आलोक तोमर के लिखने का अपना अंदाज है। उनके लेखन कौशल के देश भर में फैन हैं। कई बार वे इतने बेलौस और मुंहफट तरीके से लिखते हैं कि लगता है जैसे बोल रहे हों। पिछले दिनों उन्होंने भड़ास4मीडिया के लिए एक आलेख भेजा था जिसे टीवी की टकली भाषा और उम्मीदों के केश शीर्षक से प्रकाशित किया गया। इस लेख पर दो विशेष टिप्पणियां भड़ास4मीडिया के पास पहुंची हैं, जिन्हें प्रकाशित किया जा रहा है। -एडीटर, भड़ास4मीडिया
जनाब यशवंतजी,
क्या आपके पास लेखकों का अकाल पड़ गया है, जो आप आलोक तोमर जैसे लोगों के शरणागत होते है. ऐसे लोग दूसरों की खिल्ली उड़ाने में माहिर होते हैं पर अपनी गलती नहीं देखते. टीवी की टकली भाषा और उम्मीदों के केश शीर्षक के अपने आलेख में आलोक लिखते हैं – “तत्सम, तदभव, अनुप्रास, रूपक और ध्वनि सौंदर्य से भरी समाचारों की एक नई भाषा का अविष्कार वहां हुआ है और अब लोग कान लगा कर ध्यान देने लगे हैं।” अब कोई बता सकता है कि लोग कान लगा कर ध्यान कैसे देने लगे हैं। यह महज लफ्फाजी के सिवा और कुछ नहीं हैं. इसी तरह आलोक आखिर में लिखते हैं- ‘मैं बहुतों से बेहतर हिंदी लिखता हूं, तो पता नहीं कहां-कहां से कुकरमुत्तों की तरह मेरे मित्र उग आते हैं और मुझे याद दिलाते हैं कि मुझे हिंदी में पहले दर्जें में स्नातकोत्तर होने के बावजूद भाषा विज्ञान और भाषाओं के मूल का पता नहीं हैं। उनसे निवेदन हैं कि भाषाओं का मूल वे हल्दी की गांठ की तरह अपने पिटारे में संजो कर रखें और टिप्पणी तभी करें जब उन्हें मेरी भाषा समझ में नहीं आए।’ पहली बात तो यह है कि जो उनके लिखे पर जवाब दे रहा है, हर वह आदमी उनका मित्र हो, यह जरूरी नहीं, इसी तरह वे लिखते हैं- ‘यह चेतावनी नहीं, सूचना है।’ आखिर वे चाहते क्या हैं, जो इस तरह की बात करते हैं?
हिंदी के प्रस्फुटन से लेकर आज के परिदृश्य तक पहुंचने में जो हिंदी की सदगति और दुर्गति हुई है, इसका अगर जीता जागता उदाहरण देखना हो तो आज की पत्रकारिता जगत के कुछ समाचार पत्र और समाचार चैनल (चैनल इस लिए लिख रहा हूं कि इसका हिंदी रूपांतरण मुझे पता नहीं) ही काफी हैं। इस बारे में जब मैने कुछ पत्रकारों से बात करने की कोशिश की तो उन्होंने यही कहा कि पत्रकारिता का मतलब संदेश देना और खबरें ‘प्रसारित’ करना है। गौर करें, खबरे प्रसारित करना है। इस पर मेरा ये सवाल तो बनता ही है कि क्या जनसंचार के स्कूलों में हिंदी की उचित और सही शिक्षा ही इसकी दोषी है या फिर ये ही सच है कि महानगरीय सभ्यता देश पर और पत्रकारिता पर हावी हो रही है। अजीब और अनुचित अनुस्वारों का उपयोग अनुचित शब्दों के उपयोग और किसी भी मुद्दे को सनसनीखेज बनाकर परोसने की जद्दोजहद और टीआरपी रेटिंग के खेल में पड़े भाषाई पत्रकारों को मुंहकी खानी पड़ रही है। और वैसे भी, महानगरीय सभ्यता के पुरोधा इस बात का फायदा उठाकर अपनी रोटी सेंकने में कतई पीछे नहीं है। खैर, मेरा तो सिर्फ इतना ही कहना है कि क्या कबीर, तुलसी हिंदी भाषी थे? क्या वो भी शुद्ध हिंदी में लिखा करते थे? नहीं ना, तो फिर वो कैसे इतने सफल लेखक कहे जाते हैं? जयशंकर प्रसाद, प्रेमचंद की भाषा में भी आंचलिक पुट था तो क्यों उन्हें उपन्यास सम्राट कहा जाता है? क्यों उनकी कहानियां पाठ्यपुस्तक में पढ़ाई जाती हैं? गर उनकी हिंदी सही है तो आज की हिंदी क्यों नहीं? एक नए और शैशव पत्रकार के रूप में मेरा ये सवाल खड़ा करना लाजिमी है।
मयंक प्रताप सिंह
आईबीएन7, नोएडा
+91-9873132596