वरिष्ठ पत्रकार राजीव मित्तल अखबारी दुनिया की व्यस्तताओं में से समय चुराकर अभी हाल में ही बरमानघाट से बेलखाडूं तक की पैदल नर्मदा यात्रा करके लौटे हैं। वे इन दिनों हिंदुस्तान, लखनऊ में कार्यरत हैं। कई अखबारों में संपादक रह चुके राजीव मित्तल दिखने और बात करने में जितने शांत हैं, उनके लेखन के तेवर उतने ही पैने हैं। जानवरों से खास लगाव रखने वाले राजीव के भारतीय संस्कृति पर कई लेख ‘पहल’ में छपे हैं। अखवारों में भी काफी कुछ लिखा है। बिहार का बाढनामा, मिश्र के पिरामिड एवं बिहार की सड़कें, चिड़िया घर में नवजागरण, चित्रकूटधाम के नजरिए से देखना गर्लफ्रेंड जैसे कई चर्चित और विवादित लेख लिखने वाले मित्तल ने नर्मदा यात्रा से लौटने के बाद भड़ास4मीडिया से कई मुद्दों पर बातचीत की।
पेश है बातचीत के अंश :
-नर्मदा यात्रा में क्या खास लगा?
–पूरी नर्मदा ही खास है। उसकी कलकल ध्वनि, चट्टानों पर कूदना- इतराना, कभी वेग से तो कभी धीमे से मचलकर चलना। सबसे बड़ी बात तो यह है इसने मुझ जैसे शहरी संस्कृति में पले-बढ़े जीव को 70 किलोमीटर अपने किनारे घूमने का मौका दिया।
-यात्रा के पांच दिन कैसे रहे?
–बहुत मजेदार, इसे बोल कर नहीं बताया जा सकता। मैं तो सुबह से शाम तक घूमता था। जब थक कर चूर हो जाता तो नर्मदा के गीले कगारों पर चित लेट जाता। बिना किसी बिछावन, यहां तक की बिना चादर के ही। जितनी बार मर्जी होती, डुबकी लगा लेता। एक बात खटकी। नर्मदा के किनारे कितनी ठंढ पड़ती है पर इस बार ग्लोबल वार्मिंग का ही असर समझिए वहां वैसी ठंड नहीं थी। रात को भी नहीं। मैं फिर इस यात्रा पर आउंगा।
-क्या नर्मदा परिक्रमा के बाद नर्मदा पर कुछ लिखने की तैयारी की है?
–नहीं, नर्मदा पर मैं कुछ नहीं लिखना चाहता। अमृत लाल बेगड़ जी ने नर्मदा पर अद्वितीय लेखन किया है और लिखते सोचते, स्केच बनाते और परिक्रमा करते वे स्वयं नर्मदा हो गए हैं। हो सकता है, मैं उन पर ही कुछ लिख डालूं।
-क्या पत्रकारिता का स्तर गिरा है?
–पत्रकारिता का स्तर गिरा नहीं है बल्कि माहौल बदल गया है। आज का माहौल पत्रकार को पत्रकार नहीं बनने देता। पत्रकारिता आज धंधा है और माहौल अब सिखाता है इस फील्ड में आने के बाद धंधा कैसे करना है। कहीं भी वो बात नहीं रह गई है।
-इस स्थिति में नुकसान किसे है?
–सबको। चाहे वो समाज हो या स्वयं पत्रकारिता या पत्रकार ही हो। नुकासान तो होगा ही। पत्रकारिता अब वो चीज नहीं दे पा रही है।
-आज पत्रकारिता आम आदमी से कितनी दूर है?
–उतनी ही जितना आम आदमी से रोटी, कपड़ा और मकान दूर हो गया है।
-आज की पत्रकारिता में आम आदमी क्यों नहीं जगह पा रहा है?
–जगह कम या ज्यादा मिल जाती है। पर अब खबर के प्रति नजरिया बदल गया है। खबर आती है और चली जाती है। लोगों ने उस पर चौकना, ध्यान देना छोड़ दिया है। एक समय था जब खबरों पर एक्शन होता था। संबंधित लोग भी अपनी गलती मानते थे। नेता, मंत्री हो या प्रशासन, वो खबर के साथ रुकते थे। आरोपों को गंभीरता से लेते थे। अब तो दो घंटे बाद ही खबरें बासी हो जाती हैं। पहले जहां अखबार संजोने की चीज होते थे तो अब शाम को ही फेंकने वाले चीज हो गए हैं। कोई रखता भी है तो रद्दी के बतौर।
-आपने ब्लॉग शुरू किया था। फिर बंद क्यों कर दिया?
–मैं समझ नहीं पाता हूं कि आज लोग पढ़ना क्या चाहते हैं। यह फिल्म की तरह हो गया है जिसके बारे में समझ में नहीं आता कि जनता किसे स्वीकार करेगी और किसे नकार देगी। लोगों के मनमाफिक या जो उनको पसंद आए, वो लिखना लेखक का काम नहीं है। लेखक के लिए जरूरी है कि वो अपने प्रति ईमानदार हो और मैं अपने प्रति ईमानदार हूं।
-आपके कई लेख भारतीय संस्कृति विरोधी भी हैं?
–भारतीय संस्कृति को लेकर एक प्रकार की भेड़चाल चली जा रही है। लोग उसके पीछे चल रहे हैं। उसकी आस्था को खींचा जा रहा है। यह एक कटी हुई पतंग है। लोग उसे खींच रहे हैं। मैं वैसा नहीं कर रहा हूं। बस।
-तो फिर भारतीय संस्कृति क्या है?
–आज के हिसाब को देखकर कहें तो यह मिली जुली चटनी-अचार है जिसके मसालों की जानकारी नहीं है। बस स्वाद बड़ा चटपटा आता है- आस्था, मोह, माया, कर्मकाण्ड, क्या करने और न करने की लिस्ट। सब कुछ मिलाकर, यह समझ से बाहर की चीज। इसका मूल स्वरूप लोग भूल चुके हैं। उसके व्यापक आधार में समाज, प्रकृति, दर्शन, उल्लास, खुशी सब कुछ समाहित थी लेकिन बुध के जन्म के आस-पास उसका रूप काफी कुछ बदल गया और वह एक प्रकार का मंत्रोच्चार हो कर रह गया। रोज सुबह-सुबह जिसे नहीं रटने पर आप पाप के घेरे में आ जायेंगे।
-क्या आप इसके लुप्त स्वरूप की खोज करेंगे?
-नहीं, ये मेरा काम नहीं है। अपने देश में गजब रिवाज है। यहां तो नदियां सड़ जाएं, परवाह नहीं। कचरा डालो और वहां बैठकर साबुन मलो। यही परंपरा है। मैं तो बस तमाशा देखूंगा।
-अपनी पसंद के बारे में बताएं।
-ऐसा कुछ खास नहीं है। पर मुझे जानवरों का साथ पसंद है। मेरा कुत्ते-बिल्ली का प्रेम देखकर सब आश्चर्य करते हैं। मुझे पढ़ने और गाने सुनने का भी शौक है। मेरे पास पुराने गानों के काफी कलेक्शन हैं। आफिस हो या घर, हर जगह गाने सुनता हूं।
-कौन सी किताबें हैं आपकी फेवरिट के लिस्ट में?
–पढ़ने का शौकीन हर किसी को होना चाहिए। मुझे अपराध और दण्ड, कुप्रीन की कहानियां, आण्यक, रेणु का पूरा साहित्य, मंटो का पूरा साहित्य पसंद है।
-मंटो का साहित्य क्यों पसंद?
–मंटो की कहानियां समाज को उघेरने वाली हैं। समाज का जो नंगापन दबा-छिपा होता है, उसे मंटो ने बाहर कर दिया। सारी जलालत, कांइयापन और कड़वी सच्चाई उसने सबके सामने रखी। इसलिए उसे आलोचना का शिकार होना पड़ा।
-कुछ नया कर रहे हैं?
–नहीं, अभी तो मैं बैठ कर देख रहा हूं।
pawan kumar bansal rohtak
February 7, 2010 at 8:05 am
rajiv 1987 ke jansatta chanidgrh ke din yad aa gaye . me aajkal rohtak me ho.
maitreyee
February 23, 2010 at 8:52 am
🙂 sadho deko jag baurana. saach kahe to maran dhave joothe jag patiyana. kitni bidambana hai ki uche padon par baithe log napunsak ho gaye hain. Jab rajeev jee jaise log ki yah halat hai to journalism mein koora-kachra bharega hee.isliye mittal jee aaj ke date mein kahi kho gaye hai.
mahandra singh
April 9, 2010 at 2:23 am
namsakar rajiv ji
jansatta yad aata hai kya. agar aata hai too e mail ka jawab dena.
फुटेला
May 20, 2010 at 5:49 am
ख़ुशी हुई ये जान कर कि कभी डेस्क को तबले की तरह बजाने वालों के भी अब इंटरव्यू छपने लगे हैं.तेरा एहसानमंद हूँ ‘मुरारीलाल’ कि तूने कई दिन अपने घर में रखा,डेस्क से हमेशा सपोर्ट किया.सच,तू नहीं होता तो न मैं जाता आतंक की उस भयावह काली रात में चालीस हत्याओं का सच जानने,न बैनर छपता,न सुबह दस बजे फिर दस हज़ार अखबार और न जनसत्ता के ज़रिये हम बता पाते कि पंजाब में तब हर पल मंडराती मौत के बीच बेख़ौफ़ पत्रकारिता क्या होती है.मुझे उम्मीद है तुम जहां भी हो काम निबटा के आज भी मेज़ को तबला बनाते होगे,मस्त और रचनात्मक कामों में व्यस्त.
ankit chauhan
June 28, 2010 at 1:31 pm
sir, namaskar
bahut din baad aapka photo dekha aur aapka interview padha. Bahut achha laga. kyonki meerut hindustan chodne ke baad kabhi baat hi nahi ho saki.