पता नहीं हिंदी को देवनागरी क्यों कहा जाता है? अगर यह संज्ञा है तो ठीक है मगर सिर्फ इसलिए कि भारत की इकतालीस प्रतिशत आबादी हिंदी बोलती और समझती है, इसे देवनागरी कहना बहुवचन का दुरूपयोग करना होगा। इसके अलावा शास्त्रीय हिंदी, आधिकारिक हिंदी और असली हिंदी यानी बोलचाल की हिंदी के बीच भेद भी तय कर लेने होंगे। हिंदी राष्ट्र भाषा है, मुबारक हो। यह राजभाषा भी है मगर वहां विकल्प दिया गया है कि जिसे हिंदी का उपयोग करे वरना अंग्रेजी तो है ही। लेकिन तकनीकी तामझाम के अलावा वह क्या है जो हिंदी को संवाद संचार और ज्ञान के संतुलन का मानक माध्यम नहीं बनने देता। एक तर्क तो यह दिया जाता है कि दुनिया भर में जो ज्ञान उपलब्ध है वह आम तौर पर अंग्रेजी में है और अगर हमें अपने आपको ज्ञान के खगोल से जोड़ना है तो सिर्फ हिंदी से काम नहीं चलेगा।
हिंदी के जो स्वयंभू अभिभावक हैं वे वैदिक उच्चारण की शैली में हिंदी की जय हो करने की बजाय हिंदी का ज्ञान कोष बढाएं और हिंदी की शब्द संपदा और तकनीक से उसकी मैत्री की दिशा में शोध पर ध्यान लगाएं तो ही हिंदी का भला हो सकता है। सिर्फ तालिबानी शैली में हिंदी के हक में फतवे जारी करने से अगर हिंदी या किसी भी भाषा का उद्धार हो सकता तो कब का हो गया होता। बहुत सारी संस्थाएं हैं जो हिंदी के नाम पर सरकारी और गैर सरकारी खजाने लूट रही हैं, बहुत सारे लोग जो अपने आपको हिंदी हिंदू हिंदुस्तान की शैली में महारथी बनाने के लिए तैयार हैं। यह लोग हिंदी के विकास के लिए ग्वालियर या गुवाहाटी नहीं जाते बल्कि हिंदी को ओरिएंटल साइंस का एक हिस्सा सिद्ध कर के मोटी फेलोशिप लेते हैं और देश विदेश घूमते रहते हैं।
अपने अटल जी एक बार संयुक्त राष्ट्र संघ में हिंदी बोल आए तो इससे हिंदी का कोई कतई निस्तार नहीं हो गया। आम तौर पर सारी भारतीय भाषाएं और यहां तक कि बोलियां भी संस्कृत के गर्भ से निकली हैं और मलयालम और बांग्ला तो संस्कृत के बहुत करीब है। विडंबना यह है कि हम संस्कृत को अब सिर्फ नुमाइश की आदरणीय वस्तु मानते हैं और ब्याह तथा अन्य धार्मिक समागमों में जो रटी हुई संस्कृत हमें सुनने को मिलती है वह तो और भी आपराधिक है। संस्कृत का जो संगीत है वह तो मंत्रों और श्लोकों के अलावा कहीं नहीं मिलता। बहुत सारे भाई लोग ऐसे भी हैं जो हिंदी यानी आज की खड़ी बोली को ज्यादा से ज्यादा डेढ़ सौ वर्ष पुराना मान कर चलते हैं। उनकी राय में भारतेंदु हरिश्चंद्र के आसपास के युग से खड़ी बोली यानी हिंदी का – वह क्या कहते हैं – आविर्भाव – हुआ है और इसके पहले अंग्रेजी थी और उसके पहले उर्दू थी। राजाओं की भाषा राज भाषा होती है और इसमें आश्चर्य की तो बात नहीं हैं। मगर आज के प्रजातंत्र में सिर्फ हिंदी वाले राजा नहीं हैं। प्रतिभा पाटिल मराठी भाषी हैं और मनमोहन सिंह गुरूमुखी और पंजाबी वाले। राजमाता सोनिया गांधी को तो खैर ठीक से हिंदी अब तक समझ में नहीं आई। वे तो आज भी ”सांसद पर अतंकवादी हामला की नींदा कराती है”।
सिर्फ हिंदी का उत्थान हो और सारी भारतीय भाषाएं किनारे पड़ी रहें, इससे मामला हल नहीं होगा और हिंदी का उत्थान भी नहीं होगा। हिंदी, मराठी और गुजराती की लिपि में कोई खास फर्क नहीं है। दरअसल जिसे देवनागरी यानी हिंदी कहा जाता है वह भी लिपि के मामले में मराठी की कृतज्ञ है। इसका दूसरा अर्थ यह है कि मराठी हिंदी से पुरानी भाषा है। भाषाएं चूंकि समाज में से अपना जीवन रस पाती हैं और समाज अपनी अभिव्यक्ति का कितना सम्मान करता है, इससे ही उस भाषा की खगोलीय स्वीकृति तय होती है। जैसा कि अंग्रेज कहते हैं हिंदी नेटिव यानी दासों की भाषा है। उन्हें यह बताने की जरूरत नहीं कि अंग्रेजी अपने आप में कितनी अधिक अवैज्ञानिक भाषा है जहां अक्षर ही कम नहीं हैं बल्कि शब्दों के अर्थ व्यक्त करने के लिए शब्दों का टोटा पड़ जाता है और बहुत सारे शब्द ऐसे हैं जिन्हें कई जगह चलाया जाता है। हिंदी का अपना पूरी तरह विकसित और समृद्ध भाषा विज्ञान तथा व्याकरण है और अलंकारों से लेकर रुपकों तक के महाकोष मौजूद हैं। अगर यह काम सिर्फ डेढ़ सौ साल में हुआ है तो कमाल की बात है। मगर ऐसा हुआ नहीं हैं। हिंदी ने अपने अवयव अवधी, भोजपुरी और मैथिली जैसी भाषाओं के मुहावरों और अलंकारों से प्राप्त किए हैं और जिसे राज भाषा कहा जाता है वह तो बेचारी ऐसी है जिसका खुद हिंदी में अनुवाद कर के ही समझना होता है।
उर्दू अपनी लिपि की वजह से मार खा रही है। ठीक वैसे ही जैसे मंदारिन यानी चीनी भाषा अपनी चित्रलिपि की वजह से पूरे संसार में नहीं छा सकी। होने को चीनी भाषा बहुत बड़ी भाषा है लेकिन इसका श्रेय भाषा को कम और चीन की आबादी को ज्यादा जाता है। उर्दू जब भी देवनागरी में लिखी जाती है तो लाजवाब होती है। हमारी फिल्मों के सदाबहार संवाद और गीत असल में उर्दू में हैं लेकिन उन्हें समाज ने अपना लिया है। साहिर लुधियानवी और शकील बदायूनी से लेकर जावेद अख्तर और निजा फाजली तक जो लिख रहे हैं और जो सबकी जुबान पर चढ़ा हुआ है। लिपि बदली तो स्वीकृति भी बढ़ गई।
दूसरी ओर सिर्फ लिपि ही कृति को लोकप्रिय बनाती हो, ऐसा भी नहीं है। दिनकर की कविताएं पढ़ कर बाकायदा भुजाएं फड़क जाती हैं मगर दिनकर पाठयक्रमों के बाहर और कुछ राजनैतिक नारों के अलावा और कहीं उपलब्ध नहीं हैं। यही हाल दुष्यंत कुमार का है जिनके शेर बहुत सारे आंदोलनों के नारे बन चुके है। मगर दिनकर की ‘उर्वशी’ और दुष्यंत का ‘एक कंठ विषपायी’ शास्त्रीय तौर पर अदभुत होने के बावजूद पाठयक्रमों तक ही सीमित है। हिंदी के हित में सबसे जरूरी और पहली बात यह है कि उसे आंदोलन का विषय होने से बचाया जाए। जो चीज आंदोलन बन जाती है वह असाधारण और अस्वाभाविक हो जाती है। जैसे सोशल इंजीनियरिंग के नाम पर चलने वाली राजनीति हो। एक गलतफहमी टीवी चैनलों के जरिए शुरू हुई। हर चैनल ने कहना शुरू किया कि टीवी की हिंदी दूसरी होती है। एक टीवी चैनल ने तो हिंदी व्याकरण में अंग्रेजी ही चला कर भारत की तस्वीर बदलने की कोशिश कर दी। हिंदी को गोशाला की गैया बना कर चंदा वसूलने से अच्छा है कि हम भारतीय भाषाओं के पक्ष में खड़े हों और हमारे लिए तमिल और कन्नड़ भी उतनी ही पूज्य हो जितनी हिंदी होती है।
आपको हिंदी में समझा दिया, मगर पता नहीं कितना समझा पाया।
लेखक आलोक तोमर मशहूर पत्रकार हैं और न्यूज एजेंसी ‘डेटलाइन इंडिया’ के संपादक हैं। उनसे संपर्क करने के लिए आप उन्हें उनकी मेल आईडी [email protected] पर मेल भेजें या 09811222998 पर फोन करें।