यशवंत जी, आपने प्रभाष जोशी जी के ‘कागद कारे’ को जारी करते हुए आह्वान किया था उस भ्रष्ट अखबार और उसके मालिक-संपादक का नाम उजागर करने का पर हो उलटा रहा है। भाई लोग घुंघरू पहन कर जोशी जी की ही बखिया उधेड़ने में लग गये हैं। कहीं अखबारों के प्रबंधन के इशारे पर तो ये लोग नहीं नाच रहे? सच यही है कि इस मामले पर जोशी जी को जितना सेल्यूट किया जाए, कम है। जोशी जी से तमाम मामलों पर सहमति-असहमति हो सकती है, किसी को भी, मानता हूं। पर अखबारों में पैसे लेकर खबर छापने से तो बेहतर है कि अखबार बंद कर दिया जाए। पैसा लेकर खबर छापने का काम चाहे अखबार मालिक करे या संवाददाता, दोनों ही पाप है। ठीक वैसे ही जैसे कोई अपनी रोजी-रोटी चलाने के लिए अपनी मां-बहन को ही बेच दे। अब भाई लोग इसी पर उतारू हैं तो कोई क्या कर सकता है।
फिर बृजेश जी जैसे लोग जब यह लिखते हैं कि जोशी जी एक असफल अखबार के सफल संपादक हैं तो उनकी अज्ञानता पर तरस भी आता है। आज से ढाई दशक पहले जनसत्ता ढाई लाख से ज्यादा सिर्फ दिल्ली में बिकता था। और यह आंकड़ा उसने अखबार शुरू होने के छह महीने में ही छू लिया था। और जोशी जी ने तब संपादकीय लिख कर कहा था पाठकों से कि कृपया अब जनसत्ता खरीद कर नहीं, मांग कर पढ़ें। यह ‘भूतो ना भविष्यति’ था। किसी हिंदी अखबार के पास यह गुरूर ना हुआ ना होगा। आप लोग अभी पत्रकारिता में नए हैं, सो बताता चलूं कि जोशी जी ने हिंदी में अखबारों को जो संपादकीय अस्मिता दी वह कोई आज तक दे नहीं पाया। जनसत्ता पहला हिंदी अखबार था जिसने संपादकीय में अलग तेवर दिया। उससे पहले हिंदी अखबारों में संपादकीय के रूप में अंग्रेजी अखबारों का छिछला अनुवाद ही छपता था।
यह जोशी जी ही थे जिनके चलते नवभारत टाइम्स को भी राजेंद्र माथुर को खोजना पड़ा था। और कहने में अच्छा लगता है कि इन दोनों ने हिंदी अखबारों को संपादकीय टटकापन दिया। अंग्रेजी अनुवाद से छुट्टी दिलवाई। बातें बहुत सी हैं जिनका विस्तार यहां संभव नहीं है पर यह सही है कि अब अखबारों को बल्कि अखबारी मालिकों को रीढ वाले संपादक नहीं, बल्कि भड़ुआ और दलाल संपादक चाहिए जो उनके लिए दलाली कर सकें। इस फेर में हिंदी अखबारों से विचार तो विदा हो ही चुका है, और जो यही हाल रहा तो ज्यादा नहीं, चार-छह साल सालों में अखबारों से समाचारों की भी विदाई हो जाएगी। तो जोशी जी शायद यह अंतिम कोशिश कर रहे हैं, विचार और समाचार की पवित्रता व सर्वोच्चता को बचाए रखने की। उनको सेल्यूट करिए मित्रों, ना कि छिद्रान्वेषण। जोशी जी एक सफल अखबार के सफल संपादक हैं, यह भी नोट कीजिए। जनसत्ता सही अर्थों में आज भी मुकम्मल अखबार है। मित्रों, जोशी जी के बहाने आकाश पर मत थूकिए। वह आप पर ही गिरेगा। प्रबंधकीय खामियों को संपादकों से जोड़ने की लवंडपने वाली रवायत बंद कीजिए। कहते हुए तकलीफ ही होती है पर सच यही है कि हिंदी अखबारों से अब संपादक नाम की संस्था विदा हो चुकी है, नष्ट हो चुकी है। तो भी जनसत्ता आज अखबारों का अखबार है, अपने तमाम अंतरविरोधों के बावजूद।
किसी में हिम्मत नहीं हो रही है तो चलिए मैं बता रहा हूं, जिस बारे में यशवंत जी आप पूछ रहे हैं और जोशी जी मर्यादा रखते हुए उसका नाम नहीं लिख रहे हैं। वह अखबार है दैनिक जागरण। इसके मालिक ही इसके संपादक हैं। जरूरत हो तो बताइए और कौन-कौन से स्याह सफेद की बात खोलूं। पर अखबार मालिकों के आगे यह घुंघरू बांध कर नाचना बंद कीजिए। पैसा कमाने ही निकले हैं तो अखबार क्यों निकाल रहे हैं ये पूंजीपति। पैसा कमाने के ढेरों रास्ते हैं। छपे हुए शब्दों की पवित्रता से कृपया मत खेलें। जोशी जी हमारे वो बुजुर्ग हैं जिन्होंने मालिकों के आगे घुटने नहीं टेके। अंग्रेजी छोड़कर हिंदी में आए और हिंदी पत्रकारिता को अस्मिता व तेवर दिया है। उनसे आप असहमत रहिए, बहुत सारे बिंदुओं पर मेरी भी असहमति है पर अभी तो वह सही मसला उठा रहे हैं। उन्हें सलाम करिए। कुतर्क करने और कुंठाएं बाहर करने का यह समय नहीं है। यह आत्ममंथन का समय है।
धन्यवाद
दयानंद पांडेय