: दयानंद पांडेय के उपन्यास ‘वे जो हारे हुए’ की समीक्षा : कहानी शुरू होती है अस्पताल से. अस्पताल पहुँची है साल डेढ़ साल की ठुमक ठुमक चलने वाली बच्ची जिस ने अभी अभी चलना सीखा था और पड़ोसी के घर के बाहर कपड़े धोने के लिए रखे खौलते पानी के टब में बैठ कर जल गई थी. छोटे शहर के प्राइवेट क्लीनिक में जले का इलाज करने की कोई सुविधा नहीं थी.
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अरविंद कुमार हिंदी अकादमी श्लाका सम्मान से सम्मानित
: बाल श्रमिक से शब्दाचार्य तक की यात्रा : हम नींव के पत्थर हैं तराशे नहीं जाते। सचमुच अरविंद कुमार नाम की धूम हिंदी जगत में उस तरह नहीं है जिस तरह होनी चाहिए। लेकिन काम उन्होंने कई बड़े-बड़े किए हैं। हिंदी जगत के लोगों को उन का कृतज्ञ होना चाहिए। दरअसल अरविंद कुमार ने हिंदी थिसारस की रचना कर हिंदी को जो मान दिलाया है, विश्व की श्रेष्ठ भाषाओं के समकक्ष ला कर खड़ा किया है, वह न सिर्फ़ अद्भुत है बल्कि स्तुत्य भी है।
हिंदी रुकने वाली नहीं है
: बूढ़ी होती दुनिया में युवाओं का देश है भारत :हिंदी के उग्रवादी समर्थक बेचैन हैं कि आज भी इंग्लिश का प्रयोग सरकार में और व्यवसाय में लगभग सर्वव्यापी है। वे चाहते हैं कि इंग्लिश का प्रयोग बंद कर के हिंदी को सरकारी कामकाज की एकमात्र भाषा तत्काल बना दिया जाए। उनकी उतावली समझ में आती है, लेकिन यहां यह याद दिलाने की ज़रूरत है कि एक समय ऐसा भी था जब दक्षिण भारत के कुछ राज्य, विशेषकर तमिलनाडु, हिंदी की ऐसी उग्र मांगों के जवाब में भारत से अलग होकर अपना स्वतंत्र देश बनाने को तैयार थे।