रोमांटिक फ्रीडम बनाम बाबूगिरी वाली कर्टसी
अमर उजाला को लेकर रामेश्वर पांडे लगातार प्रयोगवादी दृष्टिकोण अपनाये हुये थे। उनका यही प्रयोगवादी नजरिया अखबार को पंजाब में पूरी तरह से स्थापित नहीं होने दे रहा था। मेरे सामने ही अखबार का पूरा ले-आउट दो बार बदला गया। अपने नये प्रयोग के तहत उन्होंने पंजाब के लिए एक अलग से पूलआउट निकालना शुरू किया और इसके साथ ही मुख्य अखबार के पन्नों में कटौती कर दी।
इससे मुख्य अखबार का वजन कम हो गया और यह अखबार की सामान्य धारणा के विपरीत दिखने लगा। इसी बीच अमर उजाला के मालिक अतुल माहेश्वरी ने जालंधर का दौरा किया। जिस दिन अतुल माहेश्वरी जालंधर आने वाले थे, उसके दो दिन पहले से ही अखबार में विभिन्न स्तर पर कड़ी सावधानी बरती जा रही थी। सभी डेस्क इंचार्ज के दिमाग में यह बात बैठा दी गई थी कि अखबार में किसी तरह की गलती न जाये। सभी लोग पूरी तरह से चौकस थे। अतुल माहेश्वरी का जालंधर का दो दिनी कार्यक्रम था। अखबार के सभी साथियों के बीच गेट-टुगेदर के लिए जालंधर शहर में एक होटल बुक किया गया। इस कार्यक्रम में भाग लेने के लिए लगभग सभी जिलों के प्रभारी पूरी तैयारी से आये।
स्वादिष्ट भोजन के साथ-साथ अतुल माहेश्वरी के साथ उनका हाय-हेलो होता रहा। अतुल माहेश्वरी एक सोफे पर डटे हुये थे और जिले भर के प्रभारियों की टोली उन्हें चारो ओर से घेरे थी। विभिन्न लोग विभिन्न तरीके से अखबार के प्रति अपने दृष्टिकोण से अतुल माहेश्वरी को अवगत करा रहे थे। बीच-बीच में अपनी रुचि के मुताबिक वह कुछ पूछते भी थे। गेट-टुगेदर का यह सिलसिला शाम चार बजे तक चलता रहा।
लेबोरेटरी में काम करने वाले सभी लोग शाम तक अपनी-अपनी कुर्सियों पर आकर डट गये थे। शाम को सात बजे के करीब अतुल माहेश्वरी संपादकीय विभाग में दाखिल हुये। उनके दाखिल होते ही सभी लोग अपनी कुर्सी से धड़धड़ा करके उठे। कुछ लोग जो साइड में बैठे हुये थे, और उन्हें इस लेबोरेटरी में दाखिल होते हुये नहीं देखा था, दूसरों के उठने की धड़धड़ाहट की आवाज से प्रभावित होकर वे भी उठ खड़े हुये।
इस बाबूगिरी वाली कर्टसी में मेरा कभी यकीन नहीं था। कई बार, कई जगहों पर कर्टसी का पालन नहीं करने के कारण मुझे टोका जा चुका था। एक बार तो खुद रामेश्वर पांडे ने ही इस बात को लेकर मेरी क्लास लगा दी थी। किसी बात को लेकर मैं उनके केबिन में उनके साथ बातचीत में मगन था। उसी समय शिवकुमार विवेक उनके केबिन में दाखिल हुये। मैं अपनी जगह पर आराम से बैठा रहा। रामेश्वर पांडे ने तत्काल इस बात को नोटिस किया था और मुझे टोकते हुये कहा था, ‘विवेक जी तुमसे सीनियर हैं। जब वह इस केबिन में दाखिल हुये तो तुम उठे क्यों नहीं? क्या तुम्हें नहीं लगता कि तुम्हें अपने सीनियर का सम्मान करना चाहिए।’
उस दिन उनकी बातों का बिना कोई जवाब दिये हुये मैं उठ खड़ा हुआ था। वैसे भी, उनके सामने मैं कुछ बोलने से परहेज करता था। अखबार में कर्टसी को लेकर मेरा मानना था कि यह स्वतंत्र लोगों की दुनिया है। इसे कर्टसी के नियम से चलाना इसकी आत्मा का गला घोटने जैसा है। स्वतंत्र तरीके से सोचने वाले लोगों को कर्टसी के नियमों में बांधना स्वतंत्र चिंतन की धारा को कुंद करना है। मेरी नजर में अभिवादन और मिलने-जुलने का मानवीय व्यवहार सतत विकास की प्रक्रिया का नतीजा था। मैं तो ‘ पिता और पुत्र’ के मुख्य किरदार डाक्टरी की पढ़ाई करने वाले निहिलिस्ट बाजूखोव से प्रभावित था, जो पूरी तरह से परंपराओं के खिलाफ बह रहा था। पत्रकारिता में मैं रोमांटिक फ्रीडम की अवधारणा से अचेतन रूप से संचालित हो रहा था। इसके साथ ही जॉन स्टुअर्ट मिल की स्वतंत्रता की अवधारणा को भी मैंने पूरी तरह से आत्मसात कर लिया था।
जॉन स्टुअर्ट मिल के ये शब्द कि आप वहीं तक स्वतंत्र हैं, जहां तक आपकी स्वतंत्रता किसी अन्य की स्वतंत्रता में बाधा न पहुंचाये, मेरे दिमाग में धंसे हुये थे। मेरी पूरी कोशिश होती थी कि अपनी स्वतंत्रता को बरकरार रखते हुये दूसरों की स्वतंत्रता का सम्मान करूं। शिव कुमार विवेक के रामेश्वर पांडे की केबिन में दाखिल होने से रामेश्वर पांडे के सामने की कुर्सी पर बैठा हुया मैं कहीं भी शिव कुमार विवेक की स्वतंत्रता में बाधक नहीं था। हां, इसे पत्रकारिता की स्थापित कर्टसी का उल्लंघन माना जा सकता है।
मेरा स्पष्ट मानना है कि कर्टसी हिन्दी पत्रकारिता में बाबूगिरी की संस्कृति का पोषण करता रहा है और करता रहेगा। बाबूगिरी कर्टसी को दफनाये बिना हिन्दी पत्रकारिता का उत्थान असंभव है। यह कर्टसी हिन्दी पत्रकारिता में काम करने वाले उम्दा दिमाग की स्वतंत्र उड़ान का पर कतरने के लिए इस्तेमाल किया जाता था, किया जाता है और किया जाता रहेगा। हिन्दी पत्रकारिता में काम करने वाले अयोग्य लोगों के लिए यह कवच का काम करता है।
उस दिन अतुल माहेश्वरी के आने के बाद जब सभी लोग धड़धड़ा कर खड़े हो गये थे और मैं अपनी कुर्सी पर डटा रहा। अपने कंप्यूटर सक्रीन पर पड़ी खबर से खेलता रहा। कुछ देर तक रामेश्वर पांडे की केबिन में बैठने के बाद जब अतुल माहेश्वरी बाहर निकले तो एक बार धड़धड़ाहट की आवाज के साथ उस लेबोरेटरी में काम करने वाले लोग खड़े हो गये। थोड़ी देर बाद जब वह फिर लौटे तो लोग फिर धड़धड़ाहट के साथ सामूहिक रूप से खड़े हो गये। लोगों की इस सामूहिक हरकत से अतुल माहेश्वरी खुद परेशान-से हो गये। इस बार उनका धैर्य जवाब दे गया। उन्होंने कहा, ‘अरे, मैं किसी स्कूल का हेडमास्टर थोड़े ही हूं कि जब मैं आऊंगा तो आप लोग खड़े हो जाओगे। आप लोग आराम से बैठ कर अपना काम कीजिये और मेरी ओर ध्यान मत दीजिये।’
रात में लेबोरेटरी में काम करने वाले लोगों को सूचना दी गई कि अतुल माहेश्वरी अगले दिन संपादकीय विभाग के सभी लोगों से टेबुल टॉक करेंगे। इस सूचना से डेस्क इन्चार्जों के चेहरे पर कुछ तनाव आ गया। इस टेबुल टॉक के विषय में देर रात तक लोगों के बीच तरह-तरह की बातें होती रही। लोग इस बात का अनुमान लगाने की कोशिश कर रहे थे कि इस टेबुल टॉक की प्रकृति क्या होगी, और इस दौरान किस तरह के मुद्दों पर चर्चा होगी। लोगों के मन में इस टेबुल टॉक को लेकर एक हिचक-सी थी।
अगले दिन बारी-बारी से लोग अतुल माहेश्वरी से रू-ब-रू हो रहे थे। अतुल माहेश्वरी ऊपर की लाइब्रेरी में सुबह से ही जमे हुये थे। वे सिगरेट का धुआं उड़ाते हुये लेबोरेटरी में काम करने वाले लोगों के दिमाग से पंजाब को देखने और समझने की कोशिश कर रहे थे। अपने डेस्क की जब बारी आई तो मैं धमेंद्र प्रताप सिंह के साथ ऊपर की लाइब्रेरी में दाखिल हुआ। अन्य कई डेस्कों के लोग पहले से ही वहां जमे थे। एक खाली कुर्सी पकड़कर मैं उनकी बातें सुनने लगा। बातों के दौरान अतुल माहेश्वरी ने पूछा, ‘पंजाब के लोग क्या पढ़ना चाहते हैं? हमारे अखबार में क्या-क्या कमी है और इसमें क्या सुधार होना चाहिए?’ एक हल्की-सी चुप्पी के बाद सभी लोग अपने-अपने तरीके से इस सवाल का जवाब दे रहे थे, और मैं लगातार उनकी अंगुलियों में फंसे पर जलते सिगरेट की ओर देखे जा रहा था। मेरे मुंह से निकला, आप कौन-सी सिगरेट पीते हैं?
वहां पर मौजूद सभी लोगों की नजर मेरे चेहरे पर टिक गई। इस अप्रत्याशित प्रश्न से अतुल माहेश्वरी भी थोड़ी देर के लिए असहज हो गये, लेकिन फिर अपने आप को सहज करते हुये उन्होंने ब्रांड का नाम तो बताया लेकिन यह पूछा लिया कि अखबार का सिगरेट से क्या संबंध?
मैंने कहा, ‘जिस तरह से सिगरेट नशा है, उसी तरह से अखबार भी नशा है। और लोग अपने नशे को जल्दी बदलते नहीं है, तब तक जब तक कि उन्हें उससे भी मजबूत नशा न मिले। पंजाब में अमर उजाला अभी अपने स्वरूप को लेकर ही कनफ्यूज है।’ इसके पहले कि मैं कुछ और बोलता, उन्होंने मुझे चुप कराते हुये कहा, ‘आपकी बात मैं समझ गया, किसी को और कुछ कहना है।’ इसके बाद वे वहां मौजूद लोगों से इधर-उधर की बातें करते रहे, और मैं बड़ी सहजता से वहां पर चल रही बातों को सुनता रहा।
वहां पर चल रही बातों को सुनकर मुझे पूरा यकीन हो गया था कि ये लोग अभी तक यह तय नहीं कर पाये थे कि पंजाब में अमर उजाला का स्वरूप और उसकी दिशा क्या हो। पंजाब की मानसिकता हिन्दी मानसिकता से बिल्कुल अलग थी। वहां के लोग अखबार के पन्नों पर या तो धर्म से संबंधित आलेखों में रुचि लेते थे, या फिर नंगी-पुंगी तस्वीरों में। छोटी-छोटी खबरें पढ़ना उन्हें अच्छा लगता था। पंजाब केसरी धर्म और सेक्स के कॉकटेल को बखूबी बेच रहा था जबकि अमर उजाला ने हिंदी पट्टी में अपने आजमाये हुये फार्मूले के साथ पंजाब का रुख किया और अब हिन्दी में आजमाये हुये फार्मूले पर उसे खुद यकीन नहीं हो रहा था। अमर उजाला के साथ दिशाहीनता की स्थिति थी। यह दिशाहीनता अमर उजाला के प्रयोगों में दिखाई दे रही थी।
उस लेबोरेटरी में काम करने वाले लोगों का न्यूज एडिटर के रूप में शिव कुमार विवेक में भी विश्वास नहीं था। अधिकतर लोग शिव कुमार विवेक को एक कमजोर कड़ी मानते थे और इस कमजोर कड़ी की व्याख्या विभिन्न तरीकों से करते थे। एक समूह दबी जुबान में कहता था कि रामेश्वर पांडे नहीं चाहते थे कि न्यूज एडिटर के तौर पर जालंधर में कोई सुलझा हुआ तेवर वाला पत्रकार बैठे। तेवर वाला न्यूज एडिटर उनके लिए कभी भी खतरा हो सकता था। जालंधर में शिव कुमार विवेक का चयन न्यूज एडिटर के तौर पर किस प्रक्रिया के तहत किया गया था, यह तो मुझे नहीं पता, लेकिन वहां काम करने वाले लोगों पर शिव कुमार विवेक की पकड़ बहुत ही ढीली थी।
अधिकार के डंडे से किसी टीम को हांकना एक बात है, और टीम के अंदर स्वत: जूझने के लिए ऊर्जा भरना दूसरी बात। शिव कुमार विवेक दोनों लिहाज से कमजोर कड़ी थे। मेरे द्वारा बनाई गई हेडलाइनों को लेकर उन्हें बार-बार रामेश्वर पांडे की केबिन की ओर भागना पड़ता था, क्योंकि मैं अपनी हेडिंग पर अक्सर अड़ा रहता था। इसका सीधा-सा कारण था, अपनी हेडिंग के बारे में फीडबैक फील्ड में काम करने वाले लोगों मुझे फोन के माध्यम से सीधे देते थे। पठानकोट के रिपोटिंग इंचार्ज जितेंद्र सिंह अपनी खबर पर बदली हुई हेडिंग को लेकर बहुत खुश होते थे और अक्सर कहा करते थे कि अन्य अखबारों की तुलना में पठानकोट की खबरों की हेडिंग बहुत रोचक बन रही है।
पंजाब में चुनाव के दौरान अवधेश विशेष रिपोर्टर के तौर पर खबरों का संकलन कर रहे थे। एक बार उन्होंने पठानकोट से एक खबर लिखी। एडिटिंग के लिए वह खबर मेरे पास आ गई। पूरी खबर को एडिट करने के बाद मैंने उसकी हेडलाइन बदल दी। धर्मेन्द्र प्रताप सिंह ने कहा कि यह एक बड़े रिपोर्टर की खबर है, हेडलाइन मत बदलिये। ये लोग बवाल कर देते हैं। मैने कहा, जो होगा देखा जाएगा, इसे ऐसे ही जाने दें। जिरह किये बिना उन्होंने उस हेडलाइन को वैसे ही जाने दिया। पठानकोट से लौटने के बाद अवधेश मेरे पास आये और अपनी खबर पर शानदार हेडलाइन लगाने के लिए उन्होंने मुझे बधाई दी।
एक न्यूज एडिटर के तौर पर शिव कुमार विवेक में आक्रामकता का अभाव था, जबकि उस वक्त पंजाब में एक नये अखबार के लिए आक्रामक न्यूज एडिटर की सख्त जरूरत थी। इसके अलावा अपने ढीले व्यवहार से वह रामेश्वर पांडे के प्रयोगों की भी अनजाने में हवा निकाल रहे थे। तीन-चार दिन के बाद पंजाबी क्लास से उनकी हमेशा के लिए अनुपस्थिति कहीं न कहीं एक अच्छे प्रयोग को कुंद करने वाली बात थी। उनकी अनुपस्थिति ने उस प्रयोगशाला में काम करने वाले बहुत सारे लोगों को पंजाबी क्लास से अनुपस्थित रहने के लिए प्रेरित किया था। न्यूज एडिटर के तौर पर शिव कुमार विवेक सिस्टम में फिट होने वाले लोगों में से थे, न कि सिस्टम को आक्रामक तरीके से लीड करने वालों में। उस वक्त अमर उजाला, जालंधर की लेबोरटरी में पूरे सिस्टम को आक्रामक तरीके से लीड करने वाले न्यूज एडिटर की जरूरत थी। शिव कुमार विवेक में अखबार को लेकर स्पष्ट विजन का अभाव था, और इस तरह से केमेस्ट्री की भाषा में वह पूरी तरह से एचटूओ (जल) की तरह थे। रामेश्वर पांडे के विजन को आगे ले जाने की योग्यता का भी उनके अंदर अभाव था।
पत्रकार आलोक नंदन इन दिनों मुंबई में हिंदी सिनेमा के लिए सक्रिय हैं। वे मीडिया के दिनों के अपने अनुभव को भड़ास4मीडिया के पाठकों के लिए पेश कर रहे हैं। पीछे के पार्ट को पढ़ने के लिए (1), (2), (3), (4), (5), (6), (7), (8), (9), (10), (11), (12), (13), (14), (15), (16), (17), (18) पर क्लिक कर सकते हैं। 20वां पार्ट अगले हफ्ते पढ़ें।
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