मीडिया में टैलेंटेड लोगों के न आने की बात तो कही जाती है लेकिन जब पहले ही इस फील्ड में ‘महारथी’ भरे पड़े हैं तो नए लोगों की क्या जरूरत? जो लोग मीडिया में आ रहे फ्रेशर्स से नाखुश हैं, मैं उनसे पूछना चाहता हूं कि क्या इसके लिए आप लोग ही जिम्मेदार नहीं? आखिर क्यूं आज मीडिया की ये हालत हो गई है कि मीडिया को समाचार माध्यम नहीं, बल्कि अफवाह फैलाने के जरिए के रूप में देखा जा रहा है। दुनिया भर में जब लोग विज्ञान के महाप्रयोग को लेकर कौतुहल से भरे थे, उस वक्त अपने देश के हिन्दी चैनल इसे महाप्रलय का नाम देकर जनता में दहशत पैदा कर रहे थे। देश के ज्यादातर चैनल यही खौफ का माहौल पैदा करके टीआरपी बटोर रहे थे। सही बात है कि अंग्रेजी के चैनलों ने ऐसा नहीं दिखाया क्योंकि उन्हे खुद को देखने वाले वर्ग को उल्लू बना पाना आसान नहीं।
ऐसे में हिंदी चैनलों ने ये बीड़ा उठा लिया। धरती का आखिरी बुधवार, कलयुग का अंत जैसे कई सनसनी पैदा करने वाले शीर्षकों के तले इस खबर को 24 घंटे ताना गया। ताना भी क्यूं न जाता, मेहनत से बचकर बैठे-बैठे खबरें तैयार करने वालों के लिए ये मौका किसी सौगात से कम नहीं। बजाय वैज्ञानिक ज्ञान देने के, ऐसा माहौल बनाया गया कि अब तो प्रलय नजदीक ही है। इस दुष्प्रचार की वजह से फैले आतंक से घबराई एक बच्ची ने तो जान ही दे दी। इस पूरे प्रकरण के बाद आम लोग जो नाग-नागिन, प्रलय, यमराज जैसे कार्यक्रमों को चटखारे ले लेकर देखते थे, आज उकता कर इन्हीं टीवी चैनलों को गालियां बक रहे हैं। यह बताता है कि एक हद तक तो आप बकवास कर सकते हैं लेकिन किसी चीज की अति भी अच्छी नहीं।
इस सब के लिए कौन जिम्मेदार है? वही लोग जो कई सालों से इस फील्ड में हैं और उटपटांग दिखाने वाले इन चैनलों के सर्वेसर्वा बने हुए हैं। हर बड़े चैनल में रोजाना कई स्लग गलत चलते हैं। टिकर की तो हालत ही खराब होती है। ऐसा लगता है जैसे मातृभाषा को तोड़-तोड़ कर उसे विकलांग करने का ठेका ही ले रखा हो। जब इन विषयों पर चैनलों में कार्यरत लोगों से बात की जाती है तो वो इसका ठीकरा नए लोगों पर फोड़ देते हैं। एक ही जवाब होता है उनका कि मीडिया में ऐसे लोग आ गए हैं जिन्हें कुछ आता-जाता नहीं हैं। मेरा उनसे सवाल है कि इसके लिए आप नहीं तो कौन दोषी है?
आज अगर कोई मीडिया में आना चाहता है तो उससे पूछा जाता है कि कोई डिग्री या डिप्लोमा है कि नहीं? बेचारा बड़ी मुश्किल से पैसे जुटाकर किसी संस्थान में दाखिला लेता है ताकि कोई डिग्री या डिप्लोमा ले सके। बेचारे को मालूम नहीं होता कि पत्रकार बनने की चाह में वो ऐसे माफियाओं के चक्कर में फंस गया है जिसमें कुछ धन लोभी लोगों के साथ-साथ मीडिया में कार्यरत कुछ लोगों से भी सांठगांठ है। बहरहाल वो अपना डिग्री या डिप्लोमा पूरा करता है तो पता चलता है कि बिना सिफारिश के नौकरी क्या इंटर्नशिप भी नहीं मिलेगी। मोटी रकम वसूल कर सिखाने के नाम पर धोखा देने वाले संस्थान तो पहले ही पल्ला झाड़ चुके होते हैं।
इस तरह जब कदम-कदम पर प्रतिभा का शोषण होगा तो अच्छे लोग कहां से अंदर आएंगे? जहां जाओ वहां अनुभव मांगते हैं। भई, अगर मौका नहीं दोगे तो अनुभव कहां से आएगा। अंदर तो वही आएगा जिसका कोई “सोर्स” या “जुगाड़“ होगा, भले ही उसे ये पता न हो कि जन संचार शब्द अंग्रेजी के मास कम्युनिकेशन का ही हिन्दी अनुवाद है। जब तक इंडस्ट्री में व्याप्त भाई-भतीजावाद और गली-गली में खुले इन पत्रकारिता के संस्थानों पर लगाम नहीं लगाई जाती, तब तक मीडिया के नाम पर सक्रिय ये गिरोह यूं ही लूट मचाते रहेंगे। ऐसे में न तो मीडिया का उत्थान होगा और न ही कोई दूसरा सुधार। हां, ये ब्लेम गेम चलता रहेगा और वरिष्ठ लोग रोना रोते रहेंगे कि मीडिया में अच्छे लोगों की कमी है।