निर्भय से बातचीत
हमारे आसपास कम से कम 50 लोग थे. कुछ हथियारबंद, कुछ हमारी तरह. पर फिजा में कुछ यूं सन्नाटा छाया था मानों सब श्मशान में हों, भीड़ के बीच होकर भी तन्हा. निर्भय के हाथ में पैग था. पास ही बैगपाइपर की बोतल थी. ‘कोई दिक्कत तो नहीं हुई’, चेहरे पर बगैर कोई भाव लाए, सीधे सपाट लहजे में निर्भय ने पूछा. हालांकि वो पूछ हमसे रहा था पर नजरें राम सिंह की तरफ थीं जो नजदीक गुलामों की तरह खड़ा था.
‘कोई खास नहीं’, मैंने कहा और माहौल को अनौपचारिक बनाने की गरज से पूछा- ‘और आप कैसे हैं’.
जवाब बड़ा ही अजीब आया, ‘अब यहां कोई ऐसी-वैसी तो है नहीं, देख लो तुम्हारे सामने हैं’ – जवाब के साथ एक ठहाका भी गूंजा.
माहौल बड़ा ही अजीब था. मैं जितना माहौल को अनौपचारिक बनाने की कोशिश करने में लगा था, वो उतना ही औपचारिक होता जा रहा था. ‘पियोगे’ -निर्भय ने पूछा. मैनें मना किया कि मैं नहीं पीता. मना करते वक्त मुझे इस बात का खास ख्याल था कि कहीं उसे मेरा मना करना बुरा न लग जाए. लेकिन मेरी आशंका गलत साबित हुई. उस वक्त वहां बैठे हुए मुझे बेहद डर लग रहा था पर मैं ये दिखाने की नाकाम कोशिश कर रहा था कि मैं सामान्य हूं. मगर सच्चाई यही थी कि मैं सामान्य नहीं था. इसकी गवाही खुद मेरा चेहरा दे रहा था. अगले ही पल मुझे इसका एहसास भी हो गया जब निर्भय ने कहा- ‘डरो मत यहां तुम्हें कोई खतरा नहीं है. यहां के राजा हम हैं. चंबल के शेर. निर्भय गुज्जर’.
साफ तौर पर निर्भय की इन बातों में आत्मविश्वास से ज्यादा उसका अभिमान ज्यादा झलक रहा था.
‘अरे नहीं, डरना कैसा…हम जानते हैं आप जुबान के पक्के हैं. जैसे आपने हमें यहां तक बुलाया है वैसे ही बाहर भी छुड़वाएंगे’. मैं ये कह रहा था लेकिन अब तक जो नजारा देखा था वो लगातार ये डर पैदा कर रहा था कि क्या सचमुच ये इतनी आसानी से हमें, गिरोह छोड़कर जाने देगा.
निर्भय के साथ ये हमारी पहली मुलाकात थी. अब तक न जाने कितने पुलिस अफसरों न जाने कितने खूंखार अपराधियों से हमारा पाला पड़ा था लेकिन पहली बार यहां, हमें शब्दों की कमी खल रही थी. कुछ भी कहने से पहले सोचना पड़ रहा था कि क्या कहें. कैसे बात शुरू करें. बात, जो कहीं कुछ ऐसा न हो कर जाए कि हम भी यहां बंधक बनाकर रखे गए ‘पकड़’ जैसे न हो जाए.
‘चंबल की जिंदगी जैसी फिल्मों में दिखाई जाती है वैसी तो बिल्कुल नहीं है. फिल्मों में तो चंबल और दस्यु जीवन को एकदम गलत अर्थों में दिखाया जाता है. यहां न तो घोड़े हैं और न ही ऐशोआराम का वैसा कोई साधन है जैसा फिल्मों में दिखाई देता है ‘ हमने बात शुरू की तो आगे खुद निर्भय ने बढ़ाई- ‘देख लो ..अब तुम लोग ही फिल्में बनाते हो…तुम्ही दिखाते हो..देख लो यहां कौन नाच गाना हो रहा है ….कौन से घोडे खड़े हैं यहां’. निर्भय के मुंह से निकले इन अल्फाज ने हमें बातचीत का एक जरिया दे दिया. हमें लग गया कि चंबल में रहने के बावजूद फिल्मों में उसकी खासी दिलचस्पी है. वैसे यहां हम जानबूझ कर डाकू की बजाय दस्यु शब्द का इस्तेमाल कर रहे थे क्योंकि दस्यु या बागी को इस इलाके में इज्जत की नजर से देखा जाता है जबकि डाकू शब्द से हर किसी को नफरत है.
‘नहीं-नहीं, हम तो पत्रकार हैं. फिल्में बनाना हमारा काम नहीं. वो तो दूसरे लोग होते हैं’- हमने कहा और बातचीत का सिलसिला चल निकला.
इस बीच एक बार फिर हल्की हल्की बारिश होने लगी थी बारिश की उन नन्ही बूंदों की तरह हम भी निर्भय के साथ बातचीत में मशगूल हो गए … बातों ही बातों में ये पता चल गया कि गाहे बगाहे निर्भय भी फिल्में देख लेता है…डाकुओं पर तो नहीं लेकिन हिंदी फिल्मों के सुपरस्टार अमिताभ बच्चन की कई फिल्में उसने देखी हैं… लेकिन जो फिल्म उसे सबसे ज्यादा पंसद है वो है …नटवरलाल…….दरअसल उसे जब भी फिल्म देखने का मन होता तो शहर से बाकायदा उस फिल्म की विडियो कैसेट मंगायी जाती ….फिर बैटरी के सहारे टीवी वीसीआर चलता और पूरा गैंग एक साथ बैठकर फिल्म देखता …इस बीच निर्भय से हमारी बातचीत जारी थी और हमारी नजरें गिरोह का मुआयना भी कर रही थीं …हम साफ तौर पर देख रहे थे कि पास ही दो बिस्तर और लग गए हैं …एक बिस्तर पर एक जवान लड़का दो बेहद खूबसूरत लड़कियों के साथ अठखेलियां कर रहा है तो दूसरा बिस्तर खाली पड़ा है। क्या ये खाली पड़ा बिस्तर हमारे लिए लगाया गया है …शायद अभी ये सवाल पूछना ठीक नहीं था। एक तरफ खाली पड़ी जगह में जहां खाना बन रहा था अब आंच बुझा दी गई थी ….खाना बन चुका था …मगर कोई भी खाना खा नहीं रहा था …शायद सबको निर्भय का इंतजार था कि कब वो शराब खत्म करे और कब खाना शुरू किया जाए। लेकिन कुछ तो शराब का सुरुर और कुछ हमारी बातों में दिलचस्पी….निर्भय की खाने में कोई दिलचस्पी फिलहाल तो दिखाई नहीं दे रही थी…. बातें फिल्मों की हो रही थी और बातों ही बातों में हमने निर्भय से पूछ लिया ..
‘आप तो फिल्मों के शौकीन हैं ….जैसे फिल्मों में दस्यु किसी लड़की से प्यार करते हैं या बदला लेते हैं वैसा ही कभी आपके साथ भी हुआ है क्या’
‘फिल्मों में होते हैं नकली दस्यु …हम हैं असली दस्यु सम्राट ….निर्भय वीर सिंह गुर्जर ….हम फिल्मों की तरह झूठ-मूठ में किसी को नहीं मारते …लेकिन अगर किसी ने हमारे साथ छल किया तो उसका अंजाम हम मुन्नी पांडे जैसा कर देते हैं’. निर्भय ने जैसे ही अपनी बात खत्म की हमने अनजान बनते हुए पूछा- ‘कौन मुन्नी पांडे?’
निर्भय को भी लगा कि हमें मुन्नी पांडे की कहानी नहीं मालूम तो उसने उसे मारने का वो वाकया हुबहू सुना डाला …जैसा यहां आने से पहले हमारे जेहन में घूम रहा था. तो आपने मुन्नी को मार डाला-हमने कहा.
‘जो हमारे साथ दगा करता है उसे हम छोड़ते नहीं है चाहे उसके लिए हमें सात संमदर पार या पाताल लोक तक ही क्यों न जाना पडे….अगर हमने दगाबाज को छोड़ दिया तो फिर हम काहे के दस्यु सम्राट ‘…निर्भय की इन बातों से हमें लगा कि अब उसे शराब चढ़ने लगी है …. लेकिन अगले ही पल ये सिर्फ हमारा दिमागी ख्याल साबित हुआ जब हमने कहा …
‘आपने उसी को मार डाला जिससे आप बेहद प्यार करते थे?’
‘हां, हम करते थे उससे प्यार लेकिन उसने तो हमें धोखा दिया …हमने जो किया बिल्कुल ठीक किया …अगर कोई और दस्यु होता तो शायद उसे छोड देता लेकिन हमारे यहां तो विश्वासघात की एक ही सजा है ….मौत , हमने उसके बदन का वो हिस्सा ही नष्ट कर दिया जिसके लिए वो हमें छोड़कर भागी थी’.
इन बातों को निर्भय इतनी सहजता से कह गया मानों वो किसी के कत्ल की नहीं ,खाने पीने की बात कर रहा हो …
रात धीरे धीरे स्याह होती जा रही थी …….हल्की बूंदाबांदी जारी थी….रह रहकर बिजली कड़क रही थी …दोनों चीजें मिलकर माहौल को भयावह बना रही थीं।
इस बीच हमें भूख लग आई थी … निर्भय को तो भूख लगी थी या नहीं, इसका तो पता नहीं लेकिन शायद उसे हमारी भूख का अंदाजा हो गया और जल्द ही हम सब खाना खा रहे थे……..पूरी और आचार….पीने के लिए था बारिश का पानी जिसे बड़े ही सलीके से उन ड्रमों में भरा जा रहा था जिन्हें गैंग हर वक्त अपने साथ रखता था ….हमने शायद ही कभी ऐसा खाना खाया था जहां अचार के साथ पूरी खानी पड़ रही थी ….लेकिन हम इतने थक चुके थे कि ये भोजन भी बेहद स्वादिष्ट लग रहा था ….
दस्यु गिरोहों में पूरी को व्यंजन माना जाता है और ये यदा कदा या फिर किसी त्यौहार पर ही बनाई जाती है …आज पूरी इसलिए बनाई गईँ थीं क्योंकि हम निर्भय के मेहमान थे …हम जिस चादर पर बैठे थे उसके उपर प्लास्टिक का तंबू लगाया गया था यानि हम बारिश से बचे हुए थे…उधर बाकी सब लोग जिनपर पहरे की जिम्मेदारी थी या गिरोह के दूसरे डाकू या तो किसी पेड के नीचे खड़े थे या फिर प्लास्टिक की चादर ओढे खुद को बारिश से बचा थे …मगर इस सबके बावजूद हर आंख पूरी तरह सजग थी …एकदम चौकन्नी ….नींद धीरे धीरे हमें अपने आगोश में ले रही थी उधर निर्भय पर शायद सुरुर छाने लगा था ….अब तक वो 2 बोतल खत्म कर चुका था….
‘पहरेदार’….जितनी तेजी से सन्नाटे को चीरती निर्भय की कड़क आवाज गूंजी उतनी ही तेजी से कहीं दूर से जवाब आया- ‘हां मालिक’.
पहरा चेक करने का ये निर्भय का खास अंदाज था. चूंकि अब निर्भय और हम खाना खा चुके थे लिहाजा अब बारी थी पूरे गिरोह के खाना खाने की ….हर किसी को खाना लेने के लिए चूल्हे के पास जाना पड़ रहा था ….खाना खिलाने की जिम्मेदारी थी कुछ खास लोगों पर …ये खास इसलिए हैं क्योंकि पूरे गैंग में ये सबसे अलग दिखते हैं … ये गंजे हैं ….जब सबने खाना खा लिया तो बचा खुचा खाना मिला उन्हीं गंजे लोगों को..
..उधर निर्भय अब मस्ती में कुछ गुनगुना रहा था ….क्या, ये समझ में नहीं आया लेकिन ये अंदाजा जरुर लग रहा था कि वो पूरी मस्ती में है. हम चंबल के बेताज बादशाह कहे जाने वाले डाकू निर्भय गुज्जर के मेहमान बने हुए थे …किसी फिल्मी कहानी का प्लॉट लग रहा था लेकिन सबकुछ हकीकत था …थोड़ी ही देर में जब सबने खाना खा लिया तो लाठी ने चादर के नीचे से जंजीरे निकालीं…और उन गंजे लोगों को जंजीरों में बांध दिया जो अब तक खाना खिल रहे थे …..
‘ये पकड़ हैं… इन्हें अगवा कर यहां लाया गया है और जबतक इनकी फिरौती नहीं आ जाती, इन्हें यूं ही रहना पडेगा …दिन में गिरोह का सारा काम करना पडेगा तो रात में जंजीरों में जकड़ दिया जाएगा इन्हें’.
ये सब बातें यहां आने से पहले हमें हमारे मुखबिर ने बता दी थीं जो अब तक गहरी नींद में सो चुका था …निर्भय ने उसे भी कुछ ‘पैग’ पिला दिए थे ….वैसे जो कुछ दिख रहा था उसके अलावा भी हमारे दिमाग में बहुत कुछ चल रहा था … दिमाग की इस उलझन को तोड़ा निर्भय के कदमों की आहट ने …
जिस चादर पर हम लेटे थे वो वहां से उठा और उस बिस्तर पर जाकर लेट गया जो खाली पड़ा था ….उसके जाने के बाद जिस बिस्तर पर एक लड़का और दो लड़कियां बैठी हुई थीं, वहां से एक लड़की उठी और निर्भय के पास चली गई… फिर देखते ही देखते निर्भय ने उस लड़की को अपनी बाहों में भरा और जल्द ही सिसकियां भरने की आवाजें आने लगीं …… हालांकि वो बिस्तर एक पेड की ओट में था लेकिन हम महसूस कर पा रहे थे कि क्या चल रहा है वहां….लेकिन हमारे लिए इससे भी ज्यादा हैरानी की वजह ये थी कि पूरे गिरोह में हमें छोड़कर कोई हैरान नहीं था ..
..इसी तरह सवालों के भंवर में गोते लगाते लगाते हमें कब नींद आ गई, बिल्कुल पता नहीं चला.
लेखक बृज दुग्गल वर्तमान में आईबीएन7 न्यूज चैनल में डिप्टी एक्जीक्यूटिव प्रोड्यूसर हैं और ‘क्रिमिनल’ प्रोग्राम के एंकर हैं। पत्रकारिता के 12 साल के सफर में दुग्गल ने समाज के कई अनछुए पहलुओं को करीब से देखने की कोशिश की। कुछ अलग, कुछ हटके करने का जुनून बृज को कभी पूर्वोत्तर के आतंकी कैंप में रिपोर्टिंग कराने ले गया तो कभी चंबल के बीहड़ में पहुंचाया। बृज से संपर्क करने के लिए आप उन्हें [email protected] पर मेल कर सकते हैं।