व्यंग्य : सपना मुंआ एक ऐसी बला है, जिसे कोई भी देख सकता है। इस पर शुल्क नहीं लगता। कोई टैक्स नहीं लगता। किसी का बस नहीं चलता और कोई भी बड़ा से बड़ा शासक… भले ही वह तानाशाह ही क्यों न हो, सपना देखने से किसी को रोक नहीं सकता। मैनें भी सपना देखा… नहीं… पाल रखा है… इस देश का प्रधानमंत्री बनने का। आप इसे मुंगेरीलाल का हसीन सपना कह सकते हैं। आप मुझे भी मुंगेरीलाल कह सकते हैं। लेकिन इस देश के कतिपय नेताओं को आप क्या कहेंगे जो अचानक ही इस चुनाव में पीएम… पीएम… की हुआंस (सियार की बोली) भरने लगे हैं। चुनाव अभी हुआ नहीं। ऊंट किस करवट बैठेगा… मालूम नहीं। अपनी भी सीट निकलेगी की नहीं… पता नहीं।
लेकिन पीएम का मुंह बाये बैठे हैं। बड़ा ही अजीब मंजर है- सूत न कपास और जुलाहों में लट्ठम-लठास। निरहुआ जनता भी उनके हुंआस पर मुंह घुमा-घुमा कर हंस रही है। महज एक सदस्यीय राजनीतिक दल से लेकर सैकड़ा सांसद वाले दल-दल तक का मुखिया ‘प्रधानमंत्री’ की कुर्सी को एक हाथ की जीभ निकालकर लपलपा रहा है। उनकी जीभ से लार टपक रही है। नहीं…नहीं… बह रही है। प्रधानमंत्री की कुर्सी पर सब आशिक हुये जा रहे हैं और टूट पड़ने की फिराक मे हैं। गांव में कहावत है- ‘अबरा की मउगी-गांव भर की भउजी (कमजोर व्यक्ति की बीवी- पूरे गांव की भाभी), ठीक वही हाल हमारे पीएम की कुर्सी की हो गयी है। जिसे देखो… वही छेड़ना चाहता है। उसे हथियाना चाहता है। मैं भी हथियाना चाहता हूं। आप कह सकते हैं कि मै सनक गया हूं। चलो मान लिया कि मैं सनक गया हूं। लेकिन आप इन रंगीला सियारों को क्या कहेंगे?
रंगीला सियार वाली कहानी तो आपने सुनी है न… जो भागते-भागते धोबी की नील की नांद में गिर गया था और अपना बदला हुआ रूप देखकर सनक गया था। जंगल का स्वयंभू राजा बन बैठा था। लेकिन बहुत दिनों तक वह अपनी हुंआस रोक न सका और भरी सभा में हुंआ-हुंआ कर बैठा। राजा की कुर्सी चरित्र नहीं बदल सकी थी।
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