जालंधर से रामेश्वर पांडे की विधिवत विदाई के बाद अकु श्रीवास्तव पूरे रंग में आ गए थे। कई दिनों से मैं साप्ताहिक छुट्टी के लिए एसके सिंह से कह रहा था, लेकिन उनके कान पर जूं तक नहीं रेंग रही थी। अकु श्रीवास्तव से सामना होते ही मैंने उनसे अपनी छुट्टी की बात की। उन्होंने तत्काल मेरी छुट्टी मंजूर कर दी। एसके सिंह को शायद यह बात बुरी लगी। उन्होंने जनरल डेस्क के सभी लोगों के सामने मुझ पर व्यंग्य किया।
वे बोले- ‘भाई, अखबार में सबसे ज्यादा यही काम कर रहे हैं। इन्हें महीनों से छुट्टी नहीं मिली है।’ अकु श्रीवास्तव हर किसी के काम का अपने तरीके से मूल्यांकन करने में लगे थे। किसी बात को लेकर उन्होंने एसके सिंह को झड़प लगा दी और दूसरे दिन से उन्होंने ऑफिस आना बंद कर दिया। धीरे-धीरे अखबार में यह खबर फैल गई कि एसके सिंह जालंधर से जा चुके हैं।
इष्टदेव पांडे, रवींद्र ओझा, अंजुम जी, योगेन्द्र झा आदि बहुत सारे लोग पहले ही जालंधर, अमर उजाला को बाय-बाय बोलकर नोएडा स्थित दैनिक जागरण के ऑफिस में पहुंच चुके थे। अन्य कई लोग भी उस लेबोरेटरी से निकलने के लिए हाथ-पांव मार रहे थे। निशिकांत ठाकुर का नंबर अधिकतर लोगों के पास पहुंच चुका था और अपने-अपने तरीके से वे लोग निशिकांत ठाकुर से संपर्क साधने में लगे थे। भगदड़ की मानसिकता वाले उस माहौल में अकु श्रीवास्तव नए सिरे से अमर उजाला को स्थापित करने की कोशिश कर रहे थे।
अकु श्रीवास्तव ने डेस्क पर बैठे सभी लोगों से जिलों से आ रही खबरों पर रिपोर्ट देने का हुक्म जारी किया। मैं धर्मेंद्र प्रताप सिंह के साथ होशियारपुर डेस्क पर जमा था। मैंने अपनी रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से लिखा कि जिलों से रिपोर्ट के नाम पर हमारे पास कूड़े-कचरे आ रहे हैं। अपनी रिपोर्ट के साथ कुछ खबरों को भी मैंने लगा दिया था।
मेरी रिपोर्ट को देखते ही अकु श्रीवास्तव ने मुझे तत्काल बुलाया और भड़कते हुए बोले, ‘यह आपकी रिपोर्ट देने की शैली है। कूड़ा-कचरा क्या होता है?’
मैंने शांत स्वर में कहा, ‘कूड़ा-कचरा, कूड़ा-कचरा होता है। जिसकी कोई उपयोगिता नहीं होती।’
‘आप इस शब्द को हटाइए और दूसरे शब्द डालिए और रिपोर्ट लिखने में संयम बरतिए’- उन्होंने सख्त हिदायत देते हुए कहा।
बहुत सारे लोगों के निकल जाने से वहां पर काम करने वाले लोगों के ऊपर बोझ बढ़ गया था। उनके चेहरों पर थकान की लकीर स्पष्टरूप से दिखाई देती थी।
मार्क्स का यह कथन मुझे बार-बार याद आता था कि मशीनी क्रांति ने निःसंदेह काम करने की गति में इजाफा किया है, लेकिन आदमी के काम करने के घंटों में कोई कमी नहीं आई है। लोग अनवरत काम से मानसिक तौर पर थक रहे थे।
अकु श्रीवास्तव थके लोगों से अपने तरीके से बेहतर काम लेने की कोशिश कर रहे थे। इसके साथ ही विभन्न जिलों का दौरा करते हुए वे जमीनी स्तर पर वहां के माहौल को जांचने और परखने की कोशिश कर रहे थे। उस लेबोरेटरी में प्रयोगवादी जज्बे के साथ काम करने वाले लोग धीरे-धीरे वेतनभोगी कर्मचारी के रूप में तब्दील हो रहे थे।
संपादीय विभाग की मीटिंग में हर किसी को हड़काने की अकु श्रीवास्तव की आदत थी। उनकी इस आदत से कई लोग अंदर ही अंदर खार खाये थे और विकल्प की तलाश कर रहे थे। नवीन पांडे ने सहारा के लिए अप्लाई कर रखा था और बहुत जल्द ही उन्हें सहारा के नोएडा कार्यालय से इंटरव्यू के लिए कॉल आ भी गया। दिल्ली घूमने की इच्छा मेरी भी हो रही थी, मैं भी नवीन पांडे के साथ हो लिया।
नवीन पांडे के साथ मैं भी सहारा के कार्यालय पहुंच गया। उस दिन बहुत सारे लोग वहां पर इंटरव्यू देने आये थे। मेरे मना करने के बावजूद नवीन पांडे ने मेरा नाम भी इंटरव्यू देने वालों की सूची में डाल दिया। मैंने नवीन पांडे को समझाने की बहुत कोशिश की कि जहां पर संबोधन के लिए सहारा प्रणाम जैसे शब्द का इस्तेमाल किया जाता है, वहां पर मैं काम कर ही नहीं सकता। पत्रकारिता में इस तरह के तामझाम मेरे गले नहीं उतरते थे। मेरी नजर में सहारा प्रणाम करने की बाध्यता पत्रकारिता की धार को कुंठित करने वाली थी। आम दर्शकों लिए स्क्रीन पर सहारा प्रमाम का अभिवादन हास्यास्पद लगता था। यह एक तरफा अभिवादन था, जिसे सुनकर चिढ़ होती थी। सहारा प्रणाम शब्द धन के बल पर पत्रकारिता के ऊपर थोपी गई दासता थी। पत्रकारों का एक वर्ग मोटी तनख्वाह के लिए बड़ी सहजता से इस दासता को स्वीकारे था।
सहारा की झोली में विभिन्न क्षेत्रों के बहुत सारे लोकप्रिय चेहरे थे, इसके बावजूद आम जनता के बीच में उसकी पैठ नहीं थी। आम लोगों का स्पष्ट रूप से मानना था कि सहारा के ऊपर समाजवादी तबके के नेताओं का प्रभाव है, खबरों के मामले में इनकी निरपेक्षता पर लोग संदेह करते थे, और कहीं हद तक उनका संदेह करना जायज भी था।
नवीन पांडे के तुरंत बाद इंटरव्यू के लिए मुझे कॉल कर लिया गया। चार-पांच लोग एक मेज के ईद-गिर्द बैठे थे। उन लोगों ने मेरी ओर आश्चर्य से देखते हुये पूछा, ‘आप लिखित परीक्षा में बैठे थे?’
जब मैंने ना में जवाब दिया तो उनमें से एक ने फिर पूछा, ‘यहां पर आप किसी मोटे सोर्स से आये हैं। जितने भी लोग बाहर बैठे हैं सबको लिखित परीक्षा के बाद दूसरे राउंड में बुलाया गया है और आप बिना परीक्षा दिए इंटरव्यू दे रहे हैं।’
उनकी पूरी कोशिश इस बात को लेकर थी कि सहारा के अंदर मेरी पहुंच कहां तक है। पत्रकारिता, उसके स्वरूप, उसकी अदा, उसके अंदाज पर एक भी प्रश्न उन्होंने मुझसे नहीं पूछा और मैं मन ही मन उनकी बुद्धि और समझ पर हंसता रहा। काफी देर तक मैंने कन्फ्यूजन को बनाये रखा। जाने के पहले मैंने उन्हें बेबाक शब्दों में बताया कि मैं यहां नौकरी के लिए नहीं, बल्कि अपने एक दोस्त के साथ आया था। उसी ने मुझे यहां आप लोगों के बीच ढकेल दिया। मेरे इतना बताने के बाद उनके चेहरे पर झुंझलाहट स्पष्ट रूप से दौड़ रही थी।
राम-सलाम करके जब मैं कमरे से बाहर निकला तो नवीन पांडे ने पूछा, ‘कैसा रहा इंटरव्यू?’
मैंने हंसते हुए कहा, ‘बस, यहां एक तगड़ी कुर्सी मुझे मिलने ही वाली है।’
एक-दो दिन दिल्ली में हवाखोरी करने के बाद हम दोनों फिर जालंधर वापस आ गए।
जालंधर में मानसिक रूप से हारी हुई टीम के साथ अकु श्रीवास्तव अखबार को संभालने के लिए जी-जान लगाए थे। मेरी जिंदगी सहजता से चल रही थी। इसी बीच नवीन पांडे को दुबारा सहारा से कॉल आया और वह ज्वाइन करने के लिए फिर दिल्ली की ओर निकल पड़े। दिल्ली की चाहत में एक बार फिर मैं उनके साथ हो लिया। निशिकांत ठाकुर का नंबर मेरे पास था। दिल्ली के रेलवे स्टेशन पर उतरते ही मैंने उनका नंबर मिला दिया। उसी दिन उन्होंने मुझे अपने ऑफिस में बुला लिया। नवीन पांडे सहारा की ओर निकल गए और मैं नोएडा स्थित दैनिक जागरण के दफ्तर में रिसेप्शन पर बैठा रहा।
निशिकांत ठाकुर किसी के साथ मीटिंग में व्यस्त थे। रात को करीब आठ बजे मैं उनके चेंबर की ओर जाने लगा तो वहां पर योगेंद्र झा से मेरी मुलाकात हो गई। मेरे आने का कारण जानकर योगेंद्र झा मुझे लेकर निशिकांत ठाकुर के चेंबर की ओर जाने लगे। निशिकांत ठाकुर से मुलाकात गैलरी में हो गई। वे तीन चार लोगों के साथ निकल रहे थे। योगेंन्द्र झा ने मेरा परिचय निशिकांत ठाकुर से करवाया और जब मैंने उन्हें बताया कि उन्होंने मुझे मिलने का समय दिन में ही दिया था तो हंसते हुए बोले, अभी तो मैं जा रहा हूं। तुम कल दिन में आ जाओ।
दूसरे दिन करीब ग्यारह बजे के करीब मैं फिर दैनिक जागरण के ऑफिस में पहुंच गया और पहले ही राउंड में निशिकांत ठाकुर से मुलाकात हो गई। अपने चैंबर में बिठाकर अखबार से संबंधित उन्होंने कई बातें पूछी और फिर कहा, ‘मैं तुम्हारी मुलाकात संजय गुप्ता से करवा देता हूं। एक बार उनसे मिल लो।’
थोड़ी देर के बाद मैं निशिकांत ठाकुर के साथ संजय गुप्ता के चैंबर में उनके सामने बैठा हुआ था। मेरी ओर देखते हुये संजय गुप्ता ने पूछा, ‘आपकी रुची किन विषयों में है?’
‘अंतरराष्ट्रीय राजनीति, इकोनॉमिक और साहित्य’, मैंने सहजता से जवाब दिया।
संजय गुप्ता ने अगला सवाल दागते हुए पूछा, ‘बुश को इराक पर हमला करना चाहिए?’
‘अंतरराष्ट्रीय राजनीति में चाहिए शब्द पुराना पड़ गया है। क्या होना चाहिए और क्या नहीं होना चाहिए, यह मायने नहीं रखता। मैं इतना जरूर कह सकता हूं कि बुश इराक पर आक्रमण जरूर करेंगे,’ इराक पर अमेरिकी आक्रमण को लेकर मैं पूरी तरह से आश्वस्त था… ‘और इस आक्रमण के साथ विश्व जनमत बुश के खिलाफ होगा, लेकिन इससे बुश की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ेगा।’
‘आपने दाढ़ी क्यों बढ़ा रखी है। जो व्यक्ति अपना खयाल नहीं रख सकता, वह भला काम कैसे करेगा?’ उनका अगला सवाल था।
‘दाढ़ी का काम से कोई संबंध नहीं है’- अपनी झब्बूदार दाढ़ी में हाथ फेरते हुए मैंने कहा।
‘रेलवे घाटे में क्यों जा रहा है?’
‘गलत प्रबंधन के कारण’- मैंने जवाब दिया।
‘जी नहीं, रेलवे ओवर स्टाफिंग का शिकार है। एक बहुत बड़ी राशि तो कर्मचारियों के वेतन में ही चली जाती है, जो निठल्ले बैठे रहते हैं। आप पंजाब में काम करते हैं? वहां के अखबार पढ़ते हैं?’
‘पढ़ता भी हूं और समझता भी हूं।’
‘दैनिक जागरण पढ़ते हैं?’
‘अमर उजाला वाले दैनिक जागरण को पढ़ते हैं और दैनिक जागरण वाले अमर उजाला को पढ़ते हैं। जिले के प्रत्येक संस्करण की वहां पर हर रोज व्याख्या की जाती है।’
‘आप पंजाब में काम करना चाहते हैं?’
‘जी नहीं, दिल्ली में।’
‘दिल्ली में हमें लोगों की जरूरत नहीं है, आपको यहां नौकरी नहीं मिलेगी।’
‘आपकी मर्जी, पंजाब में मेरे लिए जागरण की तुलना में अमर उजाला ही बेहतर है।’
‘आप जा सकते हैं।’
‘धन्यवाद’- इतना कहकर मैं जैसे ही अपनी कुर्सी से उठा, निशिकांत ठाकुर ने मेरी ओर देखते हुये कहा, `मेरे चैंबर में जाकर बैठो, मैं अभी आता हूं।’
करीब पंद्रह मिनट तक मैं निशिकांत ठाकुर के चैंबर में बैठकर इधर-उधर के अखबार पलटता रहा। वह मुस्कराते हुए चैंबर में दाखिल हुए और बोले, `कहां काम करना पसंद करोगे?’
‘जनरल डेस्क पर।’
‘जाओ, ज्वाइन कर लो। आज से काम शुरू कर दो।’
‘लेकिन मेरे पास तो अभी दिल्ली में रहने का कोई ठिकाना भी नहीं है, और मेरा सारा सामान जालंधर में पड़ा है।’
‘आज ज्वाइन कर लो, काम कल से करना। पहले दिल्ली में रहने की व्यवस्था कर लो, १०-१५ दिन बाद छुट्टी लेकर सामान जालंधर से ले आना।’
उप-संपादक के पद पर मेरी नियुक्ति हो गई और जैसे ही संपादकीय विभाग में दाखिल हुआ वहां पहले से मौजूद अमर उजाला के पूर्व साथियों ने मेरा स्वागत किया। इधर संपादकीय विभाग में दाखिल होते ही जागरण डेस्क पर मेरे नाम से जालंधर से एक फोन भी आया। अमर उजाला, जालंधर से संतोष पांडे ने मुझे तत्काल बधाई दी। जिस तेजी के साथ यह खबर जालंधर में अमर उजाला के दफ्तर पहुंची थी, उसे जानकर थोड़ी देर के लिए मैं चौंक गया था। अखबारों के अंदर काम करने वाले लोगों के तार एक-दूसरे से बहुत गहरे जुड़े होते हैं और अंदर की खबरें तेजी से घूमती हैं। लोग एक दूसरे पर गहरी नजर रखते हैं, जबकि काम करने के दौरान देखने में सब कुछ सामान्य और सहज सा दिखता है।
नवीन पांडे से जब मुलाकात हुई तो उनके चेहरे पर भी खुशी दमक रही थी। सहारा में उन्हें ज्वाइन करने के लिए कह दिया गया और वह अपने कागज दुरुस्त करने में लगे थे। अपने एक दोस्त के यहां साथ-साथ रात बिताने के बाद हम दोनों दिल्ली में एक साथ सेटल करने की योजना बनाने लगे। मकान तलाश करने में दिल्ली का मेरा पहले का अनुभव काम आया। लक्ष्मीनगर का इलाका खासतौर से स्ट्रगलरों के लिए जाना जाता था। थोड़ा बहुत हाथ पैर मारने के बाद जल्दी ही रहने के लिए एक ठीक-ठाक ठिकाना मिल गया।
इसके तुरंत बाद मैं जालंधर लौटा और अपने किताबों और गर्म कपड़ों को समेटकर नवीन पांडे के साथ एक जीप में वापस दिल्ली के लिए रवाना हो गया।
पत्रकार आलोक नंदन इन दिनों मुंबई में हिंदी सिनेमा के लिए सक्रिय हैं। वे मीडिया के अपने अनुभव को भड़ास4मीडिया के पाठकों के लिए पेश कर रहे हैं। पीछे के पार्ट को पढ़ने के लिए (1), (2), (3), (4), (5), (6), (7), (8), (9), (10), (11), (12), (13), (14), (15), (16), (17), (18), (19), (20), (21) पर क्लिक कर सकते हैं। 23वां पार्ट अगले हफ्ते पढ़ें।
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