घंटों बैठा रहा भगत सिंह की समाधि पर
सीमा पार पाकिस्तानी सैनिकों के लपेटे में आने के बाद कुछ दिन तक मेरी गतिविधियां जालंधर शहर तक सिमटी रहीं। अपनी छुट्टी मैं जालंधर के किसी छोटे-मोटे शराबखाने में धड़ल्ले से पीते हुए बिताता था। जालंधर के लगभग सभी छोटे-बड़े शराबखानों से मैं परिचित हो गया था। सहज होने के बाद एक बार फिर भारत-पाक सीमाओं को नजदीक से देखने की इच्छा तीव्र होने लगी। यह काम इस बार व्यवस्थित तरीके से करना चाहता था।
एड विभाग के दयाल से मेरी अच्छी-खासी दोस्ती हो गई थी। उसके पास एक मोटरसाइकिल हुआ करती थी। एक दिन उसे अपने साथ लेकर मैं सुबह में ही बाघा बॉर्डर की ओर निकल पड़ा। दिन में 12 बजे के करीब हम लोग अमृतसर में दाखिल हुए। मेरी इच्छा सबसे पहले जालियांवाला बाग को देखने की हो रही थी। कालेज के दिनों में जालियांवाला बाग की घटना के विषय में बहुत कुछ पढ़ा था, और उस बाग में चली गोलियों को लेकर मेरे दिमाग में बहुत उथल-पुथल मच चुकी थी। जिस तरह से जनरल डायर ने जालियांवाला बाग में कत्लेआम किया था, उसे लेकर इतिहास के पन्नों में बहुत कुछ दर्ज था, लेकिन जब भी जनरल डायर के नजरिए से इस घटना को देखता तो निःसंदेह मैं अपने आप को जनरल डायर के प्रशंसक के तौर पर पाता था।
भारत पर ब्रिटेन की पकड़ बनाए रखने के लिए जनरल डायर ने वही किया था, जिसकी उम्मीद एक ब्रिटिश जनरल से की जा सकती थी। जनरल डायर उस समय ब्रिटेन की मानसिकता का सच्चा प्रतिनिधित्व कर रहा था और उसे वहां के नागरिक सम्मानों से नवाजा जा रहा था। अहिंसा के नाम पर ज्ञापन देने वाले मोहनदास करमचंद गांधी और उनकी टोली जनरल डायर का कुछ भी नहीं बिगाड़ सकी थी। वह इंग्लैंड की सोसायटी में बड़े मजे ले-लेकर वहां के लोगों को बताता फिरता था कि कैसे उसने जालियांवाला बाग में मौजूद लोगों पर कहर बरपाया था और इंडियन्स (इंडियन शब्द का इस्तेमाल अंग्रेज लोग गाली के तौर पर करते थे) को अनुकरणीय सबक सिखाया था। भारत में अहिंसा की नीति के सहारे आजादी लेने की बात करने वाले उस समय के नेताओं से चिढ़ होती थी। उधम सिंह ने जिस अंदाज में जनरल डायर की ह्त्या ब्रिटेन जाकर की थी, आजादी के लिए वही रास्ता मुझे सही लगता था।
बहरहाल जो हो, इतिहास के पन्नों में दफन जालियांवाला की घटना मुझे हमेशा आकर्षित करती थी। उस दिन दयाल के साथ जालियांवाला बाग में प्रवेश करते ही उस बाग की वर्तमान स्थिति को देखकर मुझे एक झटका-सा लगा। बाग के प्रवेश द्वार के करीब बना हुआ छोटा सा म्यूजियम बुरी तरह से टूटा-फूटा पड़ा था। उसमें टंगी तस्वीरों के फ्रेम चटके हुये थे, बरसात के दिनों में पानी टपकने के कारण तस्वीरों के रंग भी मटमैले हो गए थे। शहीदों की यादें बरसाती पानी से धुलती जा रही थी। बाग के कोने में स्थित उस कुआं के ऊपर एक लोहे की जाली डाल दी गई थी, जिसमें जनरल डायर के सैनिकों से बचने के लिए लोगों ने ताबड़तोड़ छलांग लगाई थी। वह कुआं भी जर्जर स्थिति में था। मैदान के चारो ओर ऊंचे-ऊंचे मकान बने थे और लोग अपने घरों का कूड़ा और कचरा उसी मैदान में डालते थे। बाग के बीच में एक छोटे से सड़क का निर्माण कार्य चल रहा था।
पत्रकारिता की अपनी सहज प्रवृत्ति के कारण जब मैंने लोगों से इस बाग के खस्ता हालत के विषय में पूछताछ करने लगा तो एक घिनौनी कहानी सामने आई। बाग के देखभाल की जिम्मेदारी एक ट्रस्ट की थी और उस ट्रस्ट के लोग बाग के देखभाल के नाम पर अच्छी खासी रकम डकार रहे थे। दो घंटे तक मशक्कत करने के बावजूद मेरी ट्रस्ट के सेक्रेटरी से मुलाकात नहीं हो सकी, जबकि ट्रस्ट का कार्यालय और सेक्रेटरी का मकान बाग के ठीक बगल में था। बाग के संबंध में अधिक से अधिक जानकारी लेकर मैं वहां से निकला और स्वर्ण मंदिर में दाखिल हुआ।
स्वर्ण मंदिर के अंदर टंगी हुई तस्वीरें देखकर मुझे घनघोर निराशा हुई। उन तस्वीरों में सिखों के संघर्ष को चित्रित किया गया था, लेकिन मेरी नजर में वे तस्वीरें सिखों पर किए जा रहे इस्लामिक हमलों की एक लंबी और दुखदायी गाथा थी। ऑपरेशन ब्लू स्टार के दौरान की गई सैनिक कार्रवाई के विषय में अखबारों और पत्र-पत्रिकाओं में बहुत कुछ पढ़ रखा था। स्वर्ण मंदिर में घूमने के दौरान वे सारी रिपोर्टें मेरी आंखों के सामने घूमती रहीं, और मैं अपने तरीके से कार्रवाई की पूरी स्थिति को अपने दिमाग में जिंदा करते हुए समझने की कोशिश करता रहा। र्स्वण मंदिर से बाहर निकलने के बाद एक खंजर और कई कड़े खरीदे और फिर दयाल के कहने पर अमृतसर में स्थिति अमर उजाला के दफ्तर में पहुंचा।
हम लोगों के वहां पहुंचने के पहले ही दफ्तर के लोगों को पता चल चुका था कि जालंधर से अमर उजाला के कुछ लोग जालियांवाला बाग में घूम रहे हैं। मेरी इच्छा जालियांवाला बाग और स्वर्ण मंदिर पर एक तगड़ी विश्लेषणात्मक खबर लिखने की थी, लेकिन समय अभाव के कारण मैं वहां के कंप्यूटर पर नहीं बैठ सका और बाघा बोर्डर की ओर निकल पड़ा।
सूरज ढलने के पहले हम लोगों की मोटरसाइकिल बाघा के करीब पहुंच चुकी थी। सीमा से करीब दो किलोमीटर पहले हमें रोक दिया गया। मेरे कमर में खंजर था। मैंने वहां पर खड़े सैनिक की ओर देखते हुए कहा कि मेरे पास खंजर है। उसने खंजर की ओर देखा और आगे जाने की अनुमति दे दी। लोगों का हुजूम बाघा बार्डर की ओर बढ़ता जा रहा था। दयाल के साथ मैं भी उस हुजूम में शामिल हो गया। सीमा के करीब एक बड़े से पेवेलियन में लोग बैठ रहे थे। दूसरी ओर भी कुछ इसी तरह की व्यवस्था थी। अपने-अपने पेवेलियन में दोनो देशों का झंडा लहरा रहा था। पेवेलियन में मेरी नजर अपने बगल में बैठी दो विदेशी लड़कियों पर पड़ी। दोनों के साथ बातचीत का सिलसिला कब शुरू हुआ, मुझे पता नहीं चला।
वे दोनों देशों के बीच व्याप्त संबंधों को समझना चाह रही थी और यह जानना चाहती थीं कि यहां पर होने वाले इस कार्यक्रम का औचित्य क्या है। वे दोनों इजरायल की रहने वाली थीं। उनकी जिज्ञासाओं को शांत करते-करते उनके विषय में बहुत कुछ जान गया। दोनों अमृतसर के किसी होटल में ठहरी थीं। वापसी के दौरान दयाल अपनी मोटर साइकिल उनकी गाड़ी के पीछे दौड़ाता रहा। अमृतसर में उनसे विदा लेने के बाद हम लोग जालंधर की ओर तेजी से लौटने लगे।
अगले दिन जालियांवाला बाग की दुर्दशा पर मैंने एक तगड़ी स्टोरी लिखकर शिव कुमार विवेक को दे दी। दूसरे दिन जब मैंने अखबार पलटा तो दंग रह गया। उस अखबार में मेरी स्टोरी तो कहीं नहीं थी, लेकिन अमृतसर से जालियांवाला बाग पर एक दूसरे रिपोर्टर की स्टोरी चिपकी हुई थी। उस रिपोर्ट में बताया गया था कि जालियांवाला में निर्माण का काम जोरशोर से चल रहा है और ट्रस्ट पूरी मुस्तैदी से इस निर्माण कार्य को अंजाम दे रहा है। उस स्टोरी के साथ निर्माण कार्य से संबंधित एक तस्वीर भी छपी थी। उस दिन मुझे पूरा यकीन हो गया था कि शिव कुमार विवेक में धारदार पत्रकारिता के साहस का अभाव है और इसी का अनुसरण जिले में बैठे लोग भी कर रहे हैं। बाद में विभिन्न जिलों के पन्नों पर मैं गहरी नजर रखने लगा। अमर उजाला में धारदार रिपोर्ट का सर्वथा अभाव था। जिलों से स्थानीय स्तर पर आक्रामक रिपोर्ट नहीं आ रहे थे। स्थानीय स्तर पर जिलों में काम करने वाले लोग विभिन्न संगठनों, निकायों, समाज सेवकों, नेताओं आदि को संतुष्ट करते हुये अपने आप को व्यवस्था में फिट करते हुये कदम बढ़ा रहे थे। एक तरह से यह पूरी तरह से पीआर पत्रकारिता थी।
जालंधर में प्रवासी मजदूरों के बच्चें वहां के अमीरों के लिए मनोरंजन के बेहतर साधन थे। सड़क पर जब किसी अमीर आदमी की बारात निकलती थी तो उस बारात में नाचने वाले लोग दोनों से रुपये उड़ाते थे। इन रुपयों को लूटने के लिए प्रवासी मजदूरों के बच्चों में होड़ लगी रहती थी। रुपये लूटने के दौरान बारात में नाचने वाले लोग अपने लातों और जूतों का इस्तेमाल फ्री-स्टाइल में इन बच्चों पर करते थे। शराब के नशे में धुत इन लोगों का उद्देश्य इन बच्चों के नाक और मुंह से अधिक से अधिक खून निकालना होता था। रुपये लूटने की लालच में ये बच्चे बार-बार शराब के नशे में धुत इन वहशियों की चपेट में आते थे। सड़क पर चलते हुए इस तरह के दृश्य मैं कई बार देख चुका था। इसके अतिरिक्त खुद बड़े उम्र के प्रवासी मजदूर भी इन बच्चों का यौन शोषण करते रहते थे। इस पर मैं खबर लिखना चाहता था। इसकी चर्चा मैंने शिव कुमार विवेक से की तो उन्होंने इस मामले में कदम बढ़ाने से साफ इनकार कर दिया। शिव कुमार विवेक ठंडे दिमाग के शालीन न्यूज एडिटर थे, जो हमेशा रक्षात्मक मुद्रा में रहते थे। खबरों के ताप को झेलने की क्षमता उनके पास नहीं थी। स्थानीय स्तर पर जिलों की सभी टीमें उनके इसी ठंडेपन की शिकार थीं।
भारत-पाक सीमाओं को करीब से जानने के लिए एक बार नवीन पांडे और सिटी रिपोर्टर अमित श्रीवास्तव के साथ फिरोजपुर का पूरा चक्कर लगाया। जालंधर में आने के पहले अमित फिरोजपुर में काम कर चुके थे। उनके साथ भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की समाधि पर भी गया। पाकिस्तान से लगती भारत की सीमाओं के करीब इन तीनों क्रांतिकारियों की समाधि बनी हुई थी। काफी देर तक इनकी समाधि के पास बैठकर भगत सिंह के जीवन को सिलसिलेवार ढंग से याद करने की कोशिश करता रहा। मुझे ऐसा लगता था कि जैसे मैं भगत सिंह को बहुत करीब से जानता हूं। उस युवक के हर क्रांतिकारी गतिविधि में मैं साथ था। फांसी के ठीक पहले लेनिन की कहानी पढ़ने वाले भगत सिंह ने सांडर्स की ह्त्या करके वही गलती की थी, जो लेनिन के बड़े भाई अलेक्जेंडर ने रूस में जार की हत्या के षडयंत्र में शामिल होकर की थी। बाद में भगत सिंह को अहसास हो गया था कि उत्साह में की गई सांडर्स की हत्या उनके जीवन की सबसे बड़ी भूल थी। मामाला साम्राज्यवाद को उखाड़ने का था, न कि व्यक्ति की ह्त्या करने का। लेनिन इस रहस्य को समझ गया था, वह कहा करता था कि मैं वह गलती कभी नहीं करूंगा जो मेरे भाई ने की। सांडर्स की हत्या के वक्त भगत सिंह उम्र के उस पड़ाव पर थे, जहां पर जोश तो होता है, लेकिन सही दिशा नहीं। भगत सिंह की समाधि पर मैं मन ही मन उनसे घंटों बाते करता रहा। उस वक्त मुझे स्पष्ट रूप से लग रहा था कि भगत सिंह अपनी समाधि से उठकर मेरे सामने बैठे हैं।
अमित एक मजे रिपोर्टर थे और कंठ तक शराब पीते थे। फिरोजपुर में अमर उजाला के आफिस के ऊपर की छत पर बैठकर उनके साथ रात भर मैं शराब पीता रहा। फिरोजपुर के उनके अनुभवों को सुनता रहा। अपने कार्यकाल के दौरान उन्होंने फिरोजपुर में स्थानीय लोगों के बीच अच्छी पैठ बना ली थी। अमित ने बताया कि फिरोजपुर में हर नए व्यक्ति पर कड़ी नजर रखी जाती है। यह पूरा इलाका पाकिस्तानी जासूसों से भरा हुआ है। इस इलाके में सेना हमेशा सर्तक रहती है। हिंदी पट्टी के लोगों की संख्या यहां तेजी से बढ़ रही थी। स्थानीय स्तर पर सभी अखबारों के रिपोर्टर एक साथ मिलकर काम करते थे। मुख्य कार्यालय से डांट-फटकार न हो, इससे बचने के लिए सभी रिपोर्टर आपस में खबरों का अदान-प्रदान करते थे। स्थानीय स्तर पर रुटीन की सामान्य खबरों को कवर करने की यही संस्कृति थी। अमर उजाला के सभी रिपोर्टर इसी संस्कृति में घुल-मिल गए थे, जबकि प्रारंभ से ही इन्हें एक नए लीक पर चलने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए था। न्यूज एडिटर के तौर पर शिव कुमार विवेक में नई लकीर खींचने की काबिलियत नहीं थी। स्थापित परंपराओं का पालन करते हुए रक्षात्मक मुद्रा में उन्हें आगे बढ़ना आता था। वह इसी तर्ज पर बढ़ रहे थे।
फीचर की कमान एसके सिंह के हाथ में थी। अमरीक सिंह उनकी टीम में शामिल थे। अमरीक सिंह फीचर के लिए स्थानीय पंजाबी अखबारों से मसाला उठाते थे और हिंदी में पलट मारते थे। हालांकि बातें उनकी बड़ी-बड़ी होती थी। उनकी जुबान पर बड़े-बड़े कवियों और लेखकों के नाम होते थे, लेकिन उनका यह ज्ञान अखबार के पन्नों पर दिखाई नहीं देता था। इस तरह से फीचर के मामले में अखबार की मौलिकता समाप्त हो गई थी। फीचर पन्नों के लिए वहां के स्थानीय मुद्दों पर आधारित फील्ड के आलेख चाहिए थे, जिसे अमर उजाला नहीं दे पा रहा था।
उस लेबोरेटरी में काम करने वाले अन्य लोगों की तरह एसके सिंह को भी पंजाबी क्लास जबरदस्ती थोपी हुई लगती थी। हालांकि पंजाबी को लेकर कमोवेश सबकी मानसिकता इसी तरह की थी। लेकिन फ्रंट पर होने के कारण शिव कुमार विवेक और एसके सिंह की खास जिम्मेदारी बनती थी कि रामेश्वर पांडे के उठाये कदमों को मजबूती से स्थापित करें। पंजाबी क्लास की समाप्ति के बाद सभी लोग फिर से पुरानी पटरी पर लौट आए। रामेश्वर पांडे के इस प्रयोग का सबसे अधिक लाभ पंजाबी के शिक्षक रमन को मिला। वह न सिर्फ हिंदी में खबरों को संपादित करने में माहिर हो गए, बल्कि बेहतरीन पेज बनाने में धर्मेंद्र प्रताप सिंह को भी मात देने लगे। धमेंद्र प्रताप सिंह को इस बात का अहसास था कि वह बेहतर पेज बनाते हैं, लेकिन पेज बनाने में रमन की काबिलियत को वो भी स्वीकार करने लगे। रमन उस लेबोरेटरी में रामेश्वर पांडे के प्रयोगवादी नजरिए की उपज थे।
भले ही अखबार सफलता का परचम नहीं लहरा पा रहा था, लेकिन रामेश्वर पांडे का प्रयोग रमन जैसे पत्रकारों का निर्माण करके पत्रकारिता के कारंवा को आगे बढ़ा रहा था।
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