प्रभाष जोशी का जन्मदिन : एक और यादगार उल्लास : दिल्ली के गांधी शांति प्रतिष्ठान में बुधवार 15 जुलाई की एक शाम। जन्मदिन के जलसे जैसी नहीं, सुधी-बुधी मीडिया जनों के लिए सादी-सहज तथा एक और यादगार-सी। मीडिया, राजनीति, साहित्य हर क्षेत्र के कई एक नामचीन आपस में मिलते-जुलते, बोलते-बतियाते, हंसी-ठहाके लगाते हुए।…और इन सबके बीच पत्रकारिता के शलाका पुरुष प्रभाष जोशी। स्वभाव में वही ठसक, वही ठाट। सबके चेहरे पर उनके 73वें जन्मदिन का उल्लास। साहित्य, राजनीति और पत्रकारिता के कई जाने माने चेहरे इस मौके पर मौजूद थे। इनमें प्रमुख हैं-
डॉ. नामवर सिंह, विश्वनाथ त्रिपाठी, डा. एसएन सुब्बाराव, अजीत भट्टाचार्य, सुरेंद्र मोहन, रामबहादुर राय, अजय उपाध्याय, गोविंदाचार्य, कलराज मिश्र, जवाहर लाल कौल, कुमार संजॉय सिंह, देवेंद्र नाथ द्विवेदी, प्रोफेसर आनंद कुमार, अशोक माहेश्वरी, जगदीश उपासने, अनुपम मिश्र, हेमंत शर्मा, प्रदीप सिंह, ओम थानवी, कुमार आनंद, नीरजा चौधरी, आनंद प्रधान, अरिहन जैन, श्यामलाल यादव, मनोज मिश्र, मनोहर नायक, रागिनी नायक, अरुण पांडेय, जयप्रकाश त्रिपाठी, यशवंत सिंह, संजय तिवारी, अवधेश कुमार, रुप चौधरी आदि।
पंद्रह जुलाई के दिन यहां ऐसा पिछले कई सालों से हो रहा है, बिना किसी तड़क-भड़क, देख-दिखावे के।
मंच से नीचे दीर्घा के सामने केक कटता है, सपत्नीक प्रभाष जी के हाथों। परिजनों-स्वजनों के बीच चंद मिनट खुशी की तालियां बजती हैं और सबका मुंह मीठा होने लगता है। इस बीच चहक-महक थोड़ी थमने के साथ ही मंच पर आते हैं देश के प्रसिद्ध गांधीवादी डा. एस.एन. सुब्बाराव, अपने चिरपरिचित अंदाज में, इस आह्वान के साथ कि आइए हम-सब एक साथ गाएं-गूंजे। उनका बुलावा आते ही नीचे से भड़ास4मीडिया के यशवंत सिंह, अशोक कुमार सहित कई लोग उपर मंच पर पहुंचते हैं, सुब्बाराव के करीब, देशभक्ति के गीत में स्वर देने। समूह गान शुरू होता है और नीचे बैठे लोग भी सुर-में-सुर मिलाते हैं समवेत….’हमारा भारत देश महान, हमारा प्यारा हिंदुस्तान..’
गीत खत्म होने के बाद रामबहादुर राय लोगों से आग्रह करते हैं भोजन, जलपान के लिए लान में पहुंचने का। एक साथ सबके कदम उधर ही बढ़ जाते हैं। उमस और गर्मी के बावजूद प्रभाष जी अपनी उसी सम्मोहक विनम्रता और किंचित मुस्कान के साथ लोगों से मिलते-जुलते रहते हैं। आना-जाना लगा रहता है उनके प्रियजनों का। इस तरह गुजर जाता है एक और जन्मदिन। उत्सव जैसा नहीं, नितांत अभिन्नता और आत्मीय सहजता के साथ। अपने पीछे अपनापे की एक और यादगार सुगंध बिखेरते हुए। उनके अपनापे की, जिन्होंने हिंदी पत्रकारिता में नए युग का सूत्रपात किया, मीडिया को शब्दों, सूचनाओं के नए-नए आयाम दिए। जैसे कि मीडिया की उस अंगड़ाई के बाद आज के दिनों में ज्यादातर को लगता है, फिर भी क्यों ‘कागद कोरे’ रह गए? खेल, राजनीति, साहित्य, गांव-शहर की ताजा सहकारिता के लिए आगे हिंदी मीडिया को कोई और ‘प्रभाष जोशी’ मिलेगा या नहीं?