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कहिन

”तब अपना और चैनल का नाम उजागर कर दूंगा”

भरे मन से ये चिट्ठी आपको लिख रहा हूं। मैं एक ठीक-ठाक चैनल में तीन-चार साल से काम कर रहा था। वहां कोई तकलीफ नहीं थी। लेकिन बदलाव की इच्छा के चलते मैंने एक बड़े ग्रुप के नए नवेले चैनल में अप्लाई किया। वहां मुझे नौकरी मिल गई। इसके बाद मेरे उत्साह का ठिकाना नहीं रहा। लेकिन दफ्तर में घुसने के बाद जो माहौल देखा, उससे मेरे उत्साह पर पानी फिर गया। एक साहब वहां पहले से तैनात हैं। सुनते हैं कि उस ग्रुप में चार-साढ़े चार साल पहले असिस्टेंट प्रोड्यूसर बन कर आए थे। उन्हें जब प्रमोट किया जाने लगा तो न्यूजरूम में सबको अपना नौकर समझने लगे। लिहाजा कई लोगों से मार खाते-खाते बचे।

भरे मन से ये चिट्ठी आपको लिख रहा हूं। मैं एक ठीक-ठाक चैनल में तीन-चार साल से काम कर रहा था। वहां कोई तकलीफ नहीं थी। लेकिन बदलाव की इच्छा के चलते मैंने एक बड़े ग्रुप के नए नवेले चैनल में अप्लाई किया। वहां मुझे नौकरी मिल गई। इसके बाद मेरे उत्साह का ठिकाना नहीं रहा। लेकिन दफ्तर में घुसने के बाद जो माहौल देखा, उससे मेरे उत्साह पर पानी फिर गया। एक साहब वहां पहले से तैनात हैं। सुनते हैं कि उस ग्रुप में चार-साढ़े चार साल पहले असिस्टेंट प्रोड्यूसर बन कर आए थे। उन्हें जब प्रमोट किया जाने लगा तो न्यूजरूम में सबको अपना नौकर समझने लगे। लिहाजा कई लोगों से मार खाते-खाते बचे।

अब वे इसी ग्रुप के नए चैनल में डेस्क हेड हैं। अब डेस्क हेड हैं – लिहाजा उन्हें हर किसी को गाली देने का हक मिल गया। बदतमीजी करना उनकी फितरत में शामिल हो गया है। एक दिन तो मैंने देखा कि एक वरिष्ठ सज्जन से तूतू-मैंमैं करने लगे तो मेरे पैरों के नीचे की जमीन खिसक गई। पूरा न्यूज रूम इस वाकये के बाद सन्नाटे में था। अब ऐसे में क्या करें..मैंने पत्रकारिता में आने के पहले ढेरों सपने देखे थे, मेरे लिए वे लोग आदर्श होते थे, जो अखबार – टीवी के कार्यालय में काम करते थे। लेकिन यहां वह बात नहीं रही। किसी वरिष्ठ का ऐसा अपमान करते, वह भी सार्वजनिक तौर पर, मैंने पहले कभी नहीं देखा था। लेकिन हमारे डेस्क इंचार्ज साहब को जब ऐसा करते देखा तो मैं सोचने लगा कि मैं कहां फंस गया। जब बड़े लोगों के साथ ऐसा हो सकता है तो हमारे जैसे अदने से व्यक्ति के साथ क्या होगा। यही सोचकर मैं रोज परेशान होता हूं और झीक मारकर घर लौट जाता हूं।

मजे की बात ये है कि ये शख्स लड़कियों के साथ भी बदतमीजी करता है। लेकिन ना तो चैनल के कर्ता-धर्ता ना ही कोई और उस पर लगाम लगा पा रहा है। ये देखकर लगता है कि क्या टेलीविजन बदतमीजों का माध्यम है? क्या टेलीविजन में तमीजदार लोगों और अच्छे संस्कारों की पत्रकारिता की गुंजाइश नहीं है? जो आदमी ठीक से लिख तक ना सके, उसे न्यूज रूम की जिम्मेदारी देना और उसे खुले सांड़ की तरह छोड़ देना क्या टेलीविजन जैसे माध्यम की मजबूरी है? या फिर ये नए तरह का शौक है? यशवंत जी, मैं फिलहाल अपना नाम और चैनल की पहचान उजागर नहीं करना चाहता। लेकिन सब्र की भी एक सीमा होती है। जिस दिन ये चुक जाएगा, उस दिन मैं चैनल के साथ ही अपना नाम भी उजागर कर दूंगा। ये चिट्ठी मैं आपको इस उम्मीद से लिख रहा हूं कि आप इसे उचित जगह जरूर देंगे।

आपका ही

अनाम


भड़ास4मीडिया के पास भेजा गया एक पाठक का पत्र, जिसे हू-ब-हू प्रकाशित किया जा रहा है।

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