विश्वास नहीं हो रहा कि भाई साहब नहीं रहे। बड़ा मनहूस क्षण था जब घर आकर कंप्यूटर खोला और भड़ास4मीडिया से उनके न रहने की खबर पता चली। अचानक सब याद आने लगा। भाई साहब का चेहरा, बोलने-बहस करने की उनकी शैली। जब वो इलाहाबाद में थे तो किसी कार्यक्रम या चर्चा-परिचर्चा में अपने विचार दृढता से रखते। बहस में माहौल बोझिल होने लगता तो उसे सहज बनाने के लिए अपने अंदाज में बोलते- …अमे यार छोड़ा, कहां फालतू में….जाए देव, का करबो…।
उनको सुनने का मौका मुझे कभी-कभी मिल जाता था। इलाहाबाद मेरी जन्म और कर्म भूमि रही है। हिंदुस्तान टाइम्स, इलाहाबाद ब्यूरो में 1998 से 2004 तक रिपोर्टिंग में रहा। जब वो बनारस से इलाहाबाद आते तो मुलाकात हो जाती थी। मैं उनसे अक्सर मोबाइल पर बात करता और कुछ न कुछ उनसे सीखता। सुझाव और सलाह लेता। संगम किनारे लगने वाले माघ मेले की 9-10 साल तक रिपोर्टिंग के बाद मैंने किताब लिखने की योजना बनाई। सुशील भाई साहब से इसकी चर्चा की। उन्हीं दिनों वे बनारस के मठों-आश्रमों पर एक स्टोरी की सिरीज चला रहे थे। शायद 14 या इससे ज्यादा दिन लगातार सुशील भाई साहब की बाइलाइन के साथ यह सिरीज छपी। इस सिरीज को चलाने के लिए उन्होंने काफी छानबीन की थी। मैंने एक बार फोन पर उनसे कहा कि आप मुझे बनारस के साधु संतों से मिलवा दें, ताकि किताब लिखने के काम को बढ़ाया जा सके। तब वे कहते- अमें राजेश, एक बार तुम बनारस आए जाओ फिर सब काम होए जाई।
उनकी बोली में मुझे हमेशा एक अपनत्व, प्यार और स्पष्टवादिता लगी।
ये दुर्भाग्य रहा कि सुशील भाई साहब से बनारस जाकर मिलने की इच्छा केवल इच्छा ही रह गई। सिर्फ फोन पर बातें होती रहीं। अभी तो विश्वास ही नहीं हो रहा है कि भाई साहब नहीं रहे। उनका वो चेहरा याद आता है जब वह अपने चश्में को माथे के उपर चढ़ा लेते और सिगरेट पीते हुए बात करते। वो हमेशा कुछ नया करने के बारे में सोचते रहते थे। जरूर उनकी कोई योजना, काम या इच्छा बाकी रह गई होगी, क्योंकि वो कभी खाली नहीं बैठने वालों में से थे।
परमपिता परमेश्वर उनकी आत्मा को शांति दे।
लेखक राजेश पाठक भोपाल में पत्रकार हैं। उनसे उनकी मेल आईडी [email protected] के जरिए संपर्क किया जा सकता है।