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बेटा रो मत, वो उत्तराखंड का भगत सिंह है

: हेम ने मुझे दुनिया को देखने का नजरिया दिया : उसने महाविद्यालय को मात्र दो सालों में लालकिला में तब्दील कर दिया : तब सोचता था, दुबले-पतले इस शख्स में इतनी ऊर्जा कहां से आती थी : वो कहता, अच्छा इंसान होना कम्युनिस्ट होना होता है तो मैं कम्युनिस्ट हूं : वो सच लिखता था, सच कहता था, वही सच मौत का कारण बना :

विजय वर्धन उप्रेती

: हेम ने मुझे दुनिया को देखने का नजरिया दिया : उसने महाविद्यालय को मात्र दो सालों में लालकिला में तब्दील कर दिया : तब सोचता था, दुबले-पतले इस शख्स में इतनी ऊर्जा कहां से आती थी : वो कहता, अच्छा इंसान होना कम्युनिस्ट होना होता है तो मैं कम्युनिस्ट हूं : वो सच लिखता था, सच कहता था, वही सच मौत का कारण बना :

हेम के बारे में कभी लिखूंगा, वो भी उसकी शहादत के बाद, उसके इतिहास पर… सपने में भी नहीं सोचा था। कैसे हो गया सबकुछ एक झटके में। अभी भी लगता है, कोई बहुत बुरा सपना देखा था। जिसका असर कुछ ज्यादा ही रह गया। लेकिन नही, झकझोर देने वाली 1 जुलाई 2010 की वो घटना जिसकी ख़बर हमें दो दिन बाद बमुश्किल मिल पाई। सच है, एकदम सच और सौ फीसदी सही। हेम का चेहरा तब से लेकर अब-तक भूले नहीं भूल पा रहा हूं। 33 साल के खुद के जीवन में इस घटना ने मुझे इस कदर झकझोर दिया है कि मैं उस व्यथा को शब्दों में भी व्यक्त नहीं कर पा रहा हूं।

हेम के जाने की खबर से मैं एक बार नहीं बल्कि हजार बार भावनात्मक तौर पर कमजोर हुआ हूं। छोटी उम्र में ही कई करीबी लोग हमेशा-हमेशा के लिए मुझे छोड़कर चले गये। तब भी उस छोटे से बच्चे ने हर चुनौती का डटकर मुकाबला किया। लेकिन आज वो बच्चा बड़ा हो गया है। फिर भी हेम का जाने का सदमा झेल नहीं पा रहा है। हेम, मेरे स्कूली दिनों का साथी ही नहीं था। बल्कि एक ऐसा दोस्त था, जिसके साथ घंटों बैठकर मैं विश्व के इतिहास, भूगोल, अर्थशास्त्र और राजनैतिक आंदोलनों के साथ ही राजनैतिक व्यवस्था पर चर्चा किया करता था।

उत्तराखण्ड के सीमांत जनपद पिथौरागढ़ के एक छोटे से कस्बे देवलथल से हेम जिला मुख्यालय में उच्च शिक्षा लेने आता है। पहले दिन वो कालेज के हाई-फाई लड़के-लड़कियों के बीच खुद को असहज पाता है। लेकिन फिर धीरे-धीरे एक दिन उन्हीं का नेता बन जाता है। ये सब कुछ हुआ उसकी प्रतिबद्बता से। इतनी मजबूत इच्छा शक्ति और लक्ष्य को लेकर जुनून की हद तक चले जाना कम ही लोगों में दिखता है। मुझे उस दौर के रेडिकल छात्र संगठन कहे जाने वाले आइसा से जोड़ने का काम हेम ने ही किया। उसने मुझ जैसे अराजक और मौज-मस्ती में जीने-वाले युवक को कब दुनिया के बारे में सोचने-समझने लायक बना डाला, मुझे पता ही नहीं चला। अगर मैं कहूं, कि हेम ने मुझे दुनिया को देखने का नजरिया दिया तो गलत नही होगा। वो मेरे लिए दोस्त और संघर्षों का साथी होने के साथ ही पहला अध्यापक भी रहा।

हेम की इस काबीलियत का पता मुझे तब चला, जब मैं कुछ-कुछ दुनिया को जानने लायक बना। पिथौरागढ़ महाविद्यालय में आइसा ने 1993 से काम करना शुरू किया और हेम पिथौरागढ़ में संगठन के संस्थापक सदस्य बने। लेकिन संगठन की समझ उसमें सक्रिय होने से पहले ही भूपेन्द्र ने विकसित कर दी थी। संगठन को खड़ा करने का ये हेम का माद्दा ही था कि जिस महाविद्यालय में वामपंथ का नाम भी किसी ने नहीं सुना था उसी महाविद्यालय को मात्र दो सालों में लालकिला कहा जाने लगा। जिसका नतीजा ये रहा कि एक के बाद एक लगातार तीन महत्वपूर्ण छात्र संघ के पद आइसा जीतती गई। बाहर से देखने वाले नहीं जानते थे कि ये कारनामा कैसे हो रहा है। लेकिन मैं भलीभांति जानता हूं कि हेम ने महाविद्यालय ही नहीं बल्कि उससे बाहर भी वामपंथी सर्मथकों की एक अच्छी-खासी तादात खड़ी कर दी थी। जो अपनी क्षमतानुसार संगठन को मदद करते रहते थे। लोगों में वैचारिक परिवर्तन लाने की जो कला हेम में रही, वो कम लोगों में दिखाई देती है।

मुझे याद आ रहा है, हेम ने दक्षिणपंथी छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के कई सक्रिय लोगों को भी वामपंथी बना डाला। वे लोग आज भी हेम के दिखाये रास्ते को ही सही मानते हैं। कुल मिलाकर कहा जाय तो हेम सिर्फ एक व्यक्ति का नाम नहीं था, वो विचार है, युवाओं के लिए प्रेरणा है, आज की पीढ़ी के लिए आदर्श संन्यासी है। मुझे याद आता है, कॉलेज के दिनों में रात-रात भर वाल राइटिंग करते-करते हम थक जाया करते थे। लेकिन हेम सुबह ठीक कॉलेज के समय में मेरे कमरे में पहुंच जाता था। जबकि मैं सोया ही उसे मिलता था। मेरी समझ में नहीं आता था कि शरीर से कमजोर नजर आने वाले इस शख्स में आखिर इतनी ऊर्जा कहां से आती है। धीरे-धीरे महसूस हुआ कि, वो ऊर्जा विचार की थी।

विचार की ताकत उसमें इस कदर थी कि वो मुर्दे को भी जिंदा कर दे। इस सबके बावजूद वो तालाब के जल की तरह शांत व्यक्तित्व का धनी था। गुस्सा तो जैसे उसे कभी आता ही नहीं था। मेरे उग्र मिजाज की वो हर वक्त आलोचना किया करता था। समाज के कमजोर तबके के प्रति जो संवेदना हेम में मुझे दिखाई दी वो भी कम से कम जवानी के उल्लास में डूबे नौजवानों में तो कम ही दिखाई देती है। वो कहता था- उसका सपना एक ऐसे समाज को बनाने का है, जिसमें पूंजी, धर्म, जाति और लिंग के आधार पर सौ फीसदी समानता हो। इसके लिए उसके पास एक विचार भी था। जिसे वो कलम के जरिये कई बार लोगों के सामने रख चुका था। कुछ लोग तब उससे कहा करते थे, तुम कम्युनिस्ट हो, इसके जवाब में वो कहता था कि अगर एक अच्छा इंसान होना कम्युनिस्ट होना होता है तो मुझे इससे कोई गुरेज नहीं है। साथ ही वो कहता था कि पूरी तरह कम्युनिस्ट होना इतना आसान नहीं है।

वैचारिक द्वंद्वों के बीच कई दफा हममें काफी गर्मागरम बहसें भी हुआ करती थीं। इन्हीं द्वंद्वों के चलते पूरे आठ सालों तक भाइयों की तरह रहे हम कुछ दूर-दूर हो चले। लेकिन दुनिया को बेहतर देखने के विचार ने हम दोनों को एक सूत्र में बांधे रखा। दिशाएं हमारी कुछ अलग जरूर हो चुकी थीं, लेकिन जो सपना मेरा दुनिया के थफेड़ों से फीका पड़ता जा रहा था, वहीं हेम उस सपने को साकार करने के लिए उतना ही ऊर्जावान बनता गया। वक्त गुजरने के साथ ही समय के फेर ने मुझे एक प्रोफेशनल जर्नलिस्ट बना डाला। जो सिर्फ अपनी खबरों को बेहतर बनाने में लगा रहता था। लेकिन हेम सिर्फ पत्रकार नहीं बना। पत्रकारिता के जरिये उसने उन विषयों को प्रमुखता से उठाया जिनका सरोकार आम लोगों से होता था। कृषि, आर्थिक नीतियां, अमेरिका, साम्राज्यवाद, राजनैतिक आंदोलनों का सामाजिक महत्व…. ये उसके पंसदीदा विषय थे। इनकी जानकारी हेम के लिखे लेखों को पढकर मिली।

एक बार हेम ने मेरी एक खबर पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा था- ”यार विजय तुम्हारी रिपोर्टिंग देखकर लगता है कि तुमने खुद को बाजार का यंत्र बना डाला है।” एक पत्रकार के नजरिये से भी देखें तो वो पूरी ईमानदारी से पत्रकारिता किया करता था। किसी विषय पर लिखने से पहले वो पूरा फील्ड वर्क करने के साथ ही उसके बारे में दीन-दुनिया की किताबें पढ़ा करता था। इसीलिए उसकी लेखनी में पूरा निचोड़ हुआ करता था।

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मुझे लगा कि हेम का शुरुआती संघर्ष भी लोगों के सामने आना ही चाहिए। इसीलिए काफी कुछ लिख डाला। हेम के बारे में उसके शहर के लोग क्या सोचते हैं, इसे कुछ शब्दों में समेट पाना जरा कठिन है। लेकिन आदिलाबाद के फर्जी इनकाउन्टर में हेम के मारे जाने की खबर ज्यों ही उत्तराखण्ड में फैली, कइयों के मुझे फोन आये। एक महिला का फोन आने पर जब मैं खुद को रोक नहीं पाया तो उन्होंने ढांढस बधाते हुए कहा- ”बेटा रो क्यों रहे हो, तुम्हें तो फक्र होना चाहिए कि, हेम जैसा नौजवान तुम्हारा साथी था। बेटा रो मत वो उत्तराखण्ड का भगत सिंह है।” अगर सही शब्दों में कहा जाय तो उसे जानने वालों के लिए वो भगत सिंह से कम नहीं है।

वो किस विचारधारा का सर्मथक था, ये हर कोई जानता था। लेकिन उसकी वैचारिक ईमानदारी ही थी कि कांग्रेस, यूकेडी और भाजपा क्या, राज्य सरकार में शामिल हर किसी ने उसकी हत्या की कड़ी निंदा की। निंदा इसीलिए भी की गई कि लोग जानते थे कि हेम जैसा शांत स्वभाव का आदमी कभी हिंसा कर ही नहीं सकता है। भले ही वो किसी भी विचारधारा का सर्मथक रहा हो। लेकिन इंसानियत और बराबरी का सपना उसकी आंखों में हर वक्त रहता था। यही वो कारण है कि हर उत्तराखण्डी का मन उसकी निर्मम हत्या से तार-तार हो गया था। छोटे से कस्बे देवलथल में उसकी हत्या के विरोध में लोग सड़कों पर उतरे।

हर तरफ इस हत्याकांड की घोर निंदा हो रही है। पिथौरागढ़ भले ही देश के आखिरी छोर पर बसा हो। लेकिन सामाजिक सरोकारों के लिए खुद को तक मिटा देने का जज्बा यहां के लोगों में कम नहीं है। हेम इसी जज्बे का पर्याय है। आज के दौर में जब युवा अपने निजी करियर से आगे कुछ सोचने-समझने से भी परहेज करने लगे हैं, हेम का सामाजिक सरोकारों के प्रति खुद को मिटा देना, क्या कभी भुलाया जा सकेगा?

इंसाफ की लड़ाई में, मौत कोई शिकस्त नहीं होती

शहीदों को कहीं अलविदा, कभी पस्त नहीं होती

जिन्दगी के लिए दांव चढ़ी जिन्दगी, कभी खत्म नहीं होती।

कॉलेज के दौर में, आज की मेरी जीवनसाथी और तब की साथी पूनम को अपने साथियों से डायरी लिखवाने का काफी शौक था। हेम का लिखा पन्ना मेरी आंखों के सामने है। उसके लिखे पन्ने के आखिर में पूनम ने यही कविता लिखी थी। तब नहीं सोचा था कि ये कविता कभी हकीकत में भी बदलेगी। लेकिन आज इस कविता का एक–एक शब्द हेम के यथार्थ को खुद में समेट रहा है। हेम एक सामाजिक कार्यकर्ता था, जो एक विचार से प्रेरित होकर लोगों की बेहतरी के लिए लड़ा करता था। साथ ही एक ऐसा पत्रकार भी जो लोगों की परेशानियों को अपने कलम की ताकत से दूर करने की कोशिश भी करता था। उसकी विजय वर्धन उप्रेतीगिनती उन पत्रकारों में नहीं की जा सकती, जो पैसों और करियर के लिए कुछ लिखने और करने के लिए तत्पर रहते हैं। वो सच लिखता था, सच कहता था। वो ही सच उसकी मौत का कारण भी बना। लेकिन उसके सच को कभी नहीं मारा जा सकता है। वो जिंदा है..तब-तक जब-तक दुनिया घूमती रहेगी।

लेखक विजय वर्धन उप्रेती हिमालयन जर्नलिस्ट एसोसिएशन के अध्यक्ष हैं.

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0 Comments

  1. kamta prasad

    September 9, 2010 at 1:46 pm

    Bravo. Peoples and history is with us.

  2. kamta prasad

    September 9, 2010 at 1:47 pm

    I need ur email, brother.

  3. yadwinder

    September 9, 2010 at 7:50 pm

    हेम —long live…

  4. Sudhir.Gautam

    September 9, 2010 at 10:00 pm

    तुम कम्युनिस्ट हो, इसके जवाब में वो कहता था कि अगर एक अच्छा इंसान होना कम्युनिस्ट होना होता है तो मुझे इससे कोई गुरेज नहीं है। साथ ही वो कहता था कि पूरी तरह कम्युनिस्ट होना इतना आसान नहीं है।”…सच लिखता था, सच कहता था। वो ही सच उसकी मौत का कारण भी बना। लेकिन उसके सच को कभी नहीं मारा जा सकता है। वो जिंदा है..तब-तक जब-तक दुनिया घूमती रहेगी।”
    You are right Vijay Bhai…they can kill a man, but cant kill a “Vichaar” it remains…it in fact grow stronger…Just after reading this I have decide to re-initiate, what I left in between…so people like “Hem” does exist in other forms when they are actually not in thy physical form.
    Comrades Never Die!!!
    फिर से हमने शुरू किया है सफ़र, ये कारवां है की अब थमता नहीं है…
    मौत का खौफ था सो तुम ले गए, अब ये देखेंगे की क्या बाकी है!!!
    देखना है की अब क्या बाकी है…
    http://medianukkad.blogspot.com/

  5. vijay

    September 10, 2010 at 11:30 am

    baat samajh nahi aayi.. Naksali tha to police ne maar kar achcha hi kiya, Patrakaar ka nakba kyon pahna rahe ho use…
    Aur agar patrakaar tha to kis akhbaar ne use is kaam ke liye bheja tha
    चित भी मेरी पट भी मेरी नहीं चलेगा बाबू… नक्सल हो तो मरो और मानो कि वह नक्सली था पत्रकार को नकाब पहनकर … पत्रकार के नाम पर सहानुभूति की वसूली मत करो…

  6. sweta

    September 11, 2010 at 8:44 am

    इतना मार्मिक लेख कम ही देखने को मिलता है, सच कहा आपने हेम वाकई आज के भगत सिंह हैं। जो लोग जनआंदोलनों को नही जानता, जिनका सामाजिक सरोकारों से कोई वास्ता नही है, वो कुछ भी उल्टा-पुल्टा कह सकते है। लेकिन जो सच को जानते है, वो जानते है, ऐसे युवा कम ही पैदा होते है।

  7. कमल

    September 11, 2010 at 8:48 am

    कई लोग हेम के मारे जाने पर फालतु के सवाल उठा रहे हैं। असल सवाल ये है,कि भारतीय लोकतंत्र क्या किसी को भी किसी को मारने की इजाजत देता है। हेम का मारा जाना लोकतंत्र पर धब्बा है।

  8. shravan shukla

    September 11, 2010 at 12:27 pm

    hamesha ke liye jinda hai wo ham sabki duwaao me…umeed hai unki jalaai mashaal ko hamari peedhi hamesha prajjwalit kiye rahegi…

  9. harish

    September 12, 2010 at 6:58 am

    भगत सिंह को भी अंग्रेजी शासन के दौर में आतंकवादी कहा गया था। जाहिर है,कि आज के दौर में भी ऐसे लोगों को दुनियां को बदलना चाहते है। आंतकवादी ही कहा जायेगा। लेकिन ये भी है,कि आने वाले समय में ये ही लोग जनता के नायक कहलायेगें। जैसे आज भगत सिंह हैं। जो व्यक्ति समय से पहले आने वाले कल को जान जाता है। भविष्य का पथ-पदर्शक होता है। क्यों भूल जाते हो, जिस सुकरात की बातों को आज दुनियां मान रही है। उन्हें उस दौर में जहर का प्याला पिला दिया था।

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