विख्यात पत्रकार और साहित्यकार ब्रजेश्वर मदान पैरालिसिस के शिकार हो गए हैं। वे बिस्तर पर पड़े हुए हैं। चार बेटों के एक-एक कर गुजर जाने और पत्नी के भी स्वर्गवासी हो जाने के बाद से मदान साहब अपने नोएडा स्थित मकान में अकेले ही रहते थे। बीमारी की इस स्थिति में उन्हें उनके साले ने अपने पास रखा है। मदान साहब का हफ्ते भर तक अस्पताल में इलाज चला। अब वे अपने साले के यहां स्वास्थ्य लाभ कर रहे हैं। अब भी उन्हें बोलने और हिलने-डुलने में मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। उनके साथ काम कर चुके, कर रहे, जानने वाले, प्रशंसक, दोस्त-यार..सभी उनसे मिलने पहुंच रहे हैं। 20 अगस्त 1944 को जन्मे मदान साहब हिंदी के पहले ऐसे पत्रकार हैं जिन्हें वर्ष 1988 में बेस्ट राइटिंग आन सिनेमा अवार्ड दिया गया।
उनके तीन कहानी संग्रह प्रकाशित हैं- लेटर बाक्स (हिंदी अकादमी द्वारा पुरस्कृत, बावजूद और सूली पर सूर्यास्त। हाल ही में उनका एक कविता संग्रह प्रकाशित हुआ है जिसका नाम है- अलमारी में रख दिया है घर। मदान साहब की सिनेमा पर एक किताब है जिसका नाम सिनेमा- नया सिनेमा है। मदान साहब इन दिनों राष्ट्रीय सहारा से जुड़े हुए हैं। खुद के बारे में मदान साहब यह कहना ज्यादा पसंद करते हैं कि मैंने नौकरी कभी कभी, चाकरी कभी नहीं की।
”भारत विभाजन के साथ तीन साल की उम्र में ही विस्थापित। अब तक अपनों की तलाश। जगह मिली काग़ज़ की दुनिया में। यों भी लेखक ‘पेपर बीइंग’ होता है और लगता है ‘नेट’ की यह आभासी दुनिया काग़ज़ से भी विस्थापित कर देगी जहां आदमी छाया पर ही छतरी टांग सकता है। जहां तक शिक्षा का प्रश्न है, मैं ज़िंदगी को ही सबसे बड़ा स्कूल मानता हूं। ज्ञानोदय, सारिका, दिनमान, नई कहानियां, नवभारत टाइम्स, जनसत्ता और फिल्मी कलियां जैसी पत्र-पत्रिकाएं ही मेरे विश्वविद्यालय हैं, जिनमें स्वतंत्र रूप से लेख कहानियां और साहित्य समीक्षाएं लिखता रहा हूं। आम आदमी और अपने अनुभव को अपना शिक्षक मानता हूं। लिखना स्वभाव भी है और जीवनयापन का साधन भी।”
इसी रविवार को मदान साहब को देखने पहुंचे वरिष्ठ पत्रकार और चिंतक चंद्रभूषण ने लौटकर अपने ब्लाग पहलू पर जो कुछ लिखा है, उसे यहां साभार पेश किया जा रहा है-
चुप लेटे मदान
इतवार की सुबह-सुबह एक अजीब घटनाक्रम में पता चला कि ब्रजेश्वर मदान को पैरालिसिस हो गया है। फोन किया तो कोई उठा नहीं रहा था। दो-चार फोन इधर-उधर खटकाने के बाद स्थिति का पता चला। घर उनके कुल दो बार ही जाना हुआ था लेकिन बिना किसी से रास्ता पूछे स्कूटर ठीक उनके घर के सामने ही खड़ा हुआ। वहां पता चला कि यहां उनकी देखरेख के लिए कोई है नहीं लिहाजा उनके साले साहब ने उन्हें अपने ही यहां रख लिया है। वहां पहुंचने पर मदान साहब को देखा।
यह जिंदादिल इन्सान, जिसे एक बार पैर में चोट खाने के अलावा मैंने कभी बीमार नहीं देखा था, जो न जाने किस समय से हर शाम दारू का पूरा पौआ नीट और एक सांस में ही पीने का आदी रहा, मेरे सामने पड़ा था कमर पर बच्चों की हगीज पहने, बच्चों जैसा ही निस्संग चेहरा लिए, सोया हुआ इस तरह कि जागने भर को भी स्फुरण शरीर के भीतर पैदा नहीं हो रहा था।
एक हाथ अजीब तरह मुड़ा हुआ था। उस पर मैंने अपना हाथ रखा तो कोई हरकत नहीं हुई। फिर माथा छुआ और दूसरा हाथ सहलाया। नाम बताया तो चेहरे पर कहीं कोई भाव नहीं। मन में खुटका हुआ कि यह नाराजगी तो नहीं। फिर शायद वहां मेरे होने की बात दिमाग तक पहुंची होगी। हरकत वाले हाथ से हाथ थाम लिया, आंख खोलकर रोने सा मेरी तरफ देखा और बाईं तरफ जरा सा खुल पा रहे मुंह से मुअइं जैसा कुछ कहा।
इस आदमी के बारे में मैं क्या कहूं। बहुत लोग बहुत तरह से बहुत कुछ कहेंगे। कहने-सुनने में ब्रजेश्वर मदान जो हैं सो हैं। पढ़ने-लिखने वाले लोग उन्हें जीनियस कहते हैं। उनकी कई कहानियां और कुछ कविताएं भी ऐसी हैं जिन्हें पढ़कर अपने आसपास की दुनिया को आप नए तरह से देखने लगते हैं। यह जीनियस का ही काम है। लेकिन उनका लिखा पढ़ने से ज्यादा मजा मुझे उनके साथ होने में, उनकी बातें सुनने में और उनसे बकवास करने में आता रहा है। मुझे इतना भयंकर रोना आया कि क्या कहूं। थोड़ी देर और वहां बैठा, फिर भाग खड़ा हुआ।
घर पहुंचकर शाम होने को थी कि शिवसेवक सिंह आ गए। इलाहाबाद में नगरपालिका पार्षद हैं। बातों-बातों में इलाहाबाद ही पहुंचा देते हैं। मदान साहब का दुख भरमाने में उनकी बातें बड़े काम आईं। फिर सड़क पर यूं ही चाईं-माईं भटकते एक लंबी कार में आते मृगांक शेखर, उनकी पत्नी और पीछे बैठे खालिद पति-पत्नी मिल गए। सहारा से मेरे हटने के बाद ये दोनों लोग मदान साहब के सबसे करीबी थे। मदान साहब अपनी सारी गालियां इन्हीं के मार्फत मुझ तक पहुंचाते थे। कब ठीक होगे ब्रजेश्वर मदान? कभी इतने ठीक होगे कि हम साथ मिलकर वह किताब कर सकें, जिसके बारे में इतनी बातें की हैं?
मदान साहब ने अपनी पत्नी की मौत के एक साल बाद उनकी याद में जो लंबी कविता लिखी, उसका एक अंश यहां प्रकाशित किया जा रहा है-
अनंतगता पत्नी के नाम
दस मई को उसे गुजरे
हो गया एक साल
समाचार पत्र में
जा रहा था देने इश्तिहार
स्कैन करवाई उसकी तस्वीर
सोचा कि खाली स्पेस में लिख दूं
जन्मतिथि और मृत्यु की तारीख
लेकिन अपनी जन्मतिथि
खुद उसे कहां पता थी
लड़कियों के जन्म का, मृत्यु का
पंजीयन तब होता ही नहीं था
और वे दुनिया से ऐसे चली जाती थीं जैसे
पैदा ही न हुई हों
उनकी मृत्यु की तारीख
मैं नहीं लिख सका
क्योंकि मेरे लिए तो वह
मरी ही नहीं थी कभी
छोड़ दिया उसकी याद में
विज्ञापन देने का ख्वाब।