आज 45 देशों के 56 अखबारों ने एक ही संपादकीय छापा है. भारत के प्रतिष्ठित अंग्रेजी अखबार ‘दी हिंदू’ ने भी इसे प्रकाशित किया है. इस संपादकीय में इन अखबारों ने विश्व के नेताओं से अपील की है कि कोपेनहेगन में 2 हफ्ते बाद होने वाले जलवायु संबंधी सम्मलेन में पृथ्वी को बचाने के लिए पहल करें. दुनिया भर के नेताओं को चाहिए कि इस दिशा में फौरन कार्रवाई करें वरना बहुत देर हो जायेगी और आने वाली पीढियां सवाल पूछने के लिए भी नहीं बचेगीं. इस पहल में हमको और आपको भी शामिल होना चाहिए। इसी मकसद से हम यहां संयुक्त संपादकीय पर आधारित एक लेख प्रस्तुत कर रहे हैं. हिंदी में भावानुवाद किया है वरिष्ठ पत्रकार शेष नारायण सिंह ने। – एडिटर, भड़ास4मीडिया
कोपेनहेगन में दुनिया को बचाने का मौका
जलवायु परिवर्तन अब एक कड़वी सच्चाई है. अगर फौरन क़दम न उठाये गए तो पृथ्वी पर रहने वालों की सुरक्षा और सम्पन्नता ख़त्म हो जायगी. हो सकता है कि धरती पूरी तरह से बाँझ हो जाए. कोपेनहेगन में करीब २ हफ्ते बाद होने वाले सम्मलेन से दुनिया को बहुत उम्मीद है लेकिन लगता है कि वहां कोई समझौता नहीं होने वाला है. प्रदूषक गैसों को वातावरण में छोड़ने वाले उद्योगों और ऊर्जा पैदा करने वाली अन्य तरकीबों की वजह से भूमंडल का तापमान बढ रहा है. पिछले 14 वर्षों का रिकॉर्ड देखा जाय तो पता लगेगा कि 11 साल ज़रुरत से ज्यादा गर्म रहे हैं और यही खतरे की घंटी है. इन्हीं कारणों से पिछले कुछ वर्षों में खाने पीने की चीज़ों की कीमतों में वृद्धि हुई है. अगर जलवायु परिवर्तन के मसले को हल न कर लिया गया तो इसे बतौर चेतावनी माना जा सकता है. इस विषय पर वैज्ञानिक पत्रिकाओं में पहले चर्चा होती थी कि सारा गड़बड़ इंसानों का किया धरा है लेकिन अब मुद्दा यह नहीं है. अब चर्चा का विषय यह है कि अब इस मुसीबत से बचने के लिए कितना वक़्त रह गया है.
जलवायु में परिवर्तन कोई एक दिन में नहीं हुआ है. यह शताब्दियों की गड़बड़ी का नतीजा है और इसके अपने आप ख़त्म होने की संभावना बिलकुल नहीं है. इसको रोकने की कोशिशों में अगले 2 हफ्ते बहुत ही अहम् भूमिका निभा सकते हैं. कोपेनहेगन में 192 देशों की सरकारों के प्रतिनिधि जमा होंगे. उनके सामने बस एक मकसद होना चाहिए कि जलवायु को और भी तबाह होने से बचाएं. इन नेताओं के सामने झगडा करके बातचीत को रोक देने का विकल्प नहीं है इस लिए इन्हें हर हाल में सुलह करने की कोशिश करनी चाहिए, एक दूसरे पर आरोप और प्रत्यारोप लगाने से बचना चाहिए. अगर यह लोग किसी समझौते पर नहीं पंहुच सके तो इनका काम राजनीति की सबसे बड़ी नाकामियों में दर्ज किया जाएगा. पूरी कोशिश की जानी चाहिए कि यह लड़ाई धनी और गरीब देशों के बीच के बाकी झगड़ों की तरह न हो जाय. क्योंकि अगर ये नेता यहां से कोई सही फैसला किये बिना लौटे तो आने वाली नस्लों को कोई सफाई देने लायक भी नहीं रह जायेंगें. इस बात की उम्मीद भी नहीं की जानी चाहिए कि कोपेनहेगन में कोई संधि हो जायेगी. लेकिन उस दिशा में क़दम तो उठाये जा सकते हैं.
इस सारे मामले में उम्मीद की एक किरण अमरीका के राष्ट्रपति पद पर बराक ओबामा की मौजूदगी है क्योंकि उनके पहले तो आठ साल तक अमरीका ने जलवायु के मुद्दे पर जमकर अड़ंगेबाजी की है. हालांकि आज भी दुनिया के भविष्य के लिए जो भी फैसले होने हैं उसमें अमरीकी राजनीति का ख़ासा असर रहता है क्योंकि चाह कर भी ओबामा, अमरीकी कांग्रेस की मंजूरी के बिना कुछ भी नहीं कर सकते. और वहां अभी भी वही मानसिकता हावी है जिसके आधार पर पूर्व राष्ट्रपति जार्ज डब्ल्यू बुश काम किया करते थे. लेकिन कोपेनहेगन में जो लोग जमा हो रहे हैं उन्हें राजनेता के रूप में अपनी पह्चान को भुलाकर अपने आप को स्टेट्समैन के रूप में प्रस्तुत करना पड़ेगा. अगर वे किसी समझौते पर न पंहुंच सके तो उन्हें इस बात की कोशिश करनी पड़ेगी कि जलवायु परिवर्तन की समस्या को हल करने के लिये एक टाइम टेबुल बना कर वापस लौटें और जब जून में जर्मनी में लोग मिलें तो कुछ कर गुजरने का मौक़ा हो.
समझौते की बुनियाद में संपन्न और गरीब मुल्कों के बीच इस बात पर सहमति होनी चाहिए कि प्रदूषण के मुद्दे पर न्यायपूर्ण सर्वसम्मत फैसला हो. दिक्क़त यह है कि संपन्न देश आज के आंकड़े पेश करने लगते हैं और कहते हैं कि विकासशील देशों को चाहिए कि वे अपना गैस उत्सर्जन कम करें. या एक तर्क प्रणाली यह होती है कि अमरीका और चीन आज की तारीख में सबसे ज्यादा प्रदूषण कर रहे हैं, उन्हें इस पर रोक लगाना चाहिए लेकिन सबको मालूम है कि इनमें से कोई भी बात स्वीकार नहीं होने वाली है. सबको मालूम है कि १८५० से अब तक जितना भी कार्बन डाई आक्साइड वातावरण में छोड़ा गया है उसका तीन चौथाई विकसित और औद्योगिक देशों की वजह से है. इसलिये विकसित देशों को पहल करनी पड़ेगी कि वे ऐसे उपाय करें कि अगले १० वर्षों में गैसों का उत्सर्जन स्तर ऐसा हो जाए जो १९९० तक था. सामाजिक न्याय का तकाज़ा है कि विकसित देश दुनिया भर के सारे प्रदूषण को एक इकाई माने और उसे दुरुस्त करने की लिए सबके साथ मिलकर क़दम उठायें जिसमें संपन्न देशों को ज्यादा धन खर्च करने के लिए पहल करनी पड़ेगी और जलवायु को ठीक करने के लिए गरीब मुल्क जो कटौती करेंगें उसकी भरपाई अमीरों की जेब से की जायेगी.
ज़ाहिर है इस सारे काम में खर्च भारी होगा लेकिन वह हर हाल में उस खर्च से कम होगा जो दुनिया के संपन्न देशों ने आर्थिक मंदी को रोकने के लिए किया है. यहाँ यह भी याद रखना पड़ेगा कि कि आर्थिक मंदी से बड़ा खतरा जलवायु वाला है क्योंकि अगर इसे तुरंत न रोका गया तो पहल इंसानियत के हाथ से निकल चुकी होगी और तबाही इस पृथ्वी की नियति बन जायेगी. ज़ाहिर है कि कोपेनहेगन में जुटे नेताओं से मानवता को बहुत उम्मीदें हैं, उन्हें चाहिए कि उन उम्मीदों पर खरा उतरें.
दी हिंदू में अंग्रेजी में प्रकाशित संपादकीय को पढ़ने के लिए क्लिक कर सकते हैं- Copenhagen: seize the chance