स्वर्गीय उदयन शर्मा की पुण्यतिथि पर आयोजित सेमिनार में मीडिया की भूमिका और उसके चरित्र में आए बदलाव को लेकर बहुत सारी बातें उठीं, जिनमें से कुछ नई भी थीं और कुछ पुरानी भी जो सेमिनार दर सेमिनार दोहरायी जाती रही हैं। लेकिन चुनाव के संदर्भ में दो मुद्दे बड़ी शिद्दत से उभरे और वो ये कि एक तो उसमें बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार घुस गया है और इससे पत्रकारिता एवं पत्रकार दोनों की साख को बट्टा लगा है। दूसरा मुद्दा ये था कि पत्रकारों के हाथ से जनता की नब्ज़ फिसल गई है इसलिए चुनावी आकलन में वे लगातार गच्चा खा रहे हैं। वे भविष्यवाणी कुछ करते हैं, परिणाम कुछ और आते हैं। उनका ज़मीन से कोई रिश्ता नहीं रह गया है इसलिए वे समझ भी नहीं पाते कि वहाँ हो क्या रहा है। दरअसल, ये दो मुद्दे देखने में अलग लग सकते हैं मगर हैं एक ही समस्या की उपज। समस्या है अख़बार या चैनल चलाने का वह मॉडल जिसमें सारा ज़ोर ऐन केन प्रकारेण ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफ़ा कमाने पर है, भले ही इसके लिए पत्रकारिता से समझौता करना पड़े या भ्रष्ट उपाय करने पड़ें। इस बिज़नेस मॉडल में पाठक एवं दर्शक केंद्र में होते हुए भी परिधि में हैं। यानी संख्याबल बढ़ाने के लिए वे केंद्र में रखे जाते हैं, मगर जब उनके हित-अहित की बात आती है तो उन्हें परिधि में ढकेल दिया जाता है। इसीलिए कंटेट कुछ फार्मूलों में उलझकर रह गया है और सामाजिक सरोकार हाशिए में चले गए हैं।
नई बाज़ार-व्यवस्था से पैदा हुई ये रणनीति अब मार्केटिंग विभाग तक ही सीमित नहीं रह गई है, बल्कि संपादकीय विभाग के शीर्ष पर बैठे लोगों ने भी चाहे-अनचाहे इसे आत्मसात कर लिया है। पत्रकारों की एक तरह से कंडीशनिंग (अनुकूलन) कर दी गई है और उन्हें अब ये सही एवं समयानुकूल भी लगता है। यहाँ यह भी देखा जाना चाहिए कि मीडिया में जो पूँजी आ रही है उसका और उसे लगाने वालों का चरित्र क्या है। पूँजी-प्रधान व्वस्था में उद्देश्यों का निर्धारण समाज और पत्रकार नहीं करते, पूँजी लगाने वाले करते हैं। ज़ाहिर है कि भ्रष्ट तरीकों से अर्जित पूँजी मुनाफ़ा कमाने के लिए भ्रष्टतम तरीके अपनाएगी और पत्रकार के सामने उस भ्रष्टाचार में शामिल होने के अलावा एक ही विकल्प होगा, उस संस्थान से बाहर हो जाना।
इस नए बिज़नेस मॉडल के अंतर्निहित ये विरोधाभास ही हैं जो हमें पत्रकारिता में दिखलाई पड़ रहे हैं। एक तरफ तो पत्र-पत्रिकाओं और न्यूज़ चैनलों की पाठक-दर्शक संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। नए-नए चैनल शुरू हो रहे हैं, अख़बारों के संस्करण पर संस्करण निकल रहे हैं। मगर दूसरी तरफ, आलम ये है कि उनकी विश्वसनीयता घट रही है। पत्रकारों की छवि और प्रतिष्ठा धूमिल हो रही है। यही वजह ज़मीन से रिश्ता टूटन की भी है। जब आपके हाथ मुनाफ़ा साधने में व्यस्त होंगे तो जनता की नब्ज़ आप कैसे थामेंगे? हम व्यस्त हैं भूत-प्रेत में, स्वर्ग की सीढ़ियाँ, चमत्कार और ख़बरों के सनसनीकरण में ताकि दर्शक जुटें और उसे रेवेन्यू में ट्रांसलेट करने में। हमें उसके दुख-दर्द, समस्याओं और संघर्षों से कोई वास्ता ही नहीं है तो कैसे पता चलेगा कि उसके मन में क्या चल रहा है। अगर हमारा टारगेट बीस करोड़ शहरी मध्यवर्ग है तो ज़रा सोचिए कि हम कैसे गाँव में रहने वाली साठ फ़ीसदी आबादी और किसान-मज़दूरों के दिल की बात जान पाएंगे। हम नहीं जान पाएंगे। हम बार-बार ग़लत साबित होंगे। उदयन शर्मा की पुण्यतिथि पर आयोजित बहस में इन मुद्दों पर चर्चा होनी चाहिए थी,मगर हो नहीं पाई।
मीडिया के चरित्र को लेकर पिछले पाँच-छह साल से लगातार बहस हो रही है और अकसर ये एकतरफा होती है। एकतरफा से मतलब ये है कि इक्का-दुक्का लोगों को छोड़कर सभी मीडिया के पतन की नई-नई मिसालें देते हुए गुस्सा या दुख प्रकट करते हैं। इसलिए कहा जा सकता है कि मोटे तौर पर एक आम सहमति है कि मीडिया पथभ्रष्ट हुआ है, वह वो नहीं कर रहा जिसकी अपेक्षा एक लोकतांत्रिक समाज में उससे की जाती है। इसलिए अगर एक छोटा सा तबका फिर भी अपनी बात पर अड़ा है कि मीडिया में सब ठीक-ठाक है और जो लोग इसमें खामियां देखते हैं उनकी दृष्टि में ही खोट है तो उनका कुछ नहीं किया जा सकता। यही कहा जाना चाहिए कि ख़ुदा उन्हें माफ़ करना क्योंकि वे नहीं जानते कि वे क्या कह रहे हैं और क्या कर रहे हैं। उन्हें उनके हाल पर छोड़कर सोचना ये चाहिए कि किया क्या जाए या फिर हम सभा-सेमिनारों में बहस ही करते रहेंगे। आख़िर बात छेड़ी गई है तो उसे दूर तलक भी जाना चाहिए।