अब आपको नवभारत टाइम्स, टाइम्स आफ इंडिया, हिन्दू, एशियन एज जैसे अखबार पढना बंद कर देना चाहिए। आपकी टेबल पर होगा- द वाल स्ट्रीट जरनल। अब आप गर्व से कह सकते हैं कि न केवल आप विदेशी कपड़े पहनते हैं, विदेशी बोली बोलते हैं बल्कि विदेशी अखबार भी पढ़ते हैं। आज 30 मई है। हमारे हिन्दी के पत्रकार बंधुओं को तो स्मरण होगा कि आज के ही दिन हिन्दी का पहला समाचार पत्र उदंत मार्तंड का प्रकाशन हुआ था। यह तारीख साल 1826 की है। हालांकि हिंदी का यह पहला अखबार अपने जन्म के डेढ़ वर्ष बाद ही दिसम्बर 1827 में बंद हो गया था लेकिन इस अखबार के शुरू होने के दिन को हम हर वर्ष पत्रकारिता दिवस के रूप में मनाते चले आ रहे हैं। हिन्दी के पहले अखबार के जन्मदिन से दस दिन पहले विदेशी अखबार द वाल स्ट्रीट जरनल का ‘तोहफा’ हम लोगों को दिया गया है।
अभी तो इस परदेसी अखबार का फेसीमाइल एडिशन निकल रहा है। कल जब वह पूरे टीमटाम के साथ हमारी धरती पर आकर अखबार छापेगा तो हम लोगों को और ‘खुशी’ महसूस होगी। बहुत लम्बे समय से कोशिश हो रही थी कि भारत से विदेशी अंग्रेजी अखबारों के प्रकाशन की अनुमति मिल जाए लेकिन यह संभव नहीं हो पा रहा था। पर ये परदेसी देर से ही सही, अपना हर काम करा लेते हैं। जो सोचते हैं, जो चाहते हैं, वह कर-करा ही लेते हैं। पहले पूरी मंजूरी न मिले तो न सही, आधे में ही काम चला लेते हैं। आधे के बाद धीरे-धीरे पूरा काम करा लेते हैं। उन्होंने समझा दिया है कि फिलहाल हम भारत नहीं आएंगे। हांगकांग, लंदन, वाशिंगटन से बैठकर आपके भारतीय अखबारों को पार्टनर बनाकर फेसीमाइल एडिशन छापेंगे। यानि लिखेंगे वहां और छपेगा यहां। सरकार को बड़ा अच्छा लगा और अनुमति …नहीं….नहीं… परमिशन मिल गयी और इंडियन एक्सप्रेस समूह पार्टनर भी बन गया। 18 मई से द वाल स्ट्रीट जरनल का भारतीय संस्करण छपना शुरू हो गया है।
लगभग एक सौ अस्सी बरस से ज्यादा के हिंदी पत्रकारिता के इस सफर में भारतीय मीडिया का चेहरा काफी बदला है। टेक्नालाजी से लेकर कंटेंट तक में भारी परिवर्तन हुआ है। इस बात को मानने में कोई गुरेज नहीं होना चाहिए कि अंग्रेजी के सामने हिन्दी पत्रकारिता ने इतनी मजबूत जमीन तैयार की है कि अंग्रेजी की पत्र-पत्रिकाओं को हिन्दी में अपना प्रकाशन आरंभ करना पड़ा है। देश की सबसे ज्यादा बिकने वाली पत्रिका इंडिया टुडे ने पहले हिन्दी में कदम रखा और वह देश की हर जुबान में निकालने की कोशिश में है। कुछ संस्करण निकल भी रहे हैं। अंग्रेजी की पत्र-पत्रिकाओं ने जब हिन्दी में प्रकाशन आरंभ किया तो हिन्दी पत्रकारिता को यह गर्व जरूर हुआ होगा कि सही मायने में हम अवाम की आवाज हैं। हिन्दी पत्रकारिता बेशक अवाम की आवाज बनी हुई है लेकिन बहुत जल्द ही यह आवाज शायद दबा दी जाएगी जब अंग्रेजी के परदेसी अखबारों और उनके हिंदी संस्करणों का चलन बढ़ेगा।
लेखक मनोज कुमार वर्ष 1982 से पत्रकारिता में सक्रिय हैं। वर्तमान में स्वतंत्र पत्रकार और मीडिया शिक्षक के रूप में अध्ययन-अध्यापन का कार्य करते हैं। वे मीडिया पर केंद्रित मासिक पत्रिका ‘समागम’ का भी प्रकाशन करते हैं। साक्षात्कार की विधा पर एक किताब भी मनोज के नाम है। उनसे संपर्क करने के लिए 9300469918 या फिर [email protected] का सहारा ले सकते हैं।