संतोष भारतीय का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं. हिंदी पत्रकारिता को नई दिशा देने वाले कुछ चुनिंदा पत्रकारों में शुमार किए जाते हैं. संतोष भारतीय कुछ वर्षों से खबरों में कम थे, लेकिन उनकी सक्रियता और लेखन कम नहीं हुआ. इस गैप का फायदा उठाकर उन्होंने सामयिक मसलों पर चिंतन किया और लिखा. संतोष भारतीय के अग्रलेखों (संपादकीय पृष्ट पर लिखे गए मुख्य लेख) का संग्रह ‘कमजोर दुनिया का रास्ता’ शिल्पायन ने प्रकाशित किया है. इसमें उनके लगभग 50 आलेखों का संग्रह है.
सभी आलेख समसायिक मसलों पर हैं, जिनमें से अधिकतर का तेवर राजनीतिक है. कई लेख पुराने हैं और कुछ नए भी. लेखक ने अपने प्राक्कथन के माध्यम से ही इस धुंध को साफ करने का प्रयास किया है कि अग्रलेख आखिर हैं क्या? संतोष भारतीय ने अग्रलेख के तेवर, कलेवर और कथ्य को लेकर विस्तार से चर्चा की है. पाठकों को यह भी बताया है कि इन लेखों को किस कसौटी पर कसना चाहिए, औऱ इसमे किस चीज की तलाश करनी चाहिए. किताब मे संग्रहित पहले लेख को ही शीर्षक बनाया गया है. इसमें लेखक ने भारत-अमेरिकी करार पर लिखा है. उम्मीद के मुताबिक, भारतीय यहां भी बेलीक चले हैं- लीक छोड़ तीनों चलें, शायर, सिंह, सपूत। पूरी दुनिया में या कम-अज-कम भारत की मुख्यधारा की मीडिया में इस करार की जय-जयकार हो रही हो, तब संतोष भारतीय इसके विरोध में खड़े दिखते हैं. वह भी बिलावजह नहीं. जिस तार्किकता और कन्विक्शन से वह इस करार पर छाए घालमेल का विरोध करते दिखते हैं, उससे तस्वीर पूरी तरह साफ नजर आती है. पाठक को महसूस होता है कि इस करार के बारे में किस तरह से उसे अंधेरे में रखा गया और सच्चाई किस तरह इसके ठीक उलट है.
किताब के कुछ लेख दो मुख्य राजनीतिक दलों कांग्रेस और भाजपा की अंदरूनी राजनीति और उठापटक की तस्वीर दिखाते हैं. साथ ही इसमे कुछ कद्दावर राजनेताओं की भी समीक्षा की गई है. इन लेखों को पढ़कर पता चलता है कि लेखक किस तरह से साफ और पैनी नजर रखते हैं. वह बिना कोई पार्टी बने ही मसलों पर अपनी समझ को साफ कर देते हैं. पाठक को भी पता चलता है कि कई मसले जो मीडिया में सतही तौर पर आए हैं, उनकी असली कहानी आखिर क्या है. चार पूर्व प्रधानमंत्रियों की मुलाकात वाला लेख हो, या कल्याण सिंह के उत्तराधिकारी की कहानी, पाठकों को पूरी तस्वीर समझ आती है. आखिर किसी घटना का राजनीतिक निहितार्थ क्या होगा और देश व समाज पर इसका क्या असर पड़ेगा. लेख वही अच्छे माने जाते हैं, जहां लेखक की खुद की समझ बिल्कुल साफ हो. अगर लेखक खुद ही विचारों में उलझा रहेगा, वह भला पाठक को अपनी बात कैसे समझा सकता है. संतोष भारतीय का पत्रकार इस निकष पर बिल्कुल खरा उतरता है. वह बड़ी बेबाकी और बिना लाग-लपेट के अपनी बात कह देते हैं. यह बात दिल को छूती है.
किताब में लिखे गए कुछ लोग बोफोर्स मसले के अलग आयामों पर रोशनी डालते हैं. इन्हें पढ़ना उस समय के ऐतिहासिक दस्तावेजों को खंगालने जैसा है. कई दस्तावेजों से गुजरने की जगह पाठक को कम समय और मेहनत में काम की काफी जानकारी मिल जाती है. वह भी पूरी साफगोई से. संग्रह में कई पिछड़े और दलित नेताओं की राजनीति और सोच के अनछुए पहलुओं को दिखाया गया है.
कुल मिलाकर कहें, तो सामान्य पाठकों के लिए जहां यह किताब रोचक और पठनीय है, तो पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिए यह बहुत ही जरूरी है. जैसा कि लेखक ने खुद कहा भी है- कल को उन्हें भी अग्रलेख लिखने का मौका मिलेगा, तो यह जानकारी कारआमद हो सकती है. यह किताब उनके लिए खासी उपयोगी है, जो पत्रकारिता मे कुछ करने आते हैं, नौकरी करने नहीं.
अंत में, किताब में प्रकाशित एक कविता की कुछ लाइनें-
”एक तरफ दुनिया बदल रही है
दूसरी तरफ दुनिया कमजोर हो रही है।
कमजोर दुनिया शांति के लिए खतरा है
और
गुलामी के लिए दरवाजे खोल देती है।
देश को तय करना है कि उसे
कमजोर दुनिया में शामिल होना है
या
बदलती मजबूत दुनिया में।”