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दुख-दर्द

”मन है कि मानने को तैयार ही नहीं”

vijay narayan singhभाई सुशील जी चले गए। विश्वास नहीं होता। दुर्घटना के ठीक एक दिन पहले ही रात में बात हुई थी। कैसे मान लूं? राकेश जी की एक किताब ‘भारत में अंग्रेजी राज’ के बारे में बात हुई थी। वे कह रहे थे आपके पास है और मैं कह रहा था कि आपके पास है। उन्होंने अपने अंदाज में मुझे कहा- अरे यार, अपने घरे में खोजा। बाद में तय हुआ कि दोनों अपने-अपने घरों में तलाशेंगे।

1981 में पहली बार मिला जब फाइऩ आर्ट्स में एडमिशन लिया।

vijay narayan singh

vijay narayan singhभाई सुशील जी चले गए। विश्वास नहीं होता। दुर्घटना के ठीक एक दिन पहले ही रात में बात हुई थी। कैसे मान लूं? राकेश जी की एक किताब ‘भारत में अंग्रेजी राज’ के बारे में बात हुई थी। वे कह रहे थे आपके पास है और मैं कह रहा था कि आपके पास है। उन्होंने अपने अंदाज में मुझे कहा- अरे यार, अपने घरे में खोजा। बाद में तय हुआ कि दोनों अपने-अपने घरों में तलाशेंगे।

1981 में पहली बार मिला जब फाइऩ आर्ट्स में एडमिशन लिया।

आज अखबार में जब वे काम कर रहे थे तब यूनिवर्सिटी में उनके कालम का इंतजार होता था। 1988 में मैं जब स्वतंत्र भारत से जुड़ा था तब जर्नलिज्म में वे मेरे आदर्श थे। मेरे लिए तो वह आचार्य थे। हिंदुस्तान की सिटी डेस्क पर मैं उन्हें इसी नाम से बुलाता था। सच यही है कि वे मेरे बड़े भाई थे। रघुवंशी क्षत्रियों पर कुछ काम कर रहे थे। रघुवंशी वंशावली उन्हें दी थी। राकेश सिंह से भी उन्होंने इस पर चर्चा की थी। घुरहूपुर और पूरे कैमूर रेंज पर काम करने के लिए मेरी उनसे लगातार बात होती थी। मैंने उन्हें 2004 में बताया था कि विंध्य रेंज और कैमूर रेंज की पहाड़ियां जियालाजिकल और ह्यूमेन सिविलाइजेशन पर काम करने के लिए काफी रिच हैं। इन पहाड़ियों में आदिम गुफाओं के साथ ही डायनासोर जैसे जानवारों के जीवाश्म पर भी हम लोग काम कर सकते हैं।

कैमूर की पहाड़ियां बिहार में गया और औरंगाबाद जिले की पहाड़ियों से मिलती हैं। गया के बांके बाजार के पास गुनेरी गांव है जहां बड़े पैमाने पर मूर्तियां बनाई गईं थीं। यह सुनकर वे काफी उत्साहित हुए। मैंने उन्हें यह भी बताया कि जंगलों में ऐसी तमाम गुफाएं हैं जहां बौद्ध भिक्षु चतुर्मास करते थे। घुरहूपुर की गुफा भी ऐसी ही थी। शायद वे इस काम को जल्दी निपटाने का लोभ नहीं रोक पाए और मेरा यह दुर्भाग्य रहा कि अब इस विषय पर काम करने के लिए उनका साथ नहीं रहा। खाली समय में उनके साथ बातचीत का विषय कुछ नया खोजने का ही रहता था। हमने बातचीत की कि समय निकालकर इस पर काम किया जाए। पर दुर्भाग्य कि अखबार में काम करते हुए लंबी छुट्टी नहीं मिल पाई। फिर भी सुशील जी के साथ काम करने का प्लान चलता रहा कि कभी तो छुट्टी मिलेगी और वे हमेशा के लिए अकेले ही छुट्टी पर चले गए।

अब तो सिर्फ यादें ही रह गई हैं। पर मन है कि मानने को तैयार ही नहीं है। बातचीत में दिवाली पर बनारस में मिलने की बात हुई थी। पर ईश्वर को शायद हमारा मिलना मंजूर नहीं था। वे एक अच्छे पत्रकार के साथ चित्रकार भी थे। उनका जीवन संघर्षों भरा रहा। कभी किसी से कुछ नहीं लिया। उनको मेरा शत शत नमन।

आमीन।


लेखक विजय नारायण सिंह आई-नेक्स्ट, आगरा के एडीटोरियल हेड हैं। उनसे [email protected] के जरिए संपर्क किया जा सकता है।

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