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प्रभाषजी सच के साथ और मैं प्रभाषजी के साथ

सलीम अख्तर सिद्दीक़ीअब पत्रकारिता में खरी और सही बात कहने वाले पत्रकारों की बहुत कमी हो गयी है। कभी राजेन्द्र माथुर, अरुण शौरी, उदयन शर्मा, सच्चिदानंद सिन्हा, केवल वर्मा, रामबहादुर राय और प्रभाष जोशी द्वारा लिखी गई बातों के कुछ मायने हुआ करते थे। उनका लिखा राजनीति में भूचाल ला देता था। ये अलग बात है कि किस पत्रकार की क्या विचारधारा है, या वह किस राजनैतिक पार्टी के प्रति नरम रुख रखता है। लेकिन सबमें एक बात समान थी और वह यह है कि उन्होंने जनसरोकार के मुद्दों से कभी मुंह नहीं मोड़ा। इसलिए जनता को मीडिया से एक आस और उम्मीद रहती थी। हम जैसे लोगों ने भी इन्हीं लोगों को पढ़-पढ़कर थोड़ा बहुत लिखना सीखा है। अखबार मालिक भी पत्रकारों के काम में दखल अंदाजी नहीं करते थे। लेकिन उदारीकरण के बाद सब कुछ बदल गया है।

सलीम अख्तर सिद्दीक़ी

सलीम अख्तर सिद्दीक़ीअब पत्रकारिता में खरी और सही बात कहने वाले पत्रकारों की बहुत कमी हो गयी है। कभी राजेन्द्र माथुर, अरुण शौरी, उदयन शर्मा, सच्चिदानंद सिन्हा, केवल वर्मा, रामबहादुर राय और प्रभाष जोशी द्वारा लिखी गई बातों के कुछ मायने हुआ करते थे। उनका लिखा राजनीति में भूचाल ला देता था। ये अलग बात है कि किस पत्रकार की क्या विचारधारा है, या वह किस राजनैतिक पार्टी के प्रति नरम रुख रखता है। लेकिन सबमें एक बात समान थी और वह यह है कि उन्होंने जनसरोकार के मुद्दों से कभी मुंह नहीं मोड़ा। इसलिए जनता को मीडिया से एक आस और उम्मीद रहती थी। हम जैसे लोगों ने भी इन्हीं लोगों को पढ़-पढ़कर थोड़ा बहुत लिखना सीखा है। अखबार मालिक भी पत्रकारों के काम में दखल अंदाजी नहीं करते थे। लेकिन उदारीकरण के बाद सब कुछ बदल गया है।

अब पत्रकारिता मिशन नहीं, एक उद्योग बन चुका है। इसी परिवर्तन के चलते 2009 के लोकसभा चुनाव में देश की जनता ने मीडिया का एक ऐसा रूप देखा, जिसे देखकर कम से कम मुझे तो कंपकंपी आ गयी थी। खबर और विज्ञापन का भेद बिलकुल खत्म कर दिया गया। एक आम आदमी भी इस बात का अंदाजा लगा सकता था कि क्या खेल चल रहा है। जिस प्रत्याशी ने अखबारों को विज्ञापन दिए, उस प्रत्याशी के हक में धड़ल्ले से खबरें प्रकाशित की गयीं। मेरठ के आजाद मुस्लिम उम्मीदवार के खिलाफ मुसलमानों में ही इतना विरोध था कि उससे गली मुहल्लों की सभाओं में जनता ने मीडिया के सामने ही तल्ख सवाल किए, लेकिन मीडिया ने अगले दिन प्रत्याशी की सफल सभा की खबरें प्रकाशित कीं। वजह साफ थी, वह प्रत्याशी मेरठ के अखबारों को पूरे-पूरे पेज के विज्ञापन और अपने पक्ष में खबरें लिखने के लिए पैसा बहा रहा था। नतीजा ये हुआ कि जिस प्रत्याशी ने पैसा और विज्ञापन नहीं दिया, उसकी खबरें संक्षिप्त रुप से छाप कर ही इतिश्री कर ली गयी। ये अलग बात है कि मेरठ की जनता ने भी दिखा दिया कि केवल अखबार बाजी से चुनाव नहीं जीता जा सकता। पैसा बहाने वाले आजाद मुस्लिम उम्मीदवार की जमानत जब्त हुई और बहुत कम पैसे खर्च करने वाला उम्मीदवार जीत गया।

जाहिर है मीडिया का यह रुप पूरे देश में लोगों ने महसूस किया। लेकिन हैरत की बात ये है कि कहीं से कोई सुगबुहाट नहीं हुई। मैं प्रभाष जोशी जी की हिम्मत को दाद देना चाहूंगा, उन्होंने पूरी शिद्दत के साथ देश को यह बात बतायी कि कैसे अखबारों ने खबरें बेचकर काली कमाई की। अब यदि कोई प्रभाष जोशी जी पर किसी तरह का कोई आक्षेप लगा रहा है तो वह सही नहीं है। जैसे कि बी4एम पर लिखे अपने लेख में ब्रजेश सिंह ने जोशी जी पर कई आक्षेप लगाए हैं, यह सही नहीं है। अब ब्रजेश सिंह प्रभाष जोशी जी से अपने सवालों का जवाब चाहते हैं। उन्हें इस बात पर ऐतराज है कि उनके सवालों का जवाब आलोक तोमर, दयानंद पांडे और विनय बिहारी क्यों दे रहे हैं। ब्रजेश सिंह जी, यह जरूरी तो नहीं की प्रभाष जोशी किसी के सवालों का जवाब दे हीं। न ही ब्रजेश सिंह जी को इस बात पर ऐतराज होना चाहिए कि प्रभाष जोशी के सवालों के जवाब कोई और क्यों दे रहा है। जहां तक जनसत्ता की बात है, मैं आज भी कभी-कभी जनसत्ता पढ़ता हूं, उसका कंटेंट आज भी वही है, जो उसके शुरू होने के समय था। मैं जब कभी दिल्ली जाता हूं तो सबसे पहले जनसत्ता ही खरीदता हूं। हमारे मेरठ में तो यह अखबार अब न्यूज स्टैण्ड पर भी नहीं मिलता है। ठीक है। जनसत्ता वक्त के साथ नहीं बदला। अभी कुछ समय तक वह घटिया कागज पर काला सफेद ही छपता था, लेकिन अखबार की महत्ता उसके कागज और छपाई से नहीं, उसके कंटेंट से लगायी जाती है। हां, यदि वक्त के साथ बदलना, हीरोइनों की अंधनंगी तस्वीरें छापना है तो वाकई जनसत्ता बिल्कुल भी वक्त का साथ नहीं बदला है।

आलोक तोमर की बात करते हैं। आलोक जी की मेरी जान-पहचान सिर्फ इतनी है कि मैं उन्हें जनसत्ता के जमाने से लेकर उनके सम्पादन में निकली पाक्षिक पत्रिका ‘सीनियर इंडिया’ तक उनका पाठक रहा हूं।  चार-पांच बार फोन पर ही उनसे संक्षिप्त बातें हुईं हैं। रु-ब-रु आज तक नहीं मिला हूं। उनके सम्पादन में ‘सीनियर इंडिया’ के जितने भी अंक निकलें हैं, संजो कर रखने लायक हैं। अब ‘सीनियर इंडिया’ किस हालत में है, यह बताने की जरुरत नहीं हैं। आलोक तिहाड़ जेल किसी डकैती या बलात्कार के केस में नहीं गए थे।  उन्होंने ‘सीनियर इंडिया’ में हजरत मौहम्मद साहब के कार्टून के साथ एक कैप्शन भी छापा था, उस कैप्शन में ऐसा कुछ नहीं था, जिसकी वजह से उन्हें जेल जाना पड़ता लेकिन उन्हें इरादतन भेजा गया।

यह सब लिखने का मकसद किसी का विरोध या तरफदारी करना बिल्कुल नहीं है। मकसद सिर्फ मीडिया के गिरते चरित्र पर प्रभाष जोशी की चिंता का समर्थन करना है। इसमें दो राय नहीं कि मीडया आज अपना वह स्वरूप खोता जा रहा है, जिसके लिए वह जाना जाता रहा है। इस देश में सब कुछ बिकने लगा है। यदि मीडिया भी बिक जाएगा तो क्या बचेगा? आवाम किस के पास अपना दुखड़ा लेकर जाएगा? वैसे भी अब अखबारों के पहले पन्नों पर बच्चन परिवार या धोनी को जगह मिलती है। गरीबों, वंचितों, दलितों और अल्पसंख्यकों समस्याएं मीडिया की प्राथमिकता नहीं है। मकाउ में अमिताभ कैमरे से तस्वीर खींचते हैं तो वह पहले पेज की खबर बनती है। ब्रजेश सिंह का मकसद भले ही हंगामा खड़ा करना न हो, लेकिन हंगामा तो खड़ा हो ही गया है।

प्रभाष जोशी ने जो कुछ कहा है और वह शहर दर शहर जिस बात को उठा रहे हैं, उस बात का समर्थन किया ही जाना चाहिए।

प्रभाषजी सच के साथ हैं इसलिए निजी रूप से मैं तो प्रभाषजी के साथ हूं।


लेखक सलीम अख्तर सिद्दीक़ी सक्रिय ब्लागर और सुधी पाठक हैं। उनका पता है- 170, मलियाना, मेरठ । सलीम हिंदी ब्लाग ‘हक बात‘ के माडरेटर भी हैं। उनसे संपर्क 09837279840 या [email protected] This e-mail address is being protected from spambots. You need JavaScript enabled to view it के जरिए कर सकते हैं।
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