, मैं कह रहा था कि आपने नई पत्रकारिता के बहाने जो कुछ लिखा, उसमें पत्रकारिता के प्रति चिंता कम है।
केजरीवाल के मैग्सेसे पुरस्कार तथा उनके द्वारा बांटे जाने वाले आरटीआई पुरस्कार के ज्यूरी में अखबार विशेष के संपादक को शामिल किए जाने का दर्द ज्यादा झलक रहा है। आपके अनुसार अरविंद केजरीवाल को मैग्सेसे पुरस्कार सिफारिश से मिला था। यह सिफारिश कब और किसने की यह आपने खुलासा नहीं किया। संपादक के नाते अभी भी आपको यह जरुर बताना चाहिए कि मैगसेसे पुरस्कार के लिए कहां कहां सिफारिश की जा सकती है। एक बात और नहीं समझ में आती है कि जिस केजरीवाल को आप सिफारिश से पुरस्कार हासिल करने वाला मानते हैं उसी केजरीवाल के माध्यम से आरटीआई के क्षेत्र में काम करने वाले लोगों के लिए शुरु किए जा रहे एक पुरुस्कार व उसकी ज्यूरी कमेटी को लेकर आप इतने संजीदा क्यों हैं। दिल्ली में न जाने कितनी संस्थायें न जाने जिन तिन ऐरे गैरे को पुरस्कार देती रहती हैं। आपने कभी उनके लिए कागज क्यों काला नहीं किया? क्या इस पुरस्कार से ज्यादा आप उस अखबार व संपादक से नाराज हैं जिसे केजरीवाल ने ज्यूरी बनाया है। यदि ऐसा है तो निश्चय ही आप विषय की बजाय व्यक्ति के प्रति अपनी निजी धारणा को तरजीह दे रहे हैं जो आपके पत्रकारिता के प्रति चिंता के दोगलेपन का उदाहरण है।
आदरणीय जोशी जी मैं नहीं जानता कि व्यक्ति के रूप में आप कैसे हैं परंतु आप अच्छे पत्रकार हैं तथा कलम के धनी हैं मैं यह मानता हूं। फिर भी इस लेख में आप अपने पत्रकारीय कौशल से भी अपनी भावना को छिपा नहीं सके हैं। सामान्य धारणा है कि चोरी करने वाला चोर होता है। किसी चोर की नैतिकता को मापने का यह कोई तरीका नहीं हो सकता कि उसने कितनी मात्रा में चोरी की थी। लेकिन आपने अपने कालम में लिखा है कि, (अरविन्द केजरीवाल ने यह पुरस्कार तय करने के लिए जो समिति बनाई है, उसमें ऐसे अखबार और उसके मालिक संपादक को भी रखा है, जिसने इस लोकसभा चुनाव में सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार किया।)। सबसे ज्यादा पर अपने बहुत जोर दिया है। अब चुनाव में पैसे लेने वाले सभी अखबारों में किसी एक अखबार को आपने सबसे ज्यादा भ्रष्ट कैसे माना यह किसी भी आम आदमी की समझ में नहीं आ सकता है। क्योंकि नैतिक रूप से तो सबने एक ही नियम का उल्लंघन किया है। इससे यही झलकता है कि अखबार विशेष के प्रति आप निजी तौर पर जो राय रखते हैं संपादक व पत्रकार के रूप में आपने उसी भड़ास को जनसत्ता में लिख मारा है। यही नहीं आपका यह भी दावा है कि उक्त अखबार ने चुनाव में दो सौ करोड़ की काली कमाई की। निश्चय ही यह आंकड़े बाजी कोई नौसिखुआ पत्रकार करता तो नजरअंदाज करने वाली गलती मानी जा सकती है आप जैसे लोग यह गलती नादानी में नहीं कर सकते हैं। जो अनाम लोग आपके सूत्र हैं वैसे सूत्र हम पत्रकार किसी की भी बखिया उधेड़ने के लिए आए दिन गढ़ते रहते हैं। लेकिन आपकी वरिष्ठता व गरिमा के हिसाब से यह आंकड़ेबाजी आपको यह शोभा नहीं देती है।
हां आपने लखनऊ वाले लालजी टंडन का भी जिक्र किया है। लालजी टंडन के बारे में लखनऊ का हर अखबार वाला जानता है। थोड़ा बहुत यहां गाजियाबाद के लोग भी जानते हैं। शहरी विकास मंत्री के रूप में उनके कारनामें भी हम लोगों ने काफी करीब से देखे हैं। गाजियाबाद तथा नोएडा प्राधिकरणों में आज भी उन की चर्चा होती रहती है। यदि लालजी टंडन किसी का इस्तेमाल करें तो ठीक। और जब लालजी टंडन की टेंट कोई ढीली करा ले तो…। इससे ज्यादा हम उनके बारे में नहीं कहना चाहेंगे। आपको वे बाजपेई के उत्तराधिकारी के रूप में क्यूं महान नजर आते है हमें नहीं मालुम। हां मोहन सिंह राजनीति में भद्र लोगों में शुमार किए जाते हैं।
सामाजिक मुद्दों पर हंगामा करने वाले भाजपा व दक्षिणपंथी संगठनों के बारे में अक्सर दिल्ली के मठाधीश पत्रकार उन्हें स्वयंभू ठेकेदार कहकर आलोचना किया करते हैं। अब यही ठेकेदारी क्या मीडिया में भी नहीं हो रही है। हमें आत्म मुग्ध होने की जरूरत नहीं है यदि नए दौर की पत्रकारिता में कुछ गलत हो रहा है तो उसे नए दौर का पाठक खुद ही दुरुस्त भी कर लेगा। यह काम पुराने ठेकेदारों के बश का नहीं है। आज का पाठक पुराने पाठकों से ज्यादा चतुर व बुद्धिमान है। वैसे भी यह जरुरी नहीं है कि जो आज सच है जरूरी है वह कल भी सच हो और उतना ही जरूरी भी। बदलाव तो होगा ही। आप भरोसा रखें पहले से बेहतर होगा। कुछ अखबार मालिकों के गलत होने अथवा आपके कागद काला करने से इसे रोका नहीं जा सकता है। आने वाली पीढ़ी इसे खुद ही दुरुस्त कर लेगी।