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दुख-दर्द

तुम्हारी नोकरिया तो सुरक्षित है न?

Uttama Dixitदैनिक हिंदुस्तान, वाराणसी के प्रमुख संवाददाता और वरिष्ठ पत्रकार सुशील त्रिपाठी जी के न रहने से मीडिया के लोगों के साथ-साथ कला जगत के साथियों को भी झटका लगा है। सुशील त्रिपाठी खुद एक उम्दा कलाकार थे। उत्तमा दीक्षित, जो एक आर्टिस्ट हैं और बनारस में बीएचयू में लेक्चरर हैं, ने अपने ब्लाग कला जगत में सुशील जी के बारे में कलाकार का अवसान शीर्षक से एक संस्मरणात्मक लेख लिखा है। उसे भड़ास4मीडिया के पाठकों के लिए साभार पेश किया जा रहा है-

Uttama Dixit

Uttama Dixitदैनिक हिंदुस्तान, वाराणसी के प्रमुख संवाददाता और वरिष्ठ पत्रकार सुशील त्रिपाठी जी के न रहने से मीडिया के लोगों के साथ-साथ कला जगत के साथियों को भी झटका लगा है। सुशील त्रिपाठी खुद एक उम्दा कलाकार थे। उत्तमा दीक्षित, जो एक आर्टिस्ट हैं और बनारस में बीएचयू में लेक्चरर हैं, ने अपने ब्लाग कला जगत में सुशील जी के बारे में कलाकार का अवसान शीर्षक से एक संस्मरणात्मक लेख लिखा है। उसे भड़ास4मीडिया के पाठकों के लिए साभार पेश किया जा रहा है-


सुशील त्रिपाठी नहीं रहे। यह खबर कलमकारों के लिए जितनी त्रासद है, उतनी ही कूंची के उस्तादों के लिए भी पीड़ादायी। यह विश्वास ही नहीं हो रहा कि वो अब हमारे बीच नहीं हैं। उनकी गंभीर चोट को ठीक हो जाने के लिए मैं चार दिन तक हॉस्पिटल में बदहवास हाल में उनके लिए प्रार्थना करती रही। बुरी खबर मिली तो सदमा सा लग गया। सुशील भइया की बातचीत का लहजा मुझमें जीवन्तता और उनका अलमस्त- फक्कड़ रवैया उर्जा भर देता था। वो मेरे पिता तुल्य थे। उन्होंने यहीं से फाइन आर्ट्स में महारथ पाई थी। सीनियर होने के नाते मैं उन्हें भइया कहने लगी।

बात जून 2005 की है। भइया राज्य ललित कला अकादमी के मेंबर और काशी की प्रदर्शनी के संयोजक थे। मैं आगरा में अकादमी के ग्रीष्म कालीन शिविर की संयोजक थी। उनसे बातचीत का सिलसिला कला आयोजनों में मुलाकातों से शुरू हुआ। उसी दौरान मुझे बनारस आना था। ट्रेन में किसी ने मेरा बैग चोरी कर लिया। इसमें जरुरी कागजात, मोबाइल फोन, लौटने का रेल टिकेट और सारे पैसे थे। मैंने एक पुलिस वाले के मोबाइल से फोन करके आगरा से भइया का नंबर लिया। भइया एक साथी पत्रकार के साथ तुरंत रेलवे स्टेशन पहुंच गए।

उन्हें देखते ही मैं रो पड़ी। वो बोले… पहले रो लो। रोने से तो वापस नहीं आएगा तुम्हारा बैग।

मैं अपना मोबाइल फोन खो जाने से सबसे ज्यादा दुखी थी। बहाना बनाकर बोली कि मेरे कॉलेज के जरूरी पेपर उसमें थे, इसलिए रो रही हूं।

हंसते हुए बोले- तुम्हारी नोकरिया तो सुरक्षित है न? वो तो बैग में नहीं चली गई?

उन्होंने मेरे लौटने का रेल टिकट बनवाया, फिर नाश्ता कराकर मुझे जरुरत के मुताबिक पैसे दिए। मैं अभिभूत थी। नवंबर 2007 में यहां आने के बाद मैंने भइया को हर कला गतिविधि में देखा। कला की हर गतिविधि में हिस्सा लेते पाया। वो कला से जुड़ी हर छोटी बात को भी बराबर अहमियत देते। हर कला आयोजन में जरूर पहुंचते।

भइया आपके बिना सारे आयोजन अधूरे लगेंगे। अब कौन आपकी तरह कला को परखेगा? यह समझ पाने में काफी वक्त लगेगा कि अब आप नहीं आयेंगे।


उत्तमा दीक्षित से उनकी मेल आईडी [email protected] के जरिए संपर्क किया जा सकता है।
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