भोपाल के कुछ मीडियाकर्मियों को एयरपोर्ट पर सुरक्षाकर्मियों ने दौड़ा-दौड़ा कर पीटा। उनका कुसूर इतना था कि वे सपा कार्यकर्ताओं पर हो रहे लाठीचार्ज को कवर कर रहे थे। सुरक्षा की कमान संभालने वाले एक “बहादुर” कमांडेंट ने उन्हें ऐसा न करने के लिए चेताया था। पत्रकारों में से किसी ने जबाब दिया था कि “आप अपना काम करिए, हमें अपना करने दें”। फिर क्या था, पत्रकारों के गर्दन पर पहले पहुंचे अफसरों के हाथ। सिपाहियों ने इसे संकेत समझ लाठियों से खुराक देना शुरू कर दिया।
जिसके भी हाथ में माइक या कैमरा था, वो सारे लोग लाठियों की भेंट चढ़े। एनडीटीवी, न्यूज़ 24, इंडिया न्यूज़, टाइम्स नाऊ के कैमरामैन घायल हुए। सबसे ज्यादा पिटे इंडिया टीवी के पत्रकार अनुराग उपाध्याय। उनका तो पूरा एक दिन हमीदिया अस्पताल के बिस्तर पर बीता। ये एक “सहज” घटना थी जिसे पुलिस ने कुछ गंभीरता से लिया और पत्रकारों को संतुष्ट कराया। अगले दिन भोपाल के हिन्दी-अंग्रेजी सभी अखबारों ने घटना को प्रमुखता से प्रकाशित करते हुए घायल पत्रकारों को मोरल सपोर्ट दिया। दिलचस्प ये है की पिटने वाले सभी नेशनल न्यूज़ चैनल के लोग थे लेकिन उनके ही चैनलों में ये खबर नहीं दिखाई गई। वजह थी उस वक्त राज ठाकरे की पेशी चल रही थी।
ठीक भी है। टीआरपी का नुकसान भला कैसे बर्दाश्त किया जाए? चैनलों ने अपने पत्रकारों के पिटने पर आंशिक अफसोस जताते हुए कहा कि “यार क्या बताएं, आज राज ठाकरे जम कर नहीं बिक रहा होता तो भोपाल की खबर को रेलगाड़ी बना देते।” दोष एक बार फिर मीडिया का नहीं था, दोष था उन सुरक्षाकर्मियों का जिन्होंने ऐसे दिन पीटा जब खबरों का बाजार गर्म था। अरे, पीटना ही था तो ऐसे दिन पीटते जब बाजार मंदा रहता है, मसलन शनिवार या रविवार के दिन। बात एक बार फिर वहीं आकर ठहर जाती है कि भोपाल के पुलिस वालों को टीआरपी का गणित आखिर कब समझ में आएगा? किसी भी दिन मुंह उठाकर मारने निकल पड़ते हैं। अरे, जब हर चीज में लाभ-हानि का आंकलन होता है तो फिर पीटने के पहले क्यों नहीं।
भाई देखो, ये आरोप तो सरासर गलत है कि पिटाई के लाइव फुटेज पसंद नहीं किये जाते। मध्य प्रदेश के सागर जिले के सांसद वीरेंद्र सिंह को जब बीना में आरपीएफ ने पीटा, तो 10 सेकेंड के शाट आधे घंटे तक सभी चैनलों में चले। उस दिन खबरों का बाजार मंदा था तो इस खबर में दम था लेकिन जब पत्रकार पिटे उस दिन उनका दोहरा दुर्भाग्य था। एक तो पिट गए, दूसरा नेशनल खबरों का प्रवाह इतना था कि उनकी पिटाई उसमे बह गई।
भोपाल के प्रिंट के पत्रकार अब इलेक्ट्रॉनिक वालों से सवाल कर रहे हैं कि जब तुम अपने पिटने की खबर अपने चैनल में नहीं चलवा सकते तो तुम्हारा वजूद आखिर कितना है? बेचारे इलेक्ट्रॉनिक वाले, थोथी सफाई दे रहे हैं- “यार वो तो 7 बजे के बुलेटिन में चलना ही था लेकिन मैं अस्पताल में व्यस्त रह गया तो विजुवल ही फीड नहीं करा पाया”। बेचारे, दम ठोक कर ये भी नहीं कह सकते की हमारा वजूद वाकई में कुछ नहीं है। दुसरा पहलू है अमर सिंह से बच कर रहने का। दिल्ली में जामिया नगर में एक दिन पहले अमर सिंह के सामने पत्रकार पिटे थे। उसके अगले दिन भोपाल में जब पिटे तो एयरपोर्ट पर अमर सिंह भी मौजूद थे।
बचपन में कभी हर कहानी के बाद टीचर पूछती कि, “इस कहानी से क्या शिक्षा मिली?”
उसी तर्ज पर यदि आज पूछा जाए तो शायद भोपाल के पत्रकार कहेंगे कि अव्वल तो अमर सिंह को कवर करने ही मत जाओ और यदि जाओ तो हेलमेट पहन कर। खुदा खैर करे।
पत्रकार जान्हवी दुबे से संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है।