बी4एम पर ‘संपादक की सनक का शिकार हुए विशु प्रसाद‘ पढ़ा। इस खबर में विशु प्रसाद की बात करते-करते ऐसे लोगों का जिक्र किया गया है जो जागरण छोड़ चुके हैं। मुझे उस आदमी की बुद्धि पर तरस आता है जिसने संत शरण अवस्थी के कार्यकाल में जागरण छोड़ने वालों की यह लिस्ट दी। उसे नहीं पता कि हर एक संपादक के कार्यकाल में संस्थान छोड़ने वालों की ऐसी ही फेहरिस्त होती है। उसने ये कैसे सोच लिया कि अगर किसी ने संस्थान छोड़ा तो इसकी वजह केवल संपादक है। अगर अपनी बात कहूं तो मैं संत शरण जी का अहसानमंद हूं। मुझे यह इसलिए बताना पड़ रहा है कि उनके कार्यकाल में संस्थान छोड़ने वालों की जो लिस्ट दी गई है उसमें मेरा नाम भी शामिल है। संतू भैया ने एक तो मुझे रांची जैसी राजधानी में काम करने का मौका दिया जो मेरी जिंदगी की बड़ी उपलब्धि थी। दूसरा, सही मायनों में मैने पत्रकारिता के अपरिहार्य कार्यों को उन्हीं की छत्रछाया में सीखा। अगर वो न होते तो शायद मैंने पेजीनेशन को निकृष्ट काम समझकर सीखा नहीं होता।
मै क्या, संपादकीय के सभी संवाददाता भाई, आज गर्व से कहते हैं कि मुझे पेजीनेशन भी आता है। यह सब संत शरण जी की ही देन है। दैनिक जागरण, रांची में काम करने वाले अधिकतर लोग मानेंगे कि उन्हें आर्थिक समस्या से संत शरण जी ने ही उबारा। अखबार को 16 घंटे देने वाले संपादक बहुत कम होंगे। संत शरण जी उन कम संपादकों में शामिल हैं। हालांकि चार साल गुजर चुके लेकिन कुछ बातें मुझे आज भी याद हैं। उन्हें आंखों की बीमारी थी। एकदम लाल रहती थीं। डाक्टरों ने सलाह दी कि काम कम करिए नहीं तो बड़ी कीमत चुकानी होगी। लेकिन संतू भैया नहीं माने। लाल-लाल आंखें लिये देर रात तक काम करते थे। विधानसभा चुनावों का नतीजा आया। दोपहर में सभी अखबारों से पहले विशेष परिशिष्ट छपा। संतू भैया ने संवाददाताओं को कार में बिठाया और रास्ते भर हांक लगाकर अखबार बेचते नजर आये। उपेक्षित रहने वाले जूनियर्स को भी मौका दिया संतू भैया ने। वरिष्ठों ने दबी जुबान में विरोध भी किया लेकिन संतू भैया टस से मस न हुए। एक छोटी सी बात और याद है मुझे जो शायद उनके व्यक्तित्व के बारे में कुछ साफ कर सके। किसी गलती पर किसी संवाददाता को डांटा था। रात में जब पेज बन रहे थे तो वो धीरे से उसके पास आकर खड़े हो गये और गले में हाथ डालकर बोले- ”क्यां करूं यार, मजबूर हूं, अगर आंखे बंद करके सबको पालने में ही झुलाने लगूंगा तो अखबार कैसे निकलेगा।”
रही बात मेरे संस्थान छोड़ने की तो मैंने तो संस्थान इसलिए छोड़ा क्योंकि मुझे इलेक्ट्रानिक मीडिया में काम करने का बेहतर मौका मिल रहा था। मुझे ईटीवी में पूर्वांचल का प्रभारी बनाया जा रहा था और अपने घर से भी दूरी अपेक्षाकृत कम हो रही थी। मेरे सामने इससे अच्छा अवसर उस वक्त नहीं था। लिहाजा मैने जागरण छोड़ दिया। इसे चाहे कोई चमचागिरी कहे या कुछ और, मुझे ये कहने में कोई हिचक नहीं कि मै संतू भैया का आभारी हूं। अगर उनके सानिध्य में काम नहीं किया होता तो शायद पत्रकारिता में जो आत्मविश्वास मुझमे पैदा हुआ है वो आज नहीं होता।
लेखक शरद दीक्षित इन दिनों ईटीवी, वाराणसी के इंचार्ज हैं.