यशवंत जी, बी4एम पर एसपी से जुड़े कई लेख और कई लोगों के विचार को पढ़ गया. आपने जो यह लेख लिखा है, यह एक तरह की रिपोर्ट है, जिसे बैलेंस रखने की कोशिश की है. दरअसल सबसे बड़ी गरीबी यह है कि हम एसपी को याद करते हैं, लेकिन महज खुद की मार्केटिंग करने के लिए. जैसे खादी की ब्रांडिंग हो रही है और कोई भी नेता बनना चाहता है तो उसे पहन लेता है. एसपी भी आज की पत्रकारिता के खादी बन गये हैं, जिसे हर पत्रकार पहनना चाहता है, लेकिन जीना नहीं चाहता. क्या जिन लोगों ने काम उनके साथ काम किया है, वे उन्हें जी रहे हैं? या खुद के लिए पत्रकारिता का धंधा जोत रहे हैं. हो सकता है कि इनमें से कुछ लोगों को एसपी नापसंद भी करते रहे हों या कभी किसी बात पर कोई दिशा-निर्देश भी दिया हो, लेकिन इन मसलों पर सभी चुप रहे. जय गणेश और जय जगदीश की परंपरा में इस सभा का आयोजन हुआ. नये लोगों की बात आपने की है।
भाई साहब, यदि आपके पास कोई गॉडफादर नहीं है तो आप यहां सरवाइव नहीं कर सकते. जो लोग एसपी के साथ थे, क्या उन लोगों को काम देते वक्त एसपी ने खुद को गाडफादर माना था, नहीं ना. मुझे तो हैरत होती है कि ये बड़े नाम केबिन में बंद होते ही उल्टा क्यों सोचने लगते हैं. सभी मान्यताएं और विचार जैसे उड़ जाते हैं. बस फिर से वही चीजें हावी हो जाती हैं. लाखों की कमाई करने वाले चैनल हफ्ते में आधा घंटा भी क्या न्यूज पर काम करते हैं? कई नाम जो सभा में आये थे, उनके पास दिल्ली में करोड़ों की संपत्ति है. क्या पांच-दस साल के कैरियर में महज पत्रकारिता से यह संपत्ति संभव है? दलाली खाते हैं और गुलामी करते हैं. व्यभिचार तो खैर सरेआम है. यशवंत भाई, बात निकलेगी दो दूर तलक जायेगी…आपकी बात अच्छी लगी कि, ”आज एसपी को ये बड़े नामवाले पत्रकार कितना जीते हैं, मुझे पता नहीं, लेकिन छोटे पत्रकार अभी भी जीते हैं, बड़े बनने तक”.
आपका शुभेच्छु
प्रणव
yashwant ji, Badhayi, aapke lekh ne SP ko sacchi shradhanjali di hai.
chandan sharma