जमशेदपुर (टाटानगर) से दिल्ली आने के लिए भुवनेश्वर से दिल्ली आने वाली राजधानी एक्सप्रेस (2443ए) में मेरा कंफर्म आरक्षण था। शाम करीब चार बजे टाटानगर पहुंचने वाली ट्रेन के बारे में सुबह से ही पता करता रहा था और हमेशा यही बताया जाता रहा कि ट्रेन समय से चल रही थी। स्टेशन पहुंचा तो भी यही घोषणा सुनाई पड़ी लेकिन प्लैटफॉर्म की घोषणा होने से पहले यह एलान सुनाई पड़ा कि भुवनेश्वर-दिल्ली राजधानी आज टाटानगर नहीं आएगी।
दरअसल, पटरी पर किसी खराबी के कारण उसे दूसरे रास्ते से निकाल दिया गया था। जाहिर है भुवनेश्वर से दिल्ली आने वालों को सही समय पर दिल्ली पहुंचाने की कोशिश में कार्यकुशल रेलवे ने ऐसा किया। पर बीच के स्टेशनों पर छोड़ दिए गए यात्रियों की न तो तब कोई चिन्ता की और न टिकट के पैसे वापस लौटाने में ऐसी कोई कार्यकुशलता दिखाई। रीफंड हासिल करने के लिए रेलवे की भाषा में दाखिल किया जाने वाला टीडीआर 10 महीने पहले दाखिल किया गया था पर रीफंड का कोई अता-पता नहीं है। शुरू में तो कहा गया कि इसमें तीन महीने लगते हैं पर जब तीन महीने निकल गए तो कुछ और समय लगने की बात कही गई। फिर संबंधित रेलवे से रीफंड न आने और इसके बाद रीमाइंडर भेजने की बात कही गई। 10 महीने पूरे हो चुके हैं अब कहा जाता है कि कोई सूचना नहीं है। रेलवे अब इस संबध में भेजे जाने वाले मेल का जवाब देने की भी जरूरत नहीं समझता है। इंटरनेट पर इन बातों को कनफर्म करने वाला 29 मई 2010 को रात 11 बजकर 16 मिनट का स्क्रीन शॉट मेरे पास है।
टाटानगर स्टेशन पर राजधानी एक्सप्रेस का मार्ग बदल दिए जाने की घोषणा खुद सुनने के बाद भी इस पर यकीन नहीं हुआ था क्योंकि इलेक्ट्रॉनिक डिसप्ले लगातार यही बता रहा था कि ट्रेन सही समय से चल रही है। इंटरनेट पर भी यही दिखाया जा रहा था। फिर, राजधानी एक्सप्रेस कोई साइकिल तो है नहीं कि सड़क पर दूसरी गाड़ी खड़ी थी तो पटरी पर चढ़ा दिया और आगे निकाल ले गए। पर उस दिन यही हुआ। धीरे-धीरे ट्रेन आने और जाने का समय निकल गया तो लोगों को यकीन करना पड़ा कि राजधानी एक्सप्रेस को रेलवे वाले डीटीसी की बस की तरह सवारियों को छोड़कर भगाते चले गए। राजधानी एक्सप्रेस जैसी ट्रेन का रूट जितनी तेजी से बदला उतनी तेजी से बाकी कोई काम नहीं हुआ।
इसीलिए, उस दिन टाटा नगर स्टेशन पर जब लोग रेल अधिकारियों को घेर कर तरह-तरह की मांग कर रहे थे और इसमें कोलकाता से दिल्ली का हवाई जहाज का किराया भी शामिल था – तो मैंने पटना की ट्रेन पकड़ी और करीब 6000 रुपए फालतू फूंककर फ्लाइट से दिल्ली पहुंच गया। रेलवे के नियमों के तहत ऐसी स्थिति में यात्रियों को कोई हर्जाना देने का प्रावधान नहीं है पर बगैर किसी कटौती के टिकट का पैसा वापस देने के अपने नियम का पालन भी रेलवे नहीं कर रहा है।
जिस राजधानी एक्सप्रेस का रूट बदलने में रेलवे को नौ मिनट नहीं लगे, उसी रेलवे को टाटानगर स्टेशन पर पबलिक ऐड्रेस सिस्टम के जरिए प्रभावित यात्रियों से खेद प्रकट करने की भी आवश्यकता नहीं महसूस हुई। उन्हें न तो इसका कारण बताया गया और न यात्रियों के लिए उपलब्ध विकल्प की कोई जानकारी दी गई। सुना है, राजधानी के बाद दिल्ली आने वाली ट्रेन में एक अतिरिक्त कोच लगाया गया था और अगर यह ट्रेन सही समय से चली होगी तो भी यात्रियों को दिल्ली पहुंचने में कम से कम 10 घंटे ज्यादा लग गए होंगे। इस तरह, यह स्पष्ट है कि भारतीय रेल को न तो अपने सैकड़ों यात्रियों के 10 घंटे के महत्त्व की परवाह है और न पैसे फंसाए रखने में कोई शर्म।
उस दिन (मंगलवार, 22 जुलाई 2009) टाटानगर और बोकारो में कनफर्म आरक्षण वाले यात्रियों को छोड़कर भुवनेश्वर राजधानी दूसरे रास्ते से भले ही समयानुसार गंतव्य को भेज दी गई पर इस कार्यकुशलता का लाभ क्या हुआ। खाली ट्रेन समय से चले इसका क्या मतलब। इससे भी महत्त्वपूर्ण सवाल यह है कि जिस रेलवे को ट्रेन रद्द किए जाने या रूट बदले जाने के बाद यात्रियों का जायज पैसा बगैर किसी हर्जाने के देने में 90 दिन लगते हैं वह राजधानी जैसी ट्रेन का रूट कैसे इतनी जल्दी बदल सकता है। कहीं ऐसा तो नहीं है कि राजधानी को समय से चलाने के लिए नालायक और निकम्मे अधिकारियों को जरूरत से ज्यादा अधिकार दे दिए गए हैं। और इन्हें न तो यात्रियों की चिन्ता है न रेलवे के राजस्व या साख की।
अगर राजधानी जैसी ट्रेन को समय से चलाना इतना ही महत्त्वपूर्ण है कि उसके लिए बीच के स्टेशन के यात्रियों की परवाह ही न की जाए तो उन्हें परेशानी होने की स्थिति में अच्छा-खासा हर्जाना देने का भी प्रावधान होना चाहिए। आखिर ऐसे यात्री समय से पहुंचने के लिए ही तो ज्यादा पैसे देकर आरक्षण कराते हैं। यह नहीं हो सकता कि ट्रेन समय से चलाने के लिए खाली दौड़ा कर ले जाई जाए।
लेखक संजय कुमार सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं.
Comments on “रेलवे की कार्यकुशलता और निकम्मापन एक साथ!”
It seems that Since Mr. Sanjay Kumar Singh has brought a Rajdhani Ticket which is an travel mode of the elite class, so he is making such a fuss.
Is it the first time such an incident happened for Railways. But since now the victim is from elite class, so he is making so much fuss.
But if Mr. Sanjay Kumar Singh would have been a Railway officer, what he would have done?
Sir,
I am also following up on the certain issues with Indian Railways but there is no response from there and the only thing is to approach a railway minister for the same because all the railway board members are not taking any intrest and they should know improve the services like train schedule,maintanace, and cleanness.
I will send you the other informations if I have.
Regards,
Udar Shankar
भारतीय रेल भले ही देश का सबसे बड़ा उपक्रम है लेकिन यहां ऐसे अधिकारियों की कमी बराबर बनी है जो जनता से जुड़े सरोकारों की बखूबी समक्ष रखते हैं। पटरी पर ट्रेन दौड़ाना और गुणवत्तापूर्ण सेवा देना दोनों अलग-अलग बातें हैं। वर्तमान में ऐसा लगता है कि यहां तैनात अधिकारी कर्मचारी विभाग के असल उद्देश्यों को भूल चुके हैं।
Main bhi aisi hi pareshanion se jujh raha hun. Mere parijano ka Train no. 2277 se 23 March ko Dhanbad se Lucknow ka ticket tha. Gaya-Mughalsarai route par accident hone se us train ko Main line via Asansol, Patna, Mughalsarai se divert kar diya gaya. Chunki Internet reservation tha isliye 24 March ko railway ke website par TDR file ki. waha se ek refrence no. mil gaya. Roj mai website khol dekhta hun ki refund clear hua ya nahi. TDR history me show kar raha hai ki your request forworded to railway on April 5, 2010. Abhi ek mamla Samsatipur & Sonpur division ka aaya tha ki kaise rail ke kuchh logo ne farzi tarike se train cancel kar Railway ko lakho ka ghotala kiya. Maje ki baat hai ke genuine case me refund mahino latkane wala railway in case me kaise tatkal refund de de raha hai.
रेलवे की कार्यकुशलता ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस के हादसे में भी दिखी. राहत कार्य पहुंचने में देरी और अन्य खामियां एक बार फिर उजागर हुईं. संजय जी के साथ हुई घटना रेलवे की कामचलाऊ प्रवृति दिखाती है. मैं जमशदेपुर के मीडिया से जुड़े होने के कारण उनका नंबर चाहूंगा. ताकि इसे यहां के अधिकारियों केŸ समक्ष उठाया जा सके.
अंग्रेजी में लिखे अभिजीत सान्याल के पत्र में बॉट की जगह ब्रॉट लिखा है। ऐसे में मैं यह तय नहीं कर पा रहा हूं कि उन्होंने जो लिखा है वही कहना चाहते हैं या कुछ और। पर उनके लिखे का जो मतलब मुझे समझ में आ रहा है उसके हिसाब से उन्होंने पूछा है कि 1) क्या रेलवे के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है – अगर उनका तात्पर्य टिकट के पैसे वापस न मिलने से है तो मैं निश्चित होकर कह सकता हूं कि टिकट लौटाने पर रेलवे से पैसे मिल जाते रहे हैं। 2) अगर उनका मतलब ट्रेन का मार्ग अचानक बदल दिए जाने से है तो उन्हें बताना चाहता हूं कि 46 साल की जिन्दगी में मेरे साथ ऐसा पहली बार हुआ है, राजधानी या पैसेन्जर ट्रेन सब मिलाकर।
मुझे एलीट क्लास का पीड़ित मानने के लिए आभार पर उनकी जानकारी के लिए बता दूं कि पिछले आठ साल से बेरोजगार हूं, रोज कमाता खाता हूं और चूंकि छुट्टी पर रहने से पैसे कट जाते हैं, ग्राहक नाराज होते हैं इसलिए कोशिश करता हूं कि काम पर तैनात रहूं। इसीलिए मेहनत की कमाई के 6000 रुपए हवाई टिकट पर फूंकने का अफसोस है। अंग्रेजी के फस्स शब्द से सान्याल साब का अभिप्राय चाहे जो हो, मुझे नहीं लगता कि मैंने कुछ अनुचित किया है, 10 महीने इंतजार कर चुका हूं मेरे भाई।
3) अगर मैं रेलवे अफसर होता तो तत्काल (जितनी जल्दी संभव होता) यात्रियों के टिकट के पैसे वापस करने का बंदोबस्त करता और उन्हें हुई असुविधा के लिए कम से कम खेद तो प्रकट करता ही और कोशिश करता कि पैसे वापस करने का जो भी समय दूं उसका पालन किया जाए। कोई पूछताछ हो तो जवाब दिया जाए। रूट अचानक बदलने के बारे में मैं कुछ नहीं कह सकता क्योंकि मुझे इसका कोई व्यावहारिक अनुभव नहीं है। सान्याल साब, रेलवे के कुछ अनजाने बाबुओं की नालायकी पर लिखने से आप क्यों नाराज हो गए। आप कहीं इन्हीं मे से तो नहीं हैं?