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‘बेटा, ये हीरोइन नहीं हैं, ये तो पत्रकार हैं’

बदलती पत्रकारिता के बदलते स्वरूप : खादी का कुर्ता, पैंट, चप्पल और कंधे पर एक झोला। आज से दशक- दो दशक पहले हम पत्रकार की कल्पना शायद इसी रूप में करते थे। लेकिन अब हमारा देश ग्लोबल हो चुका है। दुनिया बदल रही है और भारत भी कदम से कदम मिला कर आगे बढता जा रहा है। भारत में टेलीकाम, इनश्योरेंस और बैंकिंग कंपनियों की शुरुआत ने देश को नया रुप देने में काफी योगदान दिया, तो वहीं पत्रकारिता के रूप में भी काफी बदलाव आया है। मुझे याद है, अपने बचपन के दिनों मे मैं डीडी न्यूज के न्यूजरीडर्स को देखता था। हल्के रंग की साड़ी पहने गंभीर मुद्रा में गंभीर खबरों को पढती थी। लेकिन जैसे–जैसे खबरें बदलती गईं, खबरों को बताने वालों के स्वरूप में भी बदलाव आता गया।

<p align="justify"><font color="#993300">बदलती पत्रकारिता के बदलते स्वरूप :</font> खादी का कुर्ता, पैंट, चप्पल और कंधे पर एक झोला। आज से दशक- दो दशक पहले हम पत्रकार की कल्पना शायद इसी रूप में करते थे। लेकिन अब हमारा देश ग्लोबल हो चुका है। दुनिया बदल रही है और भारत भी कदम से कदम मिला कर आगे बढता जा रहा है। भारत में टेलीकाम, इनश्योरेंस और बैंकिंग कंपनियों की शुरुआत ने देश को नया रुप देने में काफी योगदान दिया, तो वहीं पत्रकारिता के रूप में भी काफी बदलाव आया है। मुझे याद है, अपने बचपन के दिनों मे मैं डीडी न्यूज के न्यूजरीडर्स को देखता था। हल्के रंग की साड़ी पहने गंभीर मुद्रा में गंभीर खबरों को पढती थी। लेकिन जैसे–जैसे खबरें बदलती गईं, खबरों को बताने वालों के स्वरूप में भी बदलाव आता गया।</p>

बदलती पत्रकारिता के बदलते स्वरूप : खादी का कुर्ता, पैंट, चप्पल और कंधे पर एक झोला। आज से दशक- दो दशक पहले हम पत्रकार की कल्पना शायद इसी रूप में करते थे। लेकिन अब हमारा देश ग्लोबल हो चुका है। दुनिया बदल रही है और भारत भी कदम से कदम मिला कर आगे बढता जा रहा है। भारत में टेलीकाम, इनश्योरेंस और बैंकिंग कंपनियों की शुरुआत ने देश को नया रुप देने में काफी योगदान दिया, तो वहीं पत्रकारिता के रूप में भी काफी बदलाव आया है। मुझे याद है, अपने बचपन के दिनों मे मैं डीडी न्यूज के न्यूजरीडर्स को देखता था। हल्के रंग की साड़ी पहने गंभीर मुद्रा में गंभीर खबरों को पढती थी। लेकिन जैसे–जैसे खबरें बदलती गईं, खबरों को बताने वालों के स्वरूप में भी बदलाव आता गया।

अभी कुछ दिनों पहले की बात है। मै एक न्यूज चैनल देख रहा था जो देश के टाप-5 में गिना जाता है। एक महिला एंकर एक हालिया रिलीज फिल्म की विवेचना कर रहीं थीं। या यूं कहिए की चैनल और वो महिला पत्रकार उस फिल्म का प्रचार कर रहे थे। सब कुछ बड़ा ही नाटकीय था, क्योकि जिस फिल्म का वो प्रचार कर रहीं थी उसका मुख्य किरदार  (Quick Gun Murugun) भी बड़ा नाटकीय है। उस किरदार का नाटकीय होना तो समझ आता है, लेकिन ना जाने उन महिला पत्रकार को क्या हुआ, वो भी बिल्कुल मुरूगन बनी हुईं थीं। हाथों में बंदूक, सर पे बड़ी सी गोल टोपी, रंगीन कपड़े और लंबा सा बूट पहने बिल्कुल मुरूगन लग रहीं थीं।

अचानक मेरे बगल में बैठा 13 साल का मेरा भांजा मुझसे कहता है, ‘मामा इस फिल्म के हीरो – हीरोइन बिल्कुल एक जैसे क्यों हैं?’ मैंने उसे समझाते हुए कहा, ‘बेटा, ये हीरोइन नहीं है, ये तो पत्रकार हैं, जो इस न्यूज को हमें बता रहीं हैं।’ उस बच्चे को तो मैंने समझा दिया लेकिन मैंने सोचा कि इस देश ने ऐसे भी पत्रकार देखे हैं जिन्होंने पूरी जिदंगी साड़ी पहन कर पत्रकारिता की, और आज एक बहुत बड़े मीडिया हाउस की मालकिन हैं। वहीं हमारे न्यूज चैनल (जहां मै पहले कार्यरत था) के कुछ सहयोगियों को देश के राष्ट्रपति का नाम बताने में तीन बार सोचना पड़ता है। चलिए, जो भी हो, बदलाव हमेशा ही अच्छा होता है, ऐसा मैं सोचता हूं, लेकिन हम इतने भी ना बदल जाएं कि दर्शक समझ ही ना पाएं कि जो लोग खबर बता रहें हैं वो हैं कौन?


लेखक मनीष दिल्ली में कई वर्षों से पत्रकारिता कर रहे हैं। उनसे संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है।
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