दीपावली का हुआ उपहारीकरण : लूट सके तो लूट ले : तगड़े पीआर वाले घाघ ताऊ के एक्सक्लूसिव गिफ्ट्स : दीपावली पर एकाएक ही यह लेख लिखने का मन बना बैठा। पेशे से, और दिल से एक पत्रकार हूं। हालांकि बहुत वरिष्ठ नहीं लेकिन अनुभव के मामले में हमेशा से ही भाग्यवान रहा हूं। पत्रकारिता में आने के बाद पिछले काफी समय से दीपावली का उपहारीकरण होते देख रहा हूं। एक-दो मामलों में तो कुछ संतुष्टि होती है कि चलो एक प्रतिष्ठान ऐसा है जिसने गरीब समझे जाने वाले पत्रकारों को दिवाली के मौके पर एक समारोह आयोजित कर मिठाई खिलाकर पटाखे फोडऩे के लिए आमंत्रित किया। लेकिन तमाम ऐसे मौके भी आते हैं जब मन कचोटता है कि क्या यही है देश का चौथा स्तंभ?
जहां चंद ढेलों के उपहारों के लिए पत्रकार अपनी गरिमा-मर्यादा भूलकर आपस में ही एक दूसरे के दुश्मन बन बैठते हैं। यहां मेरा मकसद पूरी पत्रकार कौम को जलील करना और नीचा दिखाना नहीं है बल्कि बहुत से ऐसे घाघ और नीचकर्म करने वाले छोटे-बड़े पत्रकारों को आईना दिखाना है जो दिवाली के नाम पर अच्छे और बुरे, हर तरह के तरीके अपनाकर खुद की जेबें और घर की आलमारियों को हराम के दिए गए उपहारों से भरते हैं। एकाध उपहारों की बात छोड़ दें तो यह बात उन महानुभावों को भी बेहतर तरीके से पता होती है कि उपहार देने वाले व्यक्ति की नीयत और मंशा क्या है? क्या वो उपहार मन से दे रहा है या फिर पत्रकार उन पर दबाव बनाकर जबरन उनसे मन-मुताबिक गिफ्ट देने के लिए कह रहा है? क्या ऐसे उपहारों से वाकई खुशी और संतुष्टि पाई जा सकती है। यह सोचने का विषय है।
पता नहीं, ऐसा क्या है दिवाली में जो हमें हमसे ही जुदा बना देता है। कॉरपोरेटाइजेशन के बाद से दिवाली अब खुशियों और रोशनी का त्योहार नहीं, बल्कि यह अपनी इच्छाओं की पूर्ति का साधन बन गया है। इसके लिए पत्रकार बिरादरी हर वो काम करने से नहीं झिझकती जिसे सामान्य तौर पर दलाली की संज्ञा दी जाती है। मीडिया कौम में काफी ऐसे कथित पत्रकार हैं जिनमें दिवाली पर लूटने की हवस इस कदर हावी हो जाती है कि वो अपने पद की गरिमा और मर्यादा भूलकर हर वो गलत-सही काम करने में खुशी महसूस करते हैं जिन्हें अन्य कोई करे तो उसके खिलाफ कई-कई कॉलम की खबर तैयार कर दी जाती है। वो घटना टीवी चैनलों के यहां कई घंटों तक टीआरपी बटोरने का मसाला बन जाती है।
अब दिवाली दीपों से सजी, खुशियों से भरी, रोशनी से जगमगाती और आपस में प्यार-सम्मान बढ़ाती नहीं रह गई बल्कि दिवाली अब उपहारों के लेन-देन का जरिया बन चुकी है। कई बड़े प्रतिष्ठान-संस्थान इस मौके पर मीडियाकर्मियों से बेहतर पीआर बढ़ाने के लिए गिफ्ट बांटते हैं। कई संस्थान-संगठन पत्रकारों से उनकी ख्वाहिशें पूछकर उनके मन-मुताबिक तोहफे देते हैं।
लेकिन यह तस्वीर का बहुत छोटा सा हिस्सा भर है। पत्रकार बिरादरी और दिवाली की बहुत लंबी कहानी है। अपने अनुभव को बताऊं तो देखा है कि हर मीडिया क्षेत्र में एक-दो घाघ लोग पत्रकारिता के ताऊ होते हैं। इनका काम हर संस्थान-प्रतिष्ठान-संगठन-उद्योग आदि से पीआर बढ़ाने का होता है। यदा कदा यह अपनी सेटिंग के जरिए अन्य अखबारों और चैनलों के सेट पत्रकारों से खबरों में उन्नीस-बीस का आंकड़ा भी फिट करा लेते हैं। दिवाली के कुछ दिन पहले से यह अचानक काफी व्यस्त हो जाते हैं। अपने सभी प्रिय पीआर वाले संस्थानों-प्रतिष्ठानों आदि से यह उपहारों के लिए कहने लगते हैं। लेकिन यहां पर इनका एक दूसरा चेहरा काम करता है। यह योजना बनाकर चलते हैं। अन्य अखबारों-चैनलों के अपने करीबी मित्रों को यह सबसे पहले वाली सूची में लिखते हैं जबकि इनसे सेट न होने वाले पत्रकार बंधुओं को यह दूसरी सूची में लिखते हैं। एक तीसरी सूची ऐसी होती है जिनमें सभी के साथ छुटभैय्यों के भी नाम होते हैं।
जहां से तगड़े-मनमुताबिक उपहार लेने की बात होती है, वहां सबसे पहली वाली सूची पहुंचा दी जाती है। कहा जाता है कि अरे, दीवाली के मौके पर इन सबको खुश कर दो, मेरा क्या है, मुझे तो बस…….. चाहिए। तगड़ी सेटिंग का कमाल होता है कि सब के साथ इनके पास भी वो अति-विशिष्ट उपहार पहुंच जाता है और इनकी विशेष ख्वाहिश भी अलग से पूरी कर दी जाती है। कई ऐसे प्रतिष्ठान-संस्थान होते हैं जहां इनकी सेटिंग तगड़ी नहीं होती। ऐसी जगह पहली और दूसरी सूची मिलाकर दे दी जाती है और वरिष्ठों के अलावा बाकी सभी को एक-सा उपहार देने के लिए कह दिया जाता है। कहने के साथ ही एक धमकी भी होती है कि यही मौका है फायदा नहीं उठाया तो पछताना पड़ सकता है। इसके साथ ही इस सूची के कुछ चुनिंदा लोगों के लिए अलग से डिमांड रख दी जाती है। अब बाकी बचे छुटभैये लोगों-व्यक्तियों, प्रतिष्ठानों-संस्थानों को तीसरी सूची देकर कह दिया जाता है कि अरे भईय्या साल भर तुम्हारे काम आते हैं। दीवाली जैसे मौकों पर तो सभी को कुछ समझो।
लेकिन इन सभी में तगड़े पीआर वाले घाघ ताऊ और उनके साथ वालों का महत्वपूर्ण रोल रहता है। अपने पसंद और मनमुताबिक बताए गए एक्सक्लूसिव गिफ्ट्स को यह अलग से मंगवाते हैं। कइयों से तो इसे सीधे घर में डिलेवर करने के लिए कह दिया जाता है। बल्कि कई इन घाघ ताऊ या फिर इनके किसी खास साथी की लंबी गाड़ी में रखवा दिए जाते हैं। सभी अपने-अपने पते पर इन्हें मंगवा लेते हैं।
लेकिन इसके अलावा बाकी बचे सामान्य उपहार यह अपने सभी साथियों के सामने ही एक साथ मंगवाते हैं जिससे पता चले कि गुरु-चेले की दिवाली एक जैसी ही मनाई जा रही है।
कभी-कभी विडंबना भी आ जाती है। जब चेले का कोई चाहने वाला कार्यालय में चेले की नामौजूदगी में गुरु को उपहार देकर चला जाता है। तो सबसे पहले तो उपहार खोल कर देखा जाता है। यदि मतलब का हुआ तो गुरु रख कर बिल्कुल अनभिज्ञ बन जाते हैं। या फिर उसे छिपाकर एक सस्ता सा उपहार पैक कराकर चेले को दे देते हैं। जबकि कई ऐसे मौके भी आते हैं जब चेले को पता ही नहीं चलता कि उसके पीठ पीछे कौन आया था और क्या-क्या खेल हो गए।
यदि चेला उपहार लेने से मना कर दे तो उसे फिर पत्रकारिता का ककहरा सिखाया जाता है। समझाया जाता है कि अगर कोई सम्मान कर रहा है तो क्या दिक्कत है। ऐसे मौकों पर अपनी जिद नहीं दिखानी चाहिए, सभी से कोऑपरेट करके चला जाता है…सहित और भी न जाने क्या-क्या।
…अब मेरी विनती है उन वरिष्ठों, अग्रजों, अनुभवियों, विशेषज्ञों और मठाधीशों से कि कृपया पत्रकारिता को प्रदूषित न करें। पत्रकारिता में उपहारों का लेन-देन प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से रिश्वत देने का ही तरीका है। यदि अखबार-चैनल की दी गई तनख्वाह से घर नहीं चलता तो कोई और धंधा करें। लेकिन पत्रकारिता के भविष्य और गरिमा को ध्यान में रखते हुए इसे केवल हेय निगाह से देखा जाने वाला व्यवसाय न बनाएं।
धन्यवाद
कुमार