Connect with us

Hi, what are you looking for?

कहिन

देखिए, अखबार में कहीं खाली जगह है?

[caption id="attachment_15049" align="alignleft"]राजेश रंजनराजेश रंजन[/caption]अचानक ही करीब दस साल पुराना एक किस्सा याद आ गया। मैं उन दिनों अमृतसर शहर में अपने अखबार के लिए रिपोर्टिंग कर रहा था। अखबार उन दिनों पंजाब में नया था इसीलिए ज्यादा से ज्यादा खबर कवर करने को कहा गया था। इसका उद्देश्य यह था कि हम अपने अखबार से ज्यादा से ज्यादा संगठन और लोगों को जोड़ सकें। ज्यादा से ज्यादा खबर और ज्यादा से ज्यादा तस्वीरें हमारी कोशिश रहती थी। पंजाब में सामाजिक संगठनों की भरमार है। हर दिन टेबुल पर प्रेस नोट का पुलिंदा पड़ा रहता था। अपनी खास खबरों और रूटीन की खबरों को निपटाने के बाद बारी होती थी प्रेस नोट की। एक ही फाइल में डेस्क के निर्देश के मुताबिक प्रेस नोट को निपटा दिया करता था। हर प्रेस नोट पर आधारित चार-पांच लाइनों की छोटी-छोटी खबरें बनाकर भेज देता था। ये खबरें सामान्यतः एक नजर में या फिलर के रूप में अपनी हैसियत के मुताबिक स्थान पा लेती थीं।

राजेश रंजन

राजेश रंजनअचानक ही करीब दस साल पुराना एक किस्सा याद आ गया। मैं उन दिनों अमृतसर शहर में अपने अखबार के लिए रिपोर्टिंग कर रहा था। अखबार उन दिनों पंजाब में नया था इसीलिए ज्यादा से ज्यादा खबर कवर करने को कहा गया था। इसका उद्देश्य यह था कि हम अपने अखबार से ज्यादा से ज्यादा संगठन और लोगों को जोड़ सकें। ज्यादा से ज्यादा खबर और ज्यादा से ज्यादा तस्वीरें हमारी कोशिश रहती थी। पंजाब में सामाजिक संगठनों की भरमार है। हर दिन टेबुल पर प्रेस नोट का पुलिंदा पड़ा रहता था। अपनी खास खबरों और रूटीन की खबरों को निपटाने के बाद बारी होती थी प्रेस नोट की। एक ही फाइल में डेस्क के निर्देश के मुताबिक प्रेस नोट को निपटा दिया करता था। हर प्रेस नोट पर आधारित चार-पांच लाइनों की छोटी-छोटी खबरें बनाकर भेज देता था। ये खबरें सामान्यतः एक नजर में या फिलर के रूप में अपनी हैसियत के मुताबिक स्थान पा लेती थीं।

एक सामान्य रिपोर्टर की तरह मैं सुबह को आंख मलता हुआ दरवाजे तक जाता था। वहां पड़ा अखबार का बंडल लेकर बेड तक आता था और अपनी बाईलाइन या खास स्टोरी का डिस्प्ले देखकर नींद की अगली किस्त पूरी करने की कोशिश करता था। अगर खबरों को बेहतर डिस्प्ले मिलता था तब भी मारे खुशी के चैन की नींद नहीं आती थी और अगर खबरों की हत्या (?) हो जाती थी तब तो नींद का सवाल ही नहीं था। बहरहाल सुबह से ही स्थानीय नेताओं और संगठन के उन लोगों के फोन आने लगते थे जो प्रेस नोट देकर गए थे। वे पूछते थे, भाई साहब, हमारी खबर नहीं लगी। खास खबरों के अलावा अब इन छोटी-छोटी खबरों को देख पाना व्यवहारिक रूप से संभव नहीं हो पाता था। कई बार मैं बिना देखे ही उनसे कहता था, अरे… गौर से देखिए जरूर लगी होगी। वे देखने के बाद फिर मुझसे कहते, सर, नहीं लगी है।

इसके बाद मैं मामला समझ जाता कि डेस्क के स्पेस मैनेजमेंट की वजह से हो सकता है कि खबर न लगी हो। इसके बाद मैं शिकायत करने वाले सज्जन से पूछता था, अखबार में कहीं खाली जगह है? वो थोड़ी देर अखबार देखकर और सोचकर कहा करते थे- नहीं। इसके बाद मैं तुरंत उनसे कहा करता था, अरे साहब… जब अखबार में जगह ही नहीं है तो खबर लगती कहां? जगह खत्म हो गई होगी सो नहीं लग पाई होगी- आज लग जाएगी। पत्रकारिता से जुड़े लोग तो इस प्रैक्टिकल प्राब्लेम और डेस्क की सीमाओं को समझते हैं पर वे संगठन वाले बड़ी शिद्दत से मेरे पूछने पर अखबार में खाली जगह खोजने लगते थे।


लेखक राजेश रंजन पिछले 13 वर्षों से सक्रिय पत्रकारिता के हिस्से हैं। उनका यह संस्मरण उनके ब्लाग यदा-कदा से साभार यहां प्रकाशित किया जा रहा है। राजेश से [email protected] के जरिए संपर्क किया जा सकता है।
Click to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

अपने मोबाइल पर भड़ास की खबरें पाएं. इसके लिए Telegram एप्प इंस्टाल कर यहां क्लिक करें : https://t.me/BhadasMedia

Advertisement

You May Also Like

Uncategorized

भड़ास4मीडिया डॉट कॉम तक अगर मीडिया जगत की कोई हलचल, सूचना, जानकारी पहुंचाना चाहते हैं तो आपका स्वागत है. इस पोर्टल के लिए भेजी...

Uncategorized

भड़ास4मीडिया का मकसद किसी भी मीडियाकर्मी या मीडिया संस्थान को नुकसान पहुंचाना कतई नहीं है। हम मीडिया के अंदर की गतिविधियों और हलचल-हालचाल को...

टीवी

विनोद कापड़ी-साक्षी जोशी की निजी तस्वीरें व निजी मेल इनकी मेल आईडी हैक करके पब्लिक डोमेन में डालने व प्रकाशित करने के प्रकरण में...

हलचल

[caption id="attachment_15260" align="alignleft"]बी4एम की मोबाइल सेवा की शुरुआत करते पत्रकार जरनैल सिंह.[/caption]मीडिया की खबरों का पर्याय बन चुका भड़ास4मीडिया (बी4एम) अब नए चरण में...

Advertisement