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खबरों का धंधा : ‘पेज-3’ से ‘एडवरटोरियल’ तक

हरिवंशप्रभात खबर (झारखंड) के एक स्थानीय संपादक के पास एक सज्जन आये. उन्होंने पहले सूचना दी कि अखबारों ने राजनीतिक दलों या चुनाव लड़ रहे प्रत्याशियों द्वारा जारी प्रेस विज्ञप्ति, बयान या प्रेस कांफ्रेंस के लिए रेट तय किये हैं. मसलन अगर प्रत्याशी को इंटरव्यू कराना है, तो 25000 रुपये देना होगा. अपने पक्ष में विश्लेषण करवाना है, तो फी अलग है. प्रत्याशी के साथ चुनावी दौरे पर जाना है, तो उसका शुल्क अलग है. ये चीजें छपेंगी, खबरों के शक्ल, रूप, आकार या फार्मेट में.

हरिवंश

हरिवंशप्रभात खबर (झारखंड) के एक स्थानीय संपादक के पास एक सज्जन आये. उन्होंने पहले सूचना दी कि अखबारों ने राजनीतिक दलों या चुनाव लड़ रहे प्रत्याशियों द्वारा जारी प्रेस विज्ञप्ति, बयान या प्रेस कांफ्रेंस के लिए रेट तय किये हैं. मसलन अगर प्रत्याशी को इंटरव्यू कराना है, तो 25000 रुपये देना होगा. अपने पक्ष में विश्लेषण करवाना है, तो फी अलग है. प्रत्याशी के साथ चुनावी दौरे पर जाना है, तो उसका शुल्क अलग है. ये चीजें छपेंगी, खबरों के शक्ल, रूप, आकार या फार्मेट में.

पर उनका भुगतान विज्ञापन की तरह करना होगा. यह अंडरहैंड डीलिंग होगी. फिर पूछा कि आपके अखबार में इन चीजों के लिए क्या रेट तय किये हैं? प्रभात खबर के उक्त स्थानीय संपादक ने कहा, हमें अन्य अखबारों के बारे में नहीं मालूम. हम दूसरों के बारे में न कुछ जानते हैं. न कुछ बता सकने की स्थिति में हैं. पर प्रभात खबर ने 15.03.09 को अंतिम पेज पर चुनाव कवरेज की अपनी आचार संहिता छापा था. प्रभात खबर लगभग हर चुनाव में यह करता रहा है. उस आचार संहिता में स्पष्ट है कि चुनावों का कवरेज किस तरह प्रभात खबर छपेगा.

पत्रकारिता की सबसे पवित्र चीज है, उसका कंटेंट. वही उसकी साख है. वही उसकी ताकत है. वही उसकी पूंजी है. पाठकों के प्रति उसकी मूल प्रतिबद्धता है कि वह सही सूचनाएं पाठकों तक पहुंचाये. कंपनियों को भी सुविधा हुई. खबर के रूप में प्रेस विज्ञप्तियां छपने लगीं. कंपनियों को लगा, उनके विज्ञापन पर पाठक का वह भरोसा नहीं होता है, जो खबर पर होता है. विज्ञापन के बारे में आम धारणा है. यह आत्मप्रचार है, स्वप्रचार है. इसलिए इसमें चीजें चढ़ा-बढ़ा कर या लुभाने के लिए या बाजार में मांग क्रियेट करने के लिए कही या बतायी जाती है. पर खबर पर पाठक भरोसा करता है, क्योंकि वह मानता है कि खबर सच पर आधारित होगी. वैसे भी पत्रकारिता में खबरों पर सौदेबाजी, यह अनसुनी या अकल्पनीय बात रही है. पर 15-20 वर्षों पहले भारत में इस प्रवृत्ति की शुरुआत हुई. अंग्रेजी में. इसके बाद पेज-3 की पत्रकारिता अवतरित हुई. वह भी अंग्रेजी पत्रकारिता की देन है. बड़े लोगों और समृद्धों की पार्टियां. इन पार्टियों की तस्वीरें अखबारों में छपने लगीं. यह वर्ग स्वप्रचार का भूखा होता है. तरह-तरह के वस्त्रों (अधनंगे भी) में पार्टियों की तस्वीरें भुगतान के आधार पर अखबारों में छपने लगीं. इस तरह पत्रकारिता में साख की लक्ष्मण रेखा टूट गयी. फिर आया एडवरटोरियल का जमाना.

विज्ञापन को एडिटोरियल के रूप में प्रस्तुत करने की विधा या कला को एडवरटोरियल कहते हैं. अब यह हिंदी अखबारों तक भी आ पहुंचा है. यानी जिन चीजों का विज्ञापन करना है, उन्हें खबर बनाकर अखबार में प्रस्तुत करना. ऐसा क्यों? ऐसा इसलिए, क्योंकि लोगों को विज्ञापन की अपेक्षा खबर (एडिटोरियल) पर ज्यादा भरोसा होता है. पहले अखबार व संपादक एडिटोरियल में एक शब्द भी हेर-फेर की इजाजत नहीं देते थे. यह स्पष्ट निर्देश होता था कि खबर (एडिटोरियल) तथ्यों पर आधारित हो. वह प्रामाणिक हो. इसलिए अपनी प्रामाणिकता, सच्चाई के कारण एडिटोरियल पक्ष ने पाठकों की विश्वसनीयता अर्जित की. अपनी विश्वसनीयता और सही सूचना के लिए ही अखबार पढ़े जाते हैं. अधिक बिकते हैं. विज्ञापन के बारे में आम धारणा है कि प्रचार, किसी वस्तु प्रचार या उद्देश्य के पक्ष में माहौल बनाने का प्रयास है. जो कुछ प्रचार में कहा जाता है, वह सब सच पर आधारित है, ऐसी धारणा नहीं है. इसलिए बिजनेस की दुनिया ने देखा कि पत्रकारिता में जो सबसे अधिक विश्वसनीय है, पत्रकारिता का प्राण है, उसको ही क्यों न व्यवसाय के लिए इस्तेमाल किया जाये. इस तरह एडवरटोरियल जन्मा और बढ़ा.

भारत में याद करिए, 1995-96 का दौर. अचानक पैरा-बैंकिंग कंपनियों की बाढ़ आ गयी. बिहार झारखंड में भी (तब झारखंड, बिहार का हिस्सा था). हेलियस, कुबेर, जेवीजी और न जाने कितनी कंपनियां. इन्होंने बड़े पैमाने पर प्रचार किया. अखबारों ने भर-भर पेज एडवरटोरियल इनके पक्ष में लिखे. कुकुरमुत्ते की तरह इनके मालिक उग आये. बड़े नेता इनके आगे-पीछे घूमने लगे. हेलिकाप्टर से इनका प्रचार होने लगा. अखबारों में विज्ञापनों की वर्षा होने लगी. इनके मालिकों पर बड़े-बड़े प्रशंसात्मक लेख छपने लगे. किसी ने इन कंपनियों के अर्थशास्त्र या बिजनेस गणित पर गौर नहीं किया. कैसे तीन वर्ष में पैसे डबल हो सकते हैं?  प्रभात खबर ने यह सवाल उठाया कि बड़े-बड़े अर्थशास्त्री या बिजनेस के जानकार लोग इन कंपनियों के बिजनेस माडल पर सवाल उठा रहे हैं. ये कंपनियां लोगों को ठग रहीं हैं. कुछेक ने साफ-साफ कहा, यह ठगी का धंधा है. प्रभात खबर ने इन चीजों का छापा. वे चिटफंड कंपनियां या पैरा-बैंकिंग कंपनियां इस अखबार के खिलाफ अदालत भी गयीं. पर अंततः क्या हुआ. वे डूब गयीं. उन्हें डूबना ही था. और अपने साथ लाखों-करोड़ों लोगों का भविष्य लेकर डूबीं. न जाने कितने गरीबों ने आत्महत्याएं कर लीं, क्योंकि वे इन कंपनियों में अपने जीवन की पूंजी लगाकर लुट चुके थे.

इस तरह इन कंपनियों ने पत्रकारिता की साख से सौदेबाजी की. साख से यह सौदेबाजी की परंपरा को राजनीति ने अच्छी तरह समझा और इस्तेमाल करना शुरू किया. 1995 के मध्य प्रदेश के चुनावों से यह प्रक्रिया परवान चढ़ी. नेताओं के प्रेस रिलीज बेचने, इंटरव्यू बेचने, अपने पक्ष में खबर लिखवाने यानी खबरों की सौदेबाजी. फिर राजस्थान, पंजाब, उत्तर प्रदेश में हुए चुनावों में खबर बेचने की इस प्रक्रिया को लेकर खूब सवाल उठे. बहस हुई. पर यह प्रक्रिया चलती रही. सूचना है कि यह धंधा बिहार और झारखंड में भी पांव पसार रहा है. इसलिए प्रभात खबर, चुनाव में अपनी आचार संहिता को छापता है, ताकि सार्वजनिक रूप से पाठक जानें कि हमारी कार्यशैली क्या है? अपने पाठकों को प्रभात खबर पुनः स्पष्ट करना चाहता है कि उसके चुनाव कवरेज के स्पष्ट निर्देश क्या हैं?

  1. प्रेस विज्ञप्ति – जेनुइन प्रेस विज्ञप्ति छापना अखबारों की परंपरा है. लोकतंत्र में दलों के विचार प्रेस विज्ञप्ति के माध्यम से आते हैं. हम व्यक्तिगत आरोप, प्रत्यारोप या निराधार आरोपों की प्रेस विज्ञप्ति पहले भी नहीं छापते थे, आगे भी नहीं छापेंगे. हर जेनुइन प्रेस विज्ञप्ति के साथ चुनाव पहले जैसा हम ट्रीटमेंट करते रहे हैं, आगे भी करते रहेंगे. प्रेस विज्ञप्ति के लिए कहीं कोई शुल्क की बात करता है, तो वह अपराध है.
  2. इंटरव्यू – प्रमुख प्रत्याशियों के इंटरव्यू छापना, लोकतंत्र में मीडिया का फर्ज है,  ताकि उनके विचारों को जनता जाने. उनके अनुरूप वोट दे. यह संपादकीय काम है. यह विज्ञापन नहीं है.  और न इसके लिए कोई शुल्क लगता है.
  3. विश्लेषण – चुनावों में किसी को जिताना-हराना अखबारों का धर्म नहीं है. न विश्लेषणकर्ता का. चुनाव में चल रही प्रवृतियों का संकेत करना, उनका विश्लेषण करना, यह पत्रकार का पवित्र संपादकीय फर्ज है. वह अपने विवेक के अनुसार काम करता है. विश्लेषण विज्ञापन नहीं है कि इस पर कोई मोल-भाव होता है. किस इशू पर विश्लेषण जरूरी है, यह भी तय करना अखबारों का अधिकार है.
  4. प्रत्याशियों के साथ दौरा – पत्रकार इस दौरे में महत्वपूर्ण प्रत्याशियों के साथ जाते हैं. वे आबजर्वर की तरह चीजों को देखते हैं. अपनी रिपोर्ट लिखते हैं. यह भी विज्ञापन नहीं है और न विज्ञापन की दृष्टि से इसका मोल-भाव होता है.
  5. फोटो छापना – चुनाव प्रचार में फोटो छापने का भी रेट तय किया गया है, ऐसी चर्चा है.  हम नहीं जानते कि सच क्या है? पर प्रभात खबर चुनाव प्रचार की तस्वीरें पूर्ववत छापेगा,  क्योंकि यह न्यूज का हिस्सा है.  और खबरें बिका नहीं करतीं. इसी तरह चुनाव में समाचार एकपक्षीय नहीं हो सकते.  न किसी के खिलाफ द्वेष से चीजें लिखी जा सकतीं  हैं. सूचना यह है कि यह भी परंपरा शुरू हो गयी है कि एकमुश्त किसी दल या नेता से सौदेबाजी हो जाये और उसके पक्ष की प्रेस विज्ञप्तियां और खबरें खूब छपती रहें. पर जो अखबारों की गलत शर्तों को न माने, उसकी खबरें न छपे या विरोध में छपे.

ये सारे हथकंडे अखबारों की विश्वसनीयता छीन लेने या खत्म करने के प्रयास हैं. इसके प्रति पत्रकारों को सजग होना पड़ेगा. संबंधित संस्करणों के पाठक संबंधित संस्करणों के लोगों को ही लिखें या सूचित करें.


लेखक हरिवंश मशहूर पत्रकार और बिहार-झारखंड के प्रमुख अखबार प्रभात खबर के प्रधान संपादक हैं। पत्रकारिता में कंटेंट की निष्पक्षता और पवित्रतता के हिमायती हरिवंश ने लोकसभा चुनावों के दौरान मीडिया हाउसों द्वारा नेताओं से पैसे लेकर चुनावी खबरें प्रायोजित कराने और रिपोर्टरों-ब्यूरो चीफों-संपादकों के जरिए धंधेबाजी कराने के खिलाफ प्रभात खबर के माध्यम से अभियान चला रखा है। इसी कड़ी में यह आलेख प्रभात खबर में प्रकाशित किया गया, जिसे साभार यहां दिया जा रहा है। आलेख कैसा लगा, इस बारे में आप फीडबैक [email protected] पर मेल कर सकते हैं।

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