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भारतीय पत्रकारों की कलम वाकई स्वतंत्र नहीं है?

3 मई। आज विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस है। संयुक्त राष्ट्र महासभा प्रेस की आजादी को अक्षुण्ण रखने के लिए हर साल 3 मई को विश्व प्रेस स्वाधीनता दिवस मनाता है। 3 मई इसलिए चुना गया क्योंकि 1991 में इसी दिन अफ्रीकी अखबारों के पत्रकारों ने स्वतंत्र मीडिया के लिए यूनेस्को सम्मेलन में विंडोक घोषणापत्र रखा था। तभी से यूएनओ 3 मई को प्रेस स्वाधीनता दिवस के रूप में मनाता है। यूनेस्को 1997 से हर साल पत्रकारिता और आजादी के लिए काम करने वाले पत्रकारों को ”गुलरिमो कोना इसाजा पुरस्कार” देता है। ड्रग माफियाओं के खिलाफ लिखते रहने वाले कोलंबिया के पत्रकार गोलरिमो को 1986 में गोली मार दी गई थी। विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस पर रायपुर के पत्रकार राजकुमार ग्वालानी अपने ब्लाग राजतंत्र पर भारतीय संदर्भ में एक पोस्ट लिखा है। इसमें वे कहते हैं-

3 मई। आज विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस है। संयुक्त राष्ट्र महासभा प्रेस की आजादी को अक्षुण्ण रखने के लिए हर साल 3 मई को विश्व प्रेस स्वाधीनता दिवस मनाता है। 3 मई इसलिए चुना गया क्योंकि 1991 में इसी दिन अफ्रीकी अखबारों के पत्रकारों ने स्वतंत्र मीडिया के लिए यूनेस्को सम्मेलन में विंडोक घोषणापत्र रखा था। तभी से यूएनओ 3 मई को प्रेस स्वाधीनता दिवस के रूप में मनाता है। यूनेस्को 1997 से हर साल पत्रकारिता और आजादी के लिए काम करने वाले पत्रकारों को ”गुलरिमो कोना इसाजा पुरस्कार” देता है। ड्रग माफियाओं के खिलाफ लिखते रहने वाले कोलंबिया के पत्रकार गोलरिमो को 1986 में गोली मार दी गई थी। विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस पर रायपुर के पत्रकार राजकुमार ग्वालानी अपने ब्लाग राजतंत्र पर भारतीय संदर्भ में एक पोस्ट लिखा है। इसमें वे कहते हैं-

राजकुमार”आज प्रेस स्वतंत्रता दिवस है। यहां पर सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि क्या वास्तव में प्रेस स्वतंत्र है? क्या वास्तव में प्रेस में काम करने वाले पत्रकारों की कलम ऐसा कुछ लिखने के लिए स्वतंत्र है जिससे समाज और देश का भला हो? इसके जवाब में यही बातें सामने आती हैं कि न तो आज प्रेस स्वतंत्र है और न ही पत्रकार की कलम। हकीकत यह है कि प्रेस जहां सरकार के हाथों में नाचने वाली कठपुतली हो गई है, वहीं पत्रकार की कलम मालिकों की गुलाम हो गई है। आज जहां कोई प्रेस यह दावा नहीं कर सकती है कि वह पूरी तरह से स्वतंत्र है और उसके अखबार में वही छपता है जो उसके पत्रकार लिखते हैं। आज कोई पत्रकार भी यह दावा नहीं कर सकता है कि वह जिस हकीकत को लिखते हैं उसको छापने का हक उनके पास है। अगर हकीकत यही है तो फिर काहे का प्रेस स्वतंत्रता दिवस। आज प्रेस स्वतंत्रता दिवस पर हम वो सब लिखने का साहस कर रहे हैं जो हम लिखना तो बरसों से चाह रहे थे, पर जानते थे कि हमारे लिखे को कोई छापने वाला नहीं है। लेकिन आज हमारे मन में बरसों से भरी आग को सबके सामने रखने के लिए हमारे पास एक ब्लाग है जिसमें लिखने के लिए हमें कम से कम किसी अखबार के मालिक या फिर मालिक के चहेते संपादक की मंजूरी की जरूरत नहीं है। हम पत्रकारिता से करीब 25 सालों से जुड़े हैं। 20 साल तो प्रेस में नौकरी करते हो गए हैं। इसके पहले के पांच साल ग्रामीण संवाददाता के रूप में काम किया। हमने जब लिखने के लिए कलम उठाई थी तब हम यही सोचकर पत्रकारिता में आए थे कि हम समाज और देश के लिए जो लिखेंगे वो छपेगा तो अपने समाज और देश का कुछ तो भला होगा। लेकिन हम तब नहीं जानते थे कि दूर के ढोल सुहावने होते हैं कि तरह पत्रकारिता का काम भी वैसा ही है। हम जब काम करने लगे तो हमें धीरे-धीरे अहसास होने लगा कि पत्रकार नाम का जो प्राणी होता है वो दुनिया के लिए तो सबका संकटमोचक होता है, पर हकीकत में ऐसा है नहीं।

आप एक पत्रकार हैं तो आपसे आपका समाज और आपके नाते-रिश्तेदार और सभी परिचित यह उम्मीद करते हैं कि उनके साथ अगर कहीं कोई अन्याय या फिर किसी तरह की भी ज्यादती हो रही है तो आपकी कलम उसके खिलाफ जहर उगले और आप उनको न्याय दिलाने का काम करें। लेकिन क्या कोई पत्रकार ऐसा कर पाता है? यह सवाल किसी भी पत्रकार से पूछा जाए तो उसका जवाब देने में वह सोचने लगेगा। क्योंकि हकीकत यह है कि कोई भी पत्रकार ऐसा कुछ भी लिखने की हिम्मत नहीं कर सकता है जो उसके अखबार मालिक को पसंद न हो। पसंद न हो का मतलब क्या है उसको भी समझना होगा। आज अखबार पूरी तरह से पेशेवर हो गए हैं। अखबारों में वही खबरें प्रकाशित की जाती हैं जिससे अखबार मालिकों को फायदा नजर आता है। समाज के सरोकार से जुड़ी काफी कम खबरों को ही अखबारों में स्थान मिल पाता है। यह होती है मालिकों की पसंद। अगर कोई पत्रकार एक असहाय अबला के लिए कुछ लिखना चाहता है, या फिर किसी गरीब परिवार की दास्तान लिखना चाहता है तो उसको ऐसा लिखने नहीं दिया जाता है। इन सब बातों को छोड़ भी दिया जाए तो एक पत्रकार खुद के साथ हो रहे अन्याय के बारे में भी अगर लिखना चाहे तो उसे लिखने नहीं दिया जाता है…”

आगे पढ़ने के लिए क्लिक करें- कलम हो गई गुलाम, पत्रकार नहीं कर सकते मर्जी से काम

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0 Comments

  1. anil jandu

    October 28, 2010 at 3:53 am

    bhai wah

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