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…काम करने वाले खुद जानें या फिर खुदा जानें!

चैनलों को लेकर अगर केंद्र सरकार कोई ठोस गाइडलाइन तय करती है तो शायद टीवी मार्केट रेगुलराइज हो जाए। फिलहाल तो चैनल खोलना सबसे आसान काम लगता है। सिर्फ 4 – 5 करोड़ रुपये का जुगाड़ करिए। काम करने के लिए तमाम इंस्टीट्यूट्स के बच्चे मिल जाएंगे। उनसे कई महीनों तक फ्री में काम कराइए। रिपोर्टरों से विज्ञापन व चंदा इकट्ठा करने और केबल पर चलवाने के लिए कहिए। बस, दुकान चालू आहे।

<p align="justify">चैनलों को लेकर अगर केंद्र सरकार कोई ठोस गाइडलाइन तय करती है तो शायद टीवी मार्केट रेगुलराइज हो जाए। फिलहाल तो चैनल खोलना सबसे आसान काम लगता है। सिर्फ 4 - 5 करोड़ रुपये का जुगाड़ करिए। काम करने के लिए तमाम इंस्टीट्यूट्स के बच्चे मिल जाएंगे। उनसे कई महीनों तक फ्री में काम कराइए। रिपोर्टरों से विज्ञापन व चंदा इकट्ठा करने और केबल पर चलवाने के लिए कहिए। बस, दुकान चालू आहे।</p>

चैनलों को लेकर अगर केंद्र सरकार कोई ठोस गाइडलाइन तय करती है तो शायद टीवी मार्केट रेगुलराइज हो जाए। फिलहाल तो चैनल खोलना सबसे आसान काम लगता है। सिर्फ 4 – 5 करोड़ रुपये का जुगाड़ करिए। काम करने के लिए तमाम इंस्टीट्यूट्स के बच्चे मिल जाएंगे। उनसे कई महीनों तक फ्री में काम कराइए। रिपोर्टरों से विज्ञापन व चंदा इकट्ठा करने और केबल पर चलवाने के लिए कहिए। बस, दुकान चालू आहे।

धीरे-धीरे चैनल की टीम में कामन इंट्रेस्ट वाले इकट्ठे होते जाएंगे और चैनल की यात्रा लगातार जारी रहेगी। हालांकि चैनल चलाने के लिए डिस्ट्रीव्यूशन कास्ट की करोड़ों रुपये की पड़ जाती है लेकिन धंधेबाज चैनल छोटे से इलाके में ध्यान केंद्रित कर करोड़ों का वारा-न्यारा कर लेते हैं। अगर ये चैनल  सरवाइव कर गए तो ठीक वरना एक दिन चुपचाप तामझाम समेट लिया। रहा सवाल उसमें काम करने वालों का तो वह खुद जाने या खुदा जानें!

अनुपम त्रिवेदी

पत्रकार

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