राजीव चतुर्वेदी, ‘आधारशिला’ ग्रुप के चेयरमैन। पत्रकार। वकील। बिजनेसमैन। लेखक। फोर-इन-वन। हमेशा कुछ नया करने वाले। पहले पत्रकार बनना चाहा। जमकर लिखा-पढ़ा। इसी दौरान वकालत की डिग्री लेकर वकील बन गए। न्यायिक व्यवस्था को अंदर से देखा-समझा-परखा। कई बड़े मुकदमों के जरिए नाम कमाया। पर न्यायिक व्यवस्था की हिप्पोक्रेसी उन्हें अंदर तक भेद गई और उन्होंने काले कोट को उतारकर रख दिया। फिर मीडिया की तरफ मुड़े। सच को साहस के साथ लिखना शुरू किया तो व्यवस्था को चुभन महसूस होने लगी। कभी यूपी असेंबली ने उन्हें सम्मन जारी किया तो कभी उनके लिखे पर सुप्रीम कोर्ट को एतराज हुआ। पर राजीव ने हर जगह साबित किया कि उनके लिखे के सारे तथ्य सही हैं, बात कहने का अंदाज भले तीखा हो सकता है। यह सब करते-कराते राजीव को महसूस होने लगा कि मीडिया के अंदर सच कहने को लेकर कई तरह के भय व्याप्त हैं। उन्हें लिखना बंद कर दिया, इस वादे के साथ कि जब उनकी बात को कहने लायक मीडिया होगा तो वे जरूर लिखना शुरू करें देंगे।
इसके बाद वे बिजनेस में उतर आए। अब खुद दो मैग्जीनें लांच करने जा रहे हैं। ‘बाई-लाइन’ नाम से। राजीव कहते हैं- ‘अब फिर से कलम उठाने का वक्त आ गया है।’ भड़ास4मीडिया से बातचीत में राजीव ‘बाई-लाइन’ के मकसद को इन शब्दों में स्पष्ट करते हैं- ‘हम आए हैं पक्षधरता की पत्रकारिता करने। अन्याय के खिलाफ न्याय की पक्षधरता करने। उत्पीड़क के विरुद्ध उत्पीड़ित की पक्षधरता करने। अंधेरे के विरुद्ध उजाले की पक्षधरता करने। हिंसा के खिलाफ अहिंसा की पक्षधरता करने। राष्ट्रद्रोह के खिलाफ राष्ट्रवाद की पक्षधरता करने। इन्हीं मायनों में बाई-लाइन पत्रकारिता की हवा का एक ताजा झोंका होगा।’
राजीव अपने बारे में बताते हैं कि 1980 में लखनऊ विश्वविद्यालय से ग्रेजुएशन करने के बाद ही उन पर पत्रकारिता का जुनून सवार हो गया और वे अखबारों के दफ्तरों के चक्कर लगाने लगे थे। उनकी पहली रिपोर्ट द संडे आब्जर्वर में प्रकाशित हुई, ‘स्टारवेशन डेथ इन यूपीज बुंदेलखंड रीजन’ शीर्षक से। इसके बाद राजीव धर्मयुग, संडे, रविवार, एनआईपी, अमृत प्रभात, स्वतंत्र भारत में लगातार लिखते-छपते रहे। जनसत्ता, मेनस्ट्रीम, माया के लिए भी लिखा। यह सब करते हुए राजीव ने 1984 में एलएलबी कंप्लीट कर लिया और वकील बन गए। राजीव ने खुद को हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में साबित किया।
राजीव गांधी हत्याकांड, एमपी सिंह कमीशन, जैन कमीशन, अयोध्या केस, फूलनदेवी केस आदि के जरिए राजीव ने काफी नाम कमाया। राजीव कहते हैं कि जब उन्होंने देखा कि सारा न्यायिक तंत्र हिप्पोक्रेसी पर टिका हुआ है तो उन्होंने यह पेशा छोड़ दिया और फिर से मीडिया क्षेत्र में आ गए। वे 1993 से 2005 तक देश के दर्जन भर नामी-गिरामी अखबारों, पत्रिकाओं में कालम, रिपोर्ट, स्टोरी आदि लिखते रहे। 1996 और 1998 में चुनावों के दौरान राजीव ने राष्ट्रीय सहारा में सैकड़ों रिपोर्टें लिखीं। राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित एक रपट के लिए राजीव को यूपी असेंबली ने 2003 में सम्मन जारी कर विधानसभा बुलाया और माफी मांगने के लिए कहा। राजीव ने माफी मांगने से इनकार कर दिया।
बाद में स्पीकर को यह कहकर राजीव को माफ करना पड़ा कि रिपोर्ट में उल्लेखित फैक्ट्स और फीगर सही हैं। बाद में यही रिपोर्ट राजीव ने दैनिक जागरण में प्रकाशित कराई। न्यायिक व्यवस्था की पोल खोलना राजीव का शगल रहा है। जुडिशीयल सिस्टम पर उनकी एक रिपोर्ट 2001 में दैनिक जागरण में प्रकाशित हुई जिसे संज्ञान लेते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कंटेंप्ट आफ कोर्ट की प्रक्रिया शुरू की लेकिन आखिरकार सुप्रीम कोर्ट को भी मानना पड़ा कि ‘रिपोर्ट तथ्यतः सही है लेकिन इमोशनली गलत है’। राजीव का न्यायिक व्यवस्था की तरह मीडिया से भी मोहभंग हो गया। उन्होंने लिखना बंद कर दिया।
उन्होंने तय किया कि वे तभी लिखेंगे जब उनकी बात को उठाने की हिम्मत रखने वाला कोई उचित मीडिया होगा। राजीव ने अपना बिजनेस शुरू किया। आधारशिला की शुरुआत कर धीरे-धीरे इसे एक सफल समूह में तब्दील कर दिया। अब वे इस स्थिति में हैं कि सच्चाई को सामने लाने के लिए फिर कलम उठा सकें। सच्चाई सामने के लिए खुद ही पत्रिका-अखबार निकाल सकें। इसकी शुरुआत होने जा रही है। बाई-लाइन नाम से। यह पत्रिका 2010 में प्रकाशित होने लगेगी। राजीव ने दो किताबें भी लिखी हैं। एक है ‘आर्तनाद’, जो मानवाधिकारों पर केंद्रित है। दूसरा है ‘राष्ट्र की सुरक्षा धृतराष्ट्र की नजर से’। यह किताब राष्ट्रीय सुरक्षा पर है।
इटावा के रहने वाले राजीव चतुर्वेदी खुद के बारे में यह कहना पसंद करते हैं- ‘I was never on payroll of any body as I never applied it before’.
Dr.Hari Ram Tripathi
March 1, 2010 at 2:33 am
Sir. I cogratulate you and thank you for this story.Every person fighting for justice and truth will get inspiration from this story. Thanks.–Hari Ram Tripathi