वाकई मीडिया बदल रहा है। समाचार चैनल जब बदल रहे हैं तो भला अखबार भी क्यों पीछे रहें। बदलाव बाकी चीजों में तो ठीक है लेकिन जब ये भाषा में दिखे तो थोड़ा अजीब लगने लगता है। और कुछ कष्ट भी होता है। इनमे सबसे आगे शायद चंडीगढ़ से छपने वाले अख़बार हैं। इस शहर से छपने वाले और शायद सबसे ज्यादा बिकने वाले एक अखबार ने एक समाचार छापा, उसका शीर्षक है- “नवजोत यु विल ऑलवेज रिमेन इन अवर मेमोरीज“। शीर्षक ही नहीं, समाचार भी लगभग अंग्रेजी में ही है।
ये जानकर आपको भी थोड़ा-सा अजीब लगेगा कि इस खूबसूरत शहर से छपने वाले कई हिन्दी अखबार अब हिन्दी की बजाय हिंगलिश पत्रकारिता करने लगे हैं। मैं दावे से कह सकता हूं कि इसे भले ही ये कहकर किया जाए की यही पाठकों की पसंद है लेकिन इससे नुकसान तो भाषा का ही हो रहा है। मेरा एक सवाल है। क्या हिन्दी अखबार पढने वाले पाठकों को अंग्रेजी का ज्ञान होना जरूरी है? क्या हिन्दी अखबारों को ये भूल जाना चाहिए कि उनका अखबार हिन्दी पाठकों के लिए है? यदि ऐसा नहीं है तो फिर ये क्यों हो रहा है? कई अखबार अपने समाचारों में इतनी ज्यादा अंग्रेजी प्रयोग करते हैं कि उसे समझने के लिए आम हिन्दी भाषी पाठक को तो डिक्शनरी उठानी पड़ जाए। लेकिन फिर भी सब चल रहा है। शीर्षक हो या समाचार, सभी जगह धड़ल्ले से अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग हो रहा है।
भाषा के इसी अखबारी हाल को लेकर चंडीगढ़ के प्रेस क्लब में पिछले दिनों एक गोष्ठी भी हुई थी। इसमे प्रोफेसर बृज किशोर कुठियाला और दैनिक ट्रिब्यून के पूर्व संपादक राधेश्याम शर्मा भी मौजूद थे। दोनों ही विद्वानों ने इस बात पर आपत्ति उठाई थी कि हिन्दी अखबार अंग्रेजियत का दामन पकड़ कर अपनी प्रसार संख्या में इजाफा करते रहें और लोग चुपचाप देखते रहें। उनका कहना था कि सबसे बुरा हाल इन अखबारों के स्थानीय संस्करणों का है। ये अखबार अपने मुख्य संस्करण में तो हिन्दी शब्दों का ही प्रयोग करते हैं लेकिन स्थानीय संस्करण में हिंगलिश का प्रयोग होता है, जो ग़लत है।
इस गोष्ठी में अखबार के संपादक महोदय ने कहा कि ये सब पाठकों की पसंद को ध्यान में रखकर किया जा रहा है और इसमे गलत कुछ भी नही है। उनका कहना था कि इसे पाठकों का प्यार मिलता है तभी अखबार इतना बिकता है। अगर पाठक भाषा के इस रूप को पसंद नही करेंगे तो अखबार बिकना ही बंद हो जाएगा। उनके मुताबिक अखबार आम बोल-चाल की भाषा इस्तेमाल कर रहा है। इस बात पर राधेश्याम जी की टिप्पणी थी कि आम बोल-चाल में तो हम अक्सर अपशब्दों का भी प्रयोग कर लेते हैं, तो क्या आने वाले दिनों में ये भी हमें समाचार पत्रों में देखने को मिलेंगे?
समझा जा सकता है कि समाचार चैनलों को अक्सर दोष देने वाले अख़बार भी कम नही हैं। अगर चैनल पत्रकारिता के मापदंडों पर पूरी तरह खरे नहीं उतर रहे हैं तो कई अख़बार भी इसी जमात में शामिल हैं। आखिर हिन्दी में शब्दों का इतना अकाल भी नहीं है कि उसके स्थान पर अंग्रेजी के शब्द प्रयोग हो। लेकिन मुझे नहीं लगता कि ये सब बंद या फिर कम हो जाएगा। बाजार जिस तरह से लगातार मीडिया पर हावी हो रहा है ऐसे में इन सब बातों की उम्मीद करना बेमानी सा लगता है।