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जूता रे जूता, तेर रंग कितने…

शेखर आनंद त्रिवेदीव्यंग्य : जूता सहनशील होता है। वो सर्दी-गर्मी-बरसात के अलावा भी बहुत कुछ सहता है। शोरूम में किसी की पसंद, ना-पसंद सहता है। पुराना होने पर अपनों की उपेक्षा सहता है। किसी के शरीर का दबाव सहता है। राह की रोड़ी गिट्टी की रगड़ सहता है। पैर पटकती कुंठा सहता है। लोगों की भीड़ में जाने-अनजाने टकराव सहता है। जमाने भर के गर्दो-गुबार सहता है। मंदिर, मस्जिद, गिरजा, गुरद्वारे के बाहर अपने तिरस्कार को सहता है।

शेखर आनंद त्रिवेदी

शेखर आनंद त्रिवेदीव्यंग्य : जूता सहनशील होता है। वो सर्दी-गर्मी-बरसात के अलावा भी बहुत कुछ सहता है। शोरूम में किसी की पसंद, ना-पसंद सहता है। पुराना होने पर अपनों की उपेक्षा सहता है। किसी के शरीर का दबाव सहता है। राह की रोड़ी गिट्टी की रगड़ सहता है। पैर पटकती कुंठा सहता है। लोगों की भीड़ में जाने-अनजाने टकराव सहता है। जमाने भर के गर्दो-गुबार सहता है। मंदिर, मस्जिद, गिरजा, गुरद्वारे के बाहर अपने तिरस्कार को सहता है।

सब कुछ सहते सहते अगर जूता फट भी जाये तो भी वफादार रहता है। वो आखिर तक पैर में पड़ा रहता है। लेकिन अगर इंसान के सब्र का पैमाना छलक जाये तो वो जूता पैर से निकाल लेता है और बिना कुछ कहे सामने वाले को छील काट कर रख देता है। जूता सब कुछ जानता है। इसलिये आखिर तक ईमानदार बना रहता है। जूते को पता है कि उसकी जरूरत बेईमान और ईमानदार दोनो को है। इसलिये पैर किसी का भी हो, वो अपनी छाप छोड़ता चलता है। जूता ही नहीं, जूते के निशान भी इंसाफपसंद होते हैं। गुनहगार को गुनाह के बाद अपने ही जूते के निशान साफ करने होते हैं। जरा सी चूक गुनहगार को जेल की सलाखों के पीछे पहुंचा सकती है। देश आजाद है लेकिन जूता नहीं। वो अतीत के अपने ही निशान खुद नहीं मिटा सकता है इसलिये आजाद भारत में सीबीआई मौजूद है। जो जरुरत से ज्यादा स्वतंत्र नेताओं के जूतों के निशान साफ करती है।

दंगा चाहें चौरासी का हो, गोधरा या गुजरात का, राममंदिर का आंदोलन हो, या ताज का कारीडोर… जहां-जहां नेताओं के कदम पड़े, हर जगह सीबीआई को जूते के निशान मिटाने का जिम्मा मिला। निष्पक्ष का तमगा लिये सीबीआई केन्द्र सरकार के सापेक्ष ही काम करती है। कब, कहां, कैसे, किसका, कितना निशान मिटाना है, इसे केन्द्र की सरकार और काफी हद तक देश का गृहमंत्री आंकता रहता है। हिसाब-किताब में माहिर चिदम्बरम की गणित यहीं गड़बड़ा गयी। उम्र की एक दहलीज पर खड़ा जूता जानता था कि उसकी उम्र खत्म हो सकती है लेकिन अदालत में मामला नहीं। अपनी सफेद बनावट पर कुछ काले निशान लिये ये जूता बहुत खामोशी से पैर से निकला, हाथ से छूट कर हवा के रास्ते चिदम्बरम की तरफ खामोशी से लपका और गिरने के बाद भी खामोश है।

जूते की इसी खामोशी के पीछे बहुत बड़ा तूफान है। आम जनता के जस्बातों का तूफान। इंसाफ की डगर पर नाइंसाफी के डर का तूफान। जरूरत से ज्यादा स्वतंत्र नेताओं को सबक सिखाने का तूफान। सरकारी महकमों में दलालों के सफाये का तूफान। बदलाव के वक्त सिर्फ बदलाव का तूफान। बेहतर है कि सफेद कपड़ों में कालिख लिये चेहरे अब भी जूते की भाषा समझ लें। जूता सहनशील है इसलिये फिर मौका दे रहा है।


लेखक शेखर आनंद त्रिवेदी एस वन न्यूज चैनल में बतौर एंकर और प्रोड्यूसर कार्यरत हैं। लखनऊ निवासी शेखर पत्रकारिता में नौ साल से हैं। आल इंडिया रेडियो, लखनऊ से उदघोषक के रूप में करियर की शुरुआत की। टेलीवीजन पत्रकारिता की शुरुआत ईटीवी न्यूज हैदराबाद से। वर्ष 2007-08 में मीडिया फेडरेशन आफ इंडिया द्वारा बेस्ट एंकर आफ दि ईयर से सम्मानित। शेखर से संपर्क करन के लिए आप उन्हें [email protected] पर मेल भेज सकते हैं।
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