कहां से शुरू करूं, कैसे शुरू करूं, समझ में नहीं आता… तुम्हारे बारे में सब अपनी व्यथा शब्दों में उकेर रहे हैं, लेकिन तुम्हारे बारे में लिखना और ये सोचकर लिखना कि तुम अब नहीं हो, चाहकर भी नहीं हो पा रहा है। फिर भी मैं चाहता हूं कि अब जब तुम नहीं हो, तुम्हारे बारे में कुछ लोग मेरे जरिए भी जानें….या यूं कहूं कि लोग तुम्हारे जरिए मुझे भी जानें…. मेरे अभिन्न भी ये जानें कि तुम मेरे लिए क्या थे…. लोग ये जानें कि मुझे कितना आश्चर्य हुआ था जब तुमने ये बताया था कि तुम मुझसे उम्र में कई वर्ष बड़े हो क्योंकि तुम्हें देखकर तो ऐसा अहसास बिल्कुल नहीं होता था। और यही वजह है कि मैं अपने से छोटा समझ तुम्हें – तुम कहने लगा था और फिर ये आदत बनी रह गई… चाहकर भी तुम, आप में तब्दील नहीं हो पाया और होती भी कैसे – रिश्तों में ‘तुम’ वाली गर्मी ‘आप’ में कहां! याद है शैलेंद्र, तुमने मुझे कैसे गले लगाया था जब मैंने कहा था कि मैं एक शैलेंद्र सिंह को जानता हूं जो जिंदगी को जानने का दावा करते हैं… तुमने पूछा कैसे? तो मेरा जवाब था- उनकी किताब के जरिए।
फिर तुमने तड़ से सवाल दागा- मिले हो कभी.. मैंने बोला नहीं, लेकिन मैं तुम्हें सुनाता हूं उनकी चार पंक्तियां, आप भी पढ़िए-
जिंदगी… निर्दोष तो कल की तरह मैं आज भी हूं
इस अधर से निकालो तो संभवतः कल भी रहूंगा
जानता हूं जिंदगी…निर्दोष होना सबसे बड़ा दोष है
पर मैं क्या करूं मेरी तो नियति ही यही है
फिर मैंने बोला था- किसी को जानने के लिए उसकी लेखनी को जानिये, सब जान जाएंगे। तुमने मुझे गले लगाया तब मुझे एहसास हुआ कि पिछले छह महीने से हम इतने करीब क्यों आए। तुम्हारी “जानता हूं जिंदगी” इसकी एक कड़ी थी। शैलेंद्र की पहली किताब ‘जानता हूं जिंदगी’ दरियागंज के संडे मार्केट से मैंने 1996 में खरीदी थी, लेकिन भाई से पहली मुलाकात उसके तीन साल बाद हुई। सच कहूं, शैलेंद्र तुम जिंदगी के बारे में कुछ नहीं जानते थे, सिर्फ जानने का दावा करते थे। अगर जानते होते तो जाने के लिए इतनी जल्दी नहीं करते। जैसे- जैसे जिम्मेदारी बढ़ रही थी, वैसे-वैसे तुम नाबालिग हो रहे थे। जब कभी हम साथ होते तो तुम खिलंदड़पन से बाज नहीं आते… भाभी की मौजूदगी में किसी अनजान से भी फ्लर्ट करना नहीं भूलते… और ये सब मुझे जब अच्छा नहीं लगता तो तुम्हारा एक ही डायलाग – गीता पढ़ो—। वैसे भी हमारी-तुम्हारी मुलाकात के पहले छह महीने तक मुझे तुम कम पढ़ा-लिखा टीवी पत्रकार समझते रहे— धीरे-धीरे जब मैं तुमसे कविता की भाषा में बात करता तो तुम मुझे अपने करीब पाते….. तुम बेचैन रहते थे…. कम समय में बहुत कुछ करना चाहते थे.. और यही बेचैनी मुझमें देख तुम्हें थोड़ी संतुष्टि भी मिलती।
आज मैं ये कह सकता हूं कि तुम्हें जानने का दावा कोई चाहे कितना भी करे लेकिन जान नहीं पाया..। अभी तो एक हफ्ता भी नहीं बीता था..जब तुमने ये कहा था, बड़े न्यूज डायरेक्टर हो गये हो, मिलने की फुर्सत नहीं है, फोन करने का टाइम नहीं है ….. सुधर जाओ नहीं तो बहुत मारूंगा…..। मैंने कहा- कुछ तो इज्जत करो यार, मेरा बेटा चार साल का हो गया है…। शैलेंद्र, मुझे वो इज्जत नहीं चाहिए…. मैं मार खाने को तैयार हूं, क्या तुम आओगे? नहीं न! तुम झूठे निकले….. पिछले कुछ महीनों से सिर्फ ऐसी ही बात करने के लिए मुझे फोन करते थे …… क्योंकि शायद ये बातें तुम सिर्फ मुझे ही कह पाते थे क्योंकि मैं तुम्हें इस हद तक बर्दाश्त करता था। तुम मुझपे इतना हक भी जताते थे लेकिन मेरी सुनते बहुत कम थे…..। इसी संडे को मिलने का वादा किया था तुमने…..लेकिन इस बार भी मेरी नहीं सुनी । तुम सुनना ही नहीं चाहते थे। तुमने सिर्फ अपनी करने की ठानी थी। ये जिद किसी को अच्छी नहीं लगी शैलेंद्र – न तुम्हारे दोस्तों को, न ही तुम्हारे विरोधियों को । अपनी हरकतों से हमारी रात काली करते और सुबह चाय पर हमारा गुस्सा भी झेलते और बड़े सहज होकर जब तुम ये कहते कि दोबारा ऐसा नहीं होगा तो मैं मन ही मन सोचता था कब तुमसे बदला लूं, ऐसे ही सारी रात परेशान करके।
मैं जब आजतक में नौकरी करता था तो साउथ दिल्ली में रहता था। भविष्य में भी उधर ही रहने की सोचता था लेकिन तुम मुझे अपने पास लेकर आए। तुम्हारी ही जिजिविषा थी कि मैंने 24 साल की उम्र में घर खरीदा…… । मुझे लगता है कि पिछले जन्म में तुम पर मेरा कुछ उधार था जो इस जन्म में न सिर्फ तुमने सूद समेत चुकाया बल्कि कुछ नया कर्ज चढ़ा गए, जो शायद ही मैं उतार पाउं। न तो तुम हमें अपने करीब लाते… न मेरी आँखों से “वो” (वो की कहानी फिर कभी) पर्दा हटाते जिसकी आड़ में मैं अपने पिछले कई सालों से जिए जा रहा था और न मैं जिन्दगी की इस राह पर चलता…जिसमें मेरे साथ कदम मिलाकर चलने वाली पत्नी और बहुत प्यार करने वाला बेटा मिला…। मेरी जिद और मेरी कुछ गलतियों से मुझे पांच साल बाद ही अपना घर बेचना पड़ा। तुम भी काफी दुखी हुए लेकिन हमेशा हौसला देते रहे…। आज जब मैं फिर अपने घर में रह रहा हूं तो तुम साथ छोड़ गये। तुम्हें याद है शैलेंद्र, जब मुझे…मुझे अपने घर में नींद नहीं आती थी…. अकेले डर (बावजूद इसके कि मैं अपने आपको दुनिया का सबसे निडर आदमी मानता हूं) लगता था…तुम मुझे जबरदस्ती अपने घर में सुलाते … ।
क्या-क्या कहूं शैलेंद्र और किससे कहूं, तुम्हें तो कोई फर्क पड़ता नहीं, उपर से मजे ले रहे होगे…। आप लोगों को बताऊं, इस बात पर अभी शैलेंद्र क्या कहता, कहता- सब साले गदहे हैं और तुम घोड़ा….सुधर जाओ…।
क्या क्या लिखूं… कहां खत्म करूं, समझ नहीं आता, शैलेंद्र … छोड़ो यार …..।
लेखक अनुरंजन झा ‘इंडिया न्यूज’ टीवी चैनल में डिप्टी डायरेक्टर (न्यूज) के पद पर कार्यरत हैं। अनुरंजन से संपर्क करने के लिए [email protected] का सहारा ले सकते हैं।