प्रिय आवेश जी, आपने बी4एम पर जो टिप्पणी लिखी है, नरेंद्र मोहन के बारे में, उसमें एक सुधार कर लीजिए। एक नहीं बल्कि दो। एक तो यह कि जिन नरेंद्र मोहन जी को आप साहित्यकार या साहित्यकारों का अगुवा बता रहे हैं, वो दूसरे हैं, यह नहीं। वह सिर्फ साहित्य साधक हैं, प्रचार आदि से दूर सिर्फ लेखन से उनका मतलब है। दूसरे यह कि आज जो जागरण नंगा हुआ है, अपनी पैसा कमाने की नीति के लिए, खबरें बेचने के लिए तो यह सब इसी नरेंद्र मोहन का किया कराया है। इस सबकी शुरुआत इसी नरेंद्र मोहन ने की थी। जब कभी अखबारों में शोषण और पतन का इतिहास लिखा जाएगा, तब बड़े-बड़े अक्षरों में इसी नरेंद्र मोहन का नाम लिखा जाएगा जिसके नाम से प्रेरणा दिवस मनाया जा रहा है। यह एक तथ्य है। इसके तमाम पत्रकार साक्षी हैं।
सो, बहुत भावुक होने की जरूरत नहीं है। हां, इतना जरूर बता दूं कि अगर वह प्रतापी नरेंद्र मोहन जीवित होते तो इतने महीन थे वह कि इस सबसे ज्यादा खबरें बेचते और छीछालेदर भी नहीं होती।
रही बात अगुवा होने की तो नरेंद्र मोहन अगुवा थे लेकिन पत्रकारों को दलाल बनाने में। राजीव शुक्ला और विनोद शुक्ला जैसे लोग नरेंद्र मोहन ने ही पैदा किए। और जब पालेकर या बछावत जैसे अवार्ड अखबारों में लागू हुए तो उनको पलीता लगाने में भी नरेंद्र मोहन ही अगुवा बने। दूसरों से लेख लिखवा कर अपने नाम से छपवाने में अगुवा नरेंद्र मोहन ही हुए। और एक बार फिर दुहरा दूं कि अखबारों में खबरों को बेचने का काम सबसे पहले नरेंद्र मोहन ने ही शुरू किया। तब लोगों को पता नहीं चला क्योंकि वह शातिर भी थे और महीन भी। अखबारों में स्ट्रिंगर का कांसेप्ट भी उन्हीं का था, जिसका सहारा लेकर आज अखबार और चैनल लोगों का शोषण कर रहे हैं। पर माफ करें, उनका साहित्य से कोई सरोकार नहीं था। नरेंद्र मोहन नाम के वह दूसरे साहित्यकार हैं, जिनके नाम का वह अपने पक्ष में इस्तेमाल करते रहे हों तो मैं नहीं जानता। नरेंद्र मोहन जैसे लोग दाग हैं हिंदी पत्रकारिता के माथे पर, यह फिर से नोट कर लेने की जरूरत है। अगर समय रहते उनका या उनके जैसे लोगों का विरोध हो गया होता तो शायद यह दिन जो हम देख रहे हैं, ना देख रहे होते। पर लोगों की बेरोजगारी की विवशता और यातना का दोहन कर नरेंद्र मोहन जैसे लोग पत्रकारिता के बाप बन गए और अपनी तमाम अवैध संतानों को छोड़ गए हैं हिंदी पत्रकारिता की मां-बहन करने के लिए।
दरअसल नरेंद्र मोहन उनमें से थे जो 5000 लोगों को नौकरी से निकाल कर एक भंडारा खोल देते हैं भिखारियों के लिए ताकि उनके दिल पर बोझ ना रहे। पाप उतर जाए। देश के तमाम पूंजीपतियों ने यही किया है धर्मशालाएं खोलकर।
यह वही नरेंद्र मोहन हैं जिनके अखबार ने एक बार मायावती मंत्रिमंडल के एक मंत्री दीनानाथ भास्कर के इंटरव्यू के मार्फत आरोप लगाया कि मायावती की एक बेटी है और पति भी। तब काशीराम जीवित थे। उन्होंने लखनऊ के बेगम हजरत महल पा4क में एक रैली की और बसपा के कार्यकर्ताओं से आह्वान किया कि जागरण घेर लो। बसपा के हजारों कार्यकर्ताओं ने जागरण कार्यालय घेर लिया। घंटों जन-जीवन अस्त-व्यस्त रहा। तब जागरण कार्यालय हजरतगंज में होता था। बसपा कार्यकर्ता सड़कों पर लेट गए और माइक लेकर काशीराम हुंकार भर रहे थे कि नरेंद्र मोहन की बेटी लाओ। बेटी कम पर बात नहीं होगी। तिलक, तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार के ये दिन थे। ये दिन गांधी को शैतान की औलाद बताने के दिन थे। और काशीराम उसी बेशर्मी से नरेंद्र मोहन की बेटी मांग रहे थे, जिस बेशर्मी से बाकी नारे लग रहे थे। साथ में उनके मायावती भी नरेंद्र मोहन की बेटी मांग रहीं थीं। अजीब अफरा तफरी थी। लोग हतप्रभ थे कि राजनीति की यह कौन सी शैली है। खैर, प्रशासन घंटों बाद किसी तरह भीड़ का यह अवरोध हाथ-पैर जोड़कर हटा पाया। पर तुर्रा देखिए कि जब मायावती फिर दुबारा मुख्यमंत्री बनीं तब उनका पहला एक्सक्लूसिव इंटरव्यू कहीं और नहीं, नरेंद्र मोहन के जागरण अखबार में छपा।
यह क्या था? स्पष्ट है कि नरेंद्र मोहन का व्यवसाय था, कुछ और नहीं। ये पूंजीपति पैसे के लिए अपनी मां-बहन बेचने को हरदम तैयार रहते हैं और भाई लोग हैं, मैं भी हूं और अपने जोशी जी हैं कि इनके खबर बेचने पर हायतौबा मचाते फिर रहे हैं। अरे ये बेचते रहेंगे सब कुछ और पदमश्री पदमभूषण भी पाते रहेंगे। भारत रत्न भी हो जाएंगे और हम लोग ऐसे ही गाल बजाते रह जाएंगे। सारा तंत्र, सारा सिस्टम इन्हीं और इनके कुत्तों, भंड़ुओं और दलालों के हाथ है। अखबारों और चैनलों में संपादक की हैसियत अब बैलगाड़ी के नीचे चलने वाले उस पिल्ले की तरह हो गई है, जिस पिल्ले को अभी अभी गुमान है कि अगर वह बैलगाड़ी के नीचे से हट गया तो बैलगाड़ी धंस जाएगी। हाय-तौबा बस यहीं तक है। जाने कितने सूरमा आए और इन पूंजीपतियों ने उन्हें पिल्ला बनाकर छोड़ दिया है। हम आप क्या चीज हैं?
आपका
दयानंद पांडेय
लखनऊ
09335233424