टीवी धारावाहिकों, न्यूज चैनलों और विज्ञापनों ने स्त्री की एक दूसरी छवि बनाई है। इनमें एक नई किस्म की स्त्रियों को दिखलाया जाता है। ये परंपरागत शोषण और उत्पीड़न से तो मुक्त दिखती हैं लेकिन वह स्वयं पुरुषवादी समाज के लिए उपभोग की वस्तु बनकर रह जाती हैं। इन दिनों हमारा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया मुक्त स्त्री का जो रूप दिखाता है, वह ‘उपभोक्ता’ स्त्री का ही रूप है जो सिगरेट पीती है। शराब पीती है। जुआ खेलती है। अधिकतर उच्च मध्य वर्ग की स्त्रियों की इसी छवि को इनमें दिखाया जाता है।
विज्ञापनों, धारावाहिकों और फिल्मों के भीतर स्त्री का निर्माण करते हुए मीडिया यह भूल जाता है कि भारत की शोषित, दमित स्त्री की मुक्ति का लक्ष्य बाजार में साबुन बेचने वाली स्त्री नहीं हो सकती। इस पूंजीवादी समाज में महिला को उपभोक्ता वस्तु बनाने की महिला विरोधी जनसंचार माध्यमों और व्यवसायियों की साजिश को समझना होगा। भारत को देह बाजार में तब्दील होने से रोकना होगा। अगर हम ऐसा कर पाने में असफल रहे तो महिलाओं की वास्तविक समस्याओं और उनके वास्तविक मुद्दों पर पर्दा डाल दिया जाएगा। महिला आंदोलनों और संघर्षों से हासिल हुई अब तक की हमारी उपलब्धियों को दरकिनार कर दिया जाएगा। तब महिलाओं की पहचान उनके विचार, विवेक और कर्तव्य से नहीं, देह और सौंदर्य से होगी- क्योंकि तब वे जीती-जागती नारी नहीं, उपभोग करने लायक वस्तु रह जाएंगी।
1994 में किए गए एक मीडिया सर्वेक्षण में पाया गया कि टीवी समाचारों में महिलाओं के मुद्दे हाशिए पर थे। हालांकि टीवी के प्राइम टाइम में दिखाए जाने वाले प्रसिद्ध धारावाहिकों के सर्वेक्षण में कुछ उत्साहित करने वाली प्रवृत्तियां भी दिखायी दीं। जिन महिला किरदारों को घरों से बाहर काम करते हुए दिखाया गया, वे मजबूत शख्सीयत वाली थीं। अपनी स्वतंत्र पहचान बनाने के लिए संघर्ष कर रहीं थीं। हालांकि इनके अलावा कुछ विचलित करने वाले पहलू भी सामने आए-
- इन धारावाहिकों में सिर्फ एक तिहाई महिलाओं को मुख्य किरदार के रूप में चित्रित किया गया था। उनका चित्रण मुख्य रूप से बिजनेस इंटरप्राइजेज के एमडी, वकील, पत्रकार, फैशन डिजायनर, एडवरटाइजिंग एक्जीक्यूटिव, सेक्रेटरी व डॉक्टर के रूप में किया गया था।
- पुरुषों को व्यावसायिक गतिरोधों का मुकाबला करते और प्यार में हतोत्साहित होने जैसे परम्परागत रूप में दिखाया गया था। दूसरी तरफ, महिलाओं को व्यक्तिगत रिश्तों के टूटने के दबाव, बच्चों के दुर्व्यवहार और ब्लैकमेल से जूझते दिखाया गया था।
- कामकाजी महिलाओं को महत्वाकांक्षी, अतिसंवेदनशील, दफ्तरों में अनियमित उपस्थिति या अव्यवहारिक, घर-परिवार एवं रोजमर्रे के कामकाज के मामलों में धर्मभीरू, अपने संबंधों को बनाये रखने में अयोग्य और बच्चों को लेकर चिंतित दिखाया गया था। यौन दुर्व्यवहार, पैरेंटिंग और शादी जैसे कुछ गंभीर मुद्दों का चित्रण ओछे और विकृत ढंग से और बढ़ा-चढ़ाकर किया गया था।
- बच्चे, विशेषकर लड़कियों को विकृत रहन-सहन का शिकार दिखाया गया था, जबकि कुछ को मानसिक रूप से अस्वस्थ्य दिखाया गया था जो अपने प्रेमी अथवा पति और दोस्तों पर विश्वास नहीं करती थीं।
(जारी)
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सुशीला कुमारी स्वतंत्र लेखिका हैं। ”आधी दुनिया का सच” नामक किताब के लिए उन्हें वर्ष 2006 में प्रतिष्ठित भारतेंदु हरिश्चन्द्र पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है। उपरोक्त आलेख सुशीला की हाल में ही आई किताब ”अबला बनाम सबला” से लिया गया है। यह किताब दिल्ली सरकार की हिंदी अकादमी के वित्तीय सहयोग से प्रकाशित हुई है। सुशीला आईआईएमसी की छात्रा रह चुकी हैं। वे इन दिनों मधुबाला पर पुस्तक लिखने में व्यस्त हैं। सुशीला से संपर्क 09868793203 या [email protected] के जरिए किया जा सकता है।