क्या ‘बूढ़े’ बसा पाएंगे ‘नई’ दुनिया? – एक ऐसी बहस जो बहुत पहले शुरू कर दी जानी चाहिए थी। आज जो सवाल उठ रहे हैं, दरअसल हिंदी पत्रकारिता के लिए वो काफी पहले ही बहस के विषय बनने चाहिए थे। यह सही है कि अनुभव हमेशा फायदेमंद होता है लेकिन पत्रकारिता वह क्षेत्र है जहां अपडेट रहना अनुभव से कहीं ज्यादा महत्व रखता है। इसी के चलते आज अधिकांश मीडिया ग्रुप युवाओं को ऊंचे पदों पर स्थान दे रहे हैं। मौजूदा दौर में जब पत्रकारिता के सिद्धांत बदले हैं, उसका दायरा बदला है और परिभाषाएं बदली हैं तब वास्तव में यह जरूरी हो गया है कि मीडिया में युवाओं का दबदबा हो। एक मामूली सी आर्ट एंड कल्चर की स्टोरी की भाषा पूरी तरह बदल चुकी है। आज भाषा भी बदलाव के दौर में है। अंग्रेजी अखबार हेडिंग में हिंदी के देसी शब्दों का प्रयोग कर रहे हैं और हिंदी अखबार अंग्रेजी के शब्दों का।
चलताऊ भाषा खबर की स्पीड का आधार बन चुकी है। इस सबके बीच क्या पुराने और अनुभवी पत्रकार इसे स्वीकार कर पाएंगे? उनके लिए तो यह अतिक्रमण का दौर है। उनके सिद्धांतों से परे है। लेकिन मार्केट में टिकना है, कम्पीट करना है तो ये सब करना ही पड़ेगा। मान लीजिए, मजबूरीवश उम्रदराज पत्रकार इस सबसे समझौता कर भी लें तो भी उनका इन्वाल्वमेंट उतना नहीं होगा जितना युवा पीढ़ी का।
वैसे भी पत्रकारिता वो क्षेत्र है जहां भागदौड़ और लाइवली होना पहली योग्यता है लेकिन 40 के पार की उम्र उन्हें चाहकर भी ऐसा नहीं करने देगी। यह सही है कि पत्रकार कभी रिटायर नहीं होता लेकिन प्रोफेशनलिज्म के दौर में बूढ़े कंधों पर इतनी जिम्मेदारी निश्चित ही भारी पड़ सकती है। हालांकि अभी भी कई वरिष्ठ पत्रकार ऐसे हैं जिन्होंने अपने आप को मौजूदा दौर की जरूरतों के हिसाब से ढाल लिया है और ऐसे लोग उस संस्थान के लिए एक कंप्लीट पैकेज साबित हो रहे हैं लेकिन ऐसे वरिष्ठ पत्रकार गिनती के ही होंगे क्योंकि ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो आज के इस ट्रेंड पर अब तक नाक भौं सिकोड़कर इसे युवा पीढ़ी की अकर्मण्यता करार देते रहे हैं। कुल मिलाकर मार्केट में टिकना है तो ग्लोबल और यंग होना ही होगा- ग्लोबल भाषा, ग्लोबल कार्यप्रणाली और ग्लोबल सोच। यह सब संभव है टैलेंटेड युवाओं को मौका देने से।