मंदी की चपेट में मीडिया इंडस्ट्री। मीडिया बूम का जो गुब्बारा पिछले कई वर्षों से फल-फूल रहा था और व्यवहार में भी दिख रहा था, उसमें सुई चुभ चुकी है। सबकी हवा खराब है। मीडिया इंडस्ट्री सकते में है। अपनी-अपनी जमीन बचाने के लिए सभी धुरंधर हाथ-पांव मार रहे हैं। सबसे ज्यादा खराब हालत टीवी न्यूज इंडस्ट्री की है। प्रिंट वाले थोड़े कम दिक्कत में हैं। बीते बृहस्पतिवार तक अगर आपके पास हजार करोड़ रुपये होते और ये बिकने के लिए तैयार होते तो आप एनडीटीवी और टीवी टुडे, दोनों मीडिया हाउसों को आराम से खरीद सकते थे। शुक्रवार को एक बार फिर बाजार के मुंह के बल गिरने के बाद इन दोनों मीडिया हाउसों को खरीदने के लिए हजार करोड़ से भी कम रुपये चाहिए। एनडीटीवी का मार्केट कैपटलाइजेशन 638 करोड़ रुपये और टीवी टुडे का 353 करोड़ रुपये पर आ चुका है।
लिस्टेड मीडिया कंपनियों की स्टाक वैल्यू 52 हफ्ते पहले जो थी, वो इस बृहस्पतिवार को मामूली रह गई है। टीवी 18 का स्टाक वैल्यू 52 हफ्ते पहले 599 रुपये था, वो मात्र 92 रुपये पर आ चुका है। एनडीटीवी 512 रुपये से 101 रुपये पहुंच गया है। टीवी टुडे 199 से 61 रुपये आ गिरा है। जी न्यूज 92 रुपये से 32 रुपये पर पहुंच गया है। एचटी मीडिया 266 से 82 पर है। जागरण प्रकाशन 169 से 58 रुपये पर आ खड़ा हुआ है।
यह मंदी की ही मार है कि जितने भी बड़े टीवी न्यूज चैनल हैं, सभी खर्चों में कटौती करने के लिए तरह-तरह के उपाय अपनाने में लगे हैं। आज तक, स्टार न्यूज जैसे बड़े चैनल भी अब अपने दूर के आफिसों को बंद करने, रिपोर्टरों को हटाने और कम बजट में प्रोग्राम तैयार करने जैसी कवायद में पड़ चुके हैं। इससे जाहिर है कि जब बड़े खिलाड़ी संकट से संभलने के लिए हाथ पांव मार रहे हैं तो बिना आधार की कंपनियों के जरिए खोले गए टीवी न्यूज चैनलों की क्या स्थिति होगी। खासकर रीयल स्टेट की जो कंपनियां मीडिया क्षेत्र में आई हैं, उनके बुरे दिन शुरू होने की आशंका व्यक्त की जा रही है। इन मीडिया माध्यमों की कमाई विज्ञापनों के जरिए होती है लेकिन विज्ञापन देने वाली कंपनियां भी मंदी की मार से उबरने के लिए विज्ञापनों में कटौती करने को मजबूर हो गई हैं। ऐसे में जो टीवी न्यूज चैनल लाभ में नहीं हैं, वो बहुत दिन तक घाटे में नहीं चल सकते और उन्हें कुछ न कुछ रास्ता निकालने के लिए बड़े लेकिन मुश्किल फैसलों में जाना पड़ सकता है।
अखबारों की स्थिति टीवी के मुकाबले थोड़ी बेहतर है। अखबारों ने शेयर के जरिए कंपनी बढ़ाने की बजाय कमाई के अपने परंपरागत आधार को पकड़े रखा है, जिसके चलते मंदी की मार से बहुत ज्यादा असर नहीं पड़ेगा। हालांकि उनके सालाना मुनाफे में कमी आ सकती है, बावजूद इसके वे इस मंदी दौर से निकल सकने की क्षमता रखते हैं।
इस दौर में कंपनियों की माली हालत खराब होने की सजा कर्मचारियों को छंटनी के रूप में दी जा सकती है। कई मीडिया हाउसों ने ‘फालतू’ स्टाफ को चिन्हित करने और हटाने की कवायद शुरू कर दी है।