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साहित्य

कहीं आपके आसपास भी ‘मुन्नी मोबाइल’ तो नहीं

पुस्तक समीक्षा : घर में झाडू-पोंछा करने वाली अनपढ बिंदू यादव अपनी मेहनत, लगन और इच्छाशक्ति के दम पर कब ‘मुन्नी मोबाइल’ बन समाज के ठेकेदारों से लोहा लेने लगी, उसे पता ही नहीं चला। लेकिन पैसे की ताकत समझ में आने पर उसमें ऐसा लालच जगा कि वह पतन की उस राह पर चल पड़ी जहां उसका हश्र उसकी हत्या के रूप में हुआ। घरेलू नौकरानी से समाज की दबंग औरत में तब्दील हो जाना और फिर लड़कियों की सप्लायर में उसका रूपांतरण कहीं न कहीं हमारे समाज की विसंगतियों को रेखांकित करता है। यह कहानी है पत्रकार प्रदीप सौरभ के उपन्यास ‘मुन्नी मोबाइल’ की जो वाणी प्रकाशन से प्रकाशित होकर बाजार में आ चुका है।

पुस्तक समीक्षा : घर में झाडू-पोंछा करने वाली अनपढ बिंदू यादव अपनी मेहनत, लगन और इच्छाशक्ति के दम पर कब ‘मुन्नी मोबाइल’ बन समाज के ठेकेदारों से लोहा लेने लगी, उसे पता ही नहीं चला। लेकिन पैसे की ताकत समझ में आने पर उसमें ऐसा लालच जगा कि वह पतन की उस राह पर चल पड़ी जहां उसका हश्र उसकी हत्या के रूप में हुआ। घरेलू नौकरानी से समाज की दबंग औरत में तब्दील हो जाना और फिर लड़कियों की सप्लायर में उसका रूपांतरण कहीं न कहीं हमारे समाज की विसंगतियों को रेखांकित करता है। यह कहानी है पत्रकार प्रदीप सौरभ के उपन्यास ‘मुन्नी मोबाइल’ की जो वाणी प्रकाशन से प्रकाशित होकर बाजार में आ चुका है।

देश के सुदूर इलाकों से महानगरों में आ रहे लोग झंझावातों के बवंडरों में इस कदर घिर जाते हैं कि उन्हें सही-गलत या नैतिक-अनैतिक का फर्क तक समझ में नहीं आता। या यह भी कह सकते हैं कि वक्त उन्हें यह समझने का ‘समय’ ही नहीं देता। यही थीम है प्रदीप सौरभ के उपन्यास ‘मुन्नी मोबाइल’ की। उपन्यास की मुख्य पात्र मुन्नी की कथा दूसरे महत्वपूर्ण पात्र पत्रकार आनंद भारती के साथ-साथ चलती है।

लेखक ने कहानी के साथ सामयिक ज्वलंत मुद्दों को भी अपनी किताब में उठाया है। कहानी के साथ-साथ कुछ मुद्दों का इतिहास, कुछ संस्मरण और विवरणों का भी समावेश है। रिपोर्ताज का इस्तेमाल भी लेखक ने बखूबी किया है। दिल्ली और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में माफिया की कार्यशैली का भी अच्छा चित्रण पुस्तक में है। बक्सर से आई बिंदू यादव अपने परिवार के लालन-पालन की मजबूरी में एक अवैध गर्भपात केंद्र की एजेंट बन जाती है। कई झंझावातों से गुजरते हुए वह पत्रकार आनंद भारती की घरेलू नौकरनी बन जाती है। झाडू-पोंछे से लेकर खाना बनाने और कपडे़ धोने का सब काम बडे़ सलीके से करती है। अपनी मेहनत और लगन के दम पर वह झोपड़ी से जब अपने खुद के घर में शिफ्ट होती है और कई बसों की मालकिन बन जाती है। ऐसे में पाठक को वह राबिनहुड की तरह अपना रोल माडल लगने लगती है। लेकिन पुस्तक के अंत तक आते-आते मुन्नी की छवि पाठक के दिमाग में एक खलनायिका वाली हो जाती है।

मुन्नी प्रदीप के उपन्यास की कहानी की मुख्य पात्र जरूर है लेकिन लेखक मोबाइल क्रांति से लेकर नरेंद्र मोदी के चेहरे पर पुती ‘कलई’ को भी सामने लाए हैं। वर्गीय और सांप्रदायिक विद्रूप के साथ-साथ लेखक ने जातीय सेनाओं के शर्मनाक अस्तित्व को भी आइना दिखाने की कोशिश की है। लेखक को व्यक्तिगत रूप से जानने वाले यह भी कह सकते हैं कि उन्होंने इस इन्क्लाबी उपन्यास में अपने कुछ अंर्तद्वंदों और संस्मरणों का भी मौलिक रूप से समावेश किया है।

बहरहाल यह एक मुन्नी की कहानी नहीं है। यह समाज का आईना है। ऐसे कई लोगों को मैं व्यक्गित रूप से जानता हूं जो सुदूर ग्रामीण अंचलों से दिल्ली जैसी जगह आकर सीधे सादे आदमी से प्रत्येक अनैतिक काम करने वाले दुर्जन के रूप में रूपांतरित हुए हैं। यह समाज का एक भयावह सच है।


आयोजन : वरिष्ठ पत्रकार और गद्दकार प्रदीप सौरभ के पहले उपन्यास मुन्नी मोबाइल के लोकार्पण के मौके पर इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद के निराला सभागार, डेलीगेसी में भूमंडलीकरण और सांप्रदायिकता विषय पर चर्चा का आयोजन किया गया है। उपन्यास का लोकार्पण करेंगे वरिष्ठ कथाकार दूधनाथ सिंह। समारोह के विशिष्ट अतिथि के रूप में आमंत्रित हैं वरिष्ठ कथाकार मार्कण्डेय। अध्यक्षता करेंगे वरिष्ठ आलोचक प्रो. राजेंद्र कुमार। 21 दिसंबर को होने वाले इस कार्यक्रम का समय है दोपहर ढाई बजे। आप सभी आमंत्रित हैं।

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