कोरबा और वहां हुई हादसे की लाइव कवरेज करने मैं रायपुर से यहां पहुँचा. यहां हुई औद्योगिक त्रासदी एक बार फिर भोपाल गैस त्रासदी की याद दिला गई. लेकिन इस त्रासदी ने मेरे अन्तर्मन को झकझोर कर रख दिया. यहां मीडिया के खिलाफ पहले ही तानाबाना बुना जा चुका था. कुछ मजदूरों के मॉब को मीडिया के खिलाफ भड़का कर मीडिया पर भी दबाव बनाने की कोशिश की गई. लेकिन मैं और मेरे साथ गए एक अन्य चैनल के वरिष्ठ पत्रकार ने उस मॉब को बखूबी संभाला. कहने को तो ये मजदूरों के हितैषी थे. लेकिन कहीं से भी इनके चेहरे पर हुई त्रासदी की खौफ नहीं दिख रही थी. यह वह ग्रुप था जो कंपनी प्रबंधन द्वारा तैयार करके घटनास्थल पर मीडिया के खिलाफ साजिश रचने की जुगत में जुटा हुआ था. ये बार-बार लाइव के समय कैमरे के पास आकर मीडिया को बरगलाने की कोशिश कर रहे थे. मना करने के बाद भी यह अनाप-सनाप बोलने से बाज नहीं आते. ऐसे में इन्हें संभाल पाना काफी मुश्किल था. लेकिन इन सबके बीच ऐसे माहौल में पूरे घटनाक्रम और सच्चाई को सामने लाने के लिए हमारी इच्छाशक्ति बढ़ती ही जा रही थी. हम एक के बाद एक यहां जारी खामियों को उजागर कर रहे थे. चाहे वह सरकार की लापरवाही हो. प्रशासन की लापरवाही. या फिर कंपनी प्रबंधन की लापरवाही. इन सबके बीच कुछ पत्रकार ऐसे भी थे जो चाटुकारिता की हद पार कर रहे थे.
इनका कहना था कि बाल्को हमें हर साल विज्ञापन के नाम पर मोटी रकम देता है, इसलिए हमें कंपनी के हित में भी बात करनी चाहिए. इन लोगों को थोड़ी भी झिझक नहीं हुई कि वे क्या बोल रहे हैं. मेरे एक सहयोगी पत्रकार का इस बारे में मत था कि जिसकी खा रहे हैं, उसी के बारे में जहर उगल रहे हो. मैं उस पत्रकार की इस बात को सुनकर दंग रह गया. विज्ञापन के नाम पर ये वे पत्रकार हैं जो कंपनियों के पास जाकर चाटुकारिता करते हैं लेकिन जब कंपनी में जारी अनियमिताओं को उजागर करने की बात होती है तो मोटी रकम खाकर बैठ जाते हैं. मैं इस हादसे के लिए वहां के स्थानीय पत्रकारों को भी दोषी मानता हूं जिन्होंने यहां जारी अनियमितताओं को उजागर नहीं किया. मसलन कोरबा नगर निगम द्वारा बाल्को प्रबंधन को कई बार नोटिस दिया जाना. यहां मौजूद एल्यूमीनियम कारखाने के अहाते से कंपनी ने 1200 मेगावॉट क्षमता वाले बिजली संयंत्र के लिए पहले भी एक चिमनी का निर्माण किया था, जो निर्माणाधीन चिमनी ध्वस्त हुई उसका निर्माण कंपनी स्थानीय नागरिक प्राघिकरण से आवश्यक अनुमति लिए बिना कर रही थी. कंपनी ने दूसरी चिमनी के निर्माण के लिए कोरबा नगर निगम से आज्ञा नहीं ली थी. नियमों के उल्लंघन के खिलाफ बाल्को को कई बार नोटिस भी जारी किया गया था. हादसे के एक सप्ताह पहले केएमसी की टीम निर्माण स्थल पर गई थी और काम रुकवा दिया था. लेकिन कंपनी ने निर्माण का काम फिर से शुरू करा दिया. इस बात को मीडिया ने जोर-शोर से न तो उछाला ही और न ही प्रशासन को आगाह किया गया. इसके कारण यह बड़ी त्रासदी हुई.
आज की पत्रकारिता का विज्ञापन के साथ चोली-दामन का रिश्ता हो गया है. एक तरफ तो कोरबा प्लांट में लाशों के निकलने का सिलसिला जारी था. दूसरी तरफ इन लाशों के निकलने के भाव भी लग रहे थे. कहने का मतलब यह कि इसे मीडिया में कम से कम लाने की पुरजोर कोशिश की जा रही थी. वहीं कुछ मजदूरों को कंपनी प्रबंधन ने अपनी ओऱ मिलाकर उन्हें घटनास्थल पर तैनात कर रखा था, जो लगातार मीडिया पर दबाव बनाने की कोशिश कर रहे थे. लिहाजा इस पूरे घटनाक्रम ने यह साफ कर दिया है कि औद्यागिक घराने जब चाहे अपने मनमाफिक स्थितियों को निर्मित करने में कोई कसर नहीं छोड़ते. लोकतांत्रिक समाज में मीडिया वास्तव में एक सकारात्मक मंच होता. यह सबकी आवाज उठाने के साथ-साथ सच्चाई को पहुंचाने का जरिया है. ऐसे में मीडिया का भी कर्तव्य बन जाता है वह माध्यम का काम मुस्तैदी से करे न कि चाटुकारिता करके इस स्तंभ को हिलाने की कोशिश करे.
लेखक आर.के.गांधी बतौर रिपोर्टर साधना न्यूज, रायपुर में पदस्थ हैं.