एक पुरानी देसी कहावत है खिसियानी बिल्ली खम्भा नोचे। उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती कुछ ऐसा ही कर रही हैं। कांग्रेस और राहुल गांधी के खिलाफ 19 जून से उनका शर्म करो अभियान शुरू हो रहा है और इस अभियान के लिए जारी उनके परचे को पढ़कर कोई भी यही निष्कर्ष निकाल सकता है। इस परचे में मायावती ने गांधी जी को नाटकबाज घोषित कर दिया है। मायावती शायद यह भूल रही हैं कि गांधी ने ऊंच-नीच को खत्म करने के लिए खुद अपने हाथ में झाड़ू उठाकर शौचालय तक साफ किए थे। और, जिस युग में गांधी ने यह काम किया था उस युग में ऐसा सोच पाना भी आम हिंदुस्तानी के लिए संभव नहीं था। हालांकि गांधी जी से मायावती का बैर पुराना है। लेकिन इस बार की टीस कुछ और है।
जिस दलित वोट बैंक को गांठ बांधकर मायावती हाल के सालों में जाति की राजनीति करती रही हैं, लोकसभा चुनाव के नतीजों ने यह साफ कर दिया है कि उस वोट बैंक का रुझान फिर से कांग्रेस की ओर बढ़ने लगा है। अपने हाथों से इस ट्रांसफरेबल वोट बैंक के खिसक जाने की आशंका से मायावती ठगी-सी रह गई हैं और उनकी यह खिसियाहट ही उन्हें गांधी के गिरेबान को छूने की हिमायत करने को मजबूर कर रही है। गांधी पर कीचड़ उछालने से पहले मायावती को एक बार अपना दामन भी देख लेना चाहिए। सीबीआई और देश की सबसे बड़ी अदालत में उन पर मामले चल रहे हैं और यह मामले समज सेवा के तो नहीं ही हैं।
राहुल गांधी के दलित लोगों के घर में जाकर खाना खाने या रात बिताने पर भी मायावती को सख्त आपत्ति है। यह राहुल गांधी का नाटक हो सकता है लेकिन जिस परिवेश में राहुल गांधी बड़े हुए हैं, उनका लालन-पालन हुआ है, उस केक वाली संस्कृति को छोड़कर दलित के घर खाना खाने का नाटक करने की हिम्मत राहुल गांधी के पास है तो सही। मायावती तो शायद ऐसा सोच भी नहीं सकतीं। मायावती के पास आज क्या नहीं है? वो सबसे अधिक शक्तिशाली है, सबसे अधिक वैभवशाली हैं, उन्हें जन्मदिन में करोड़ों के तोहफे मिलते हैं। उनके पास जनता से दान में मिले करोड़ों रुपए की संपत्ति है।
क्या नहीं है उनके पास! लेकिन इन सब चीजों से विवेक तो हासिल नहीं किया जा सकता। वे दलित की बेटी को प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया का आरोप लगाकर भले ही अपने वोट बैंक को भावुक करने की कोशिश कर लें लेकिन जब तक वे समाज के सबसे निचले तबके को ऊपर उठाने के लिए कुछ करते हुए नहीं दिखाई देंगी तब तक ऐसी अपीलों से कुछ हासिल होने वाला नहीं। मायावती को चाहिए कि वे पत्थरों के बुतों के बजाय उन बुतों को गढ़ने वाले जीते जागते इंसानी बुतों की चिंता करें। दलित समाज को सिर्फ वोट बैंक ही न समझें, जीते-जागते इंसानों का दुख-दर्द भी महसूस करने की कोशिश करें। वैसे भी दलित के घर में जन्म लेने भर से ही कोई दलित का बेटा या बेटी नहीं हो जाता।