[caption id="attachment_15740" align="alignleft"]यशवंत सिंह[/caption]दारूबाजी पर बात हो और मैं न लिखूं, ये भला कैसे हो सकता है। मेरे जीवन में अब जो दो-तीन चीजें बेहद करीब-अजीज हैं, उसमें एक मदिरा भी है। जो बहस शुरू हुई, उसमें सागर साहब और राजेश ने शानदार लिखा। उनका लिखा पढ़ कई बार हंसा, मुस्काया और खुश हुआ। कितने सहज-सरल ढंग से अपनी भावनाओं का इजहार कर लेते हैं ये लोग। दारू की बात चली है तो मुझे याद आ रहे हैं एक संपादक मित्र। उन्हें बताया था कि मैंने छोड़ रखी है। छोड़ने के भावावेग में उनसे भी अपील कर बैठा कि सर, कुछ दिनों के लिए आप भी बंद कर दीजिए, इंटरनल सिस्टम सही हो जाएगा, तब फिर शुरू करिएगा। उनसे बात फोन पर हो रही थी लेकिन उनकी मुखमुद्रा की कल्पना कर पा रहा हूं। वे बड़ी-बड़ी आंखें गोल-गोल नचाते हुए, थोड़ा सांस खींचते छोड़ते हुए और चेहरे पर दर्प का भाव लेते हुए बोले- यशवंत, मेरी अंतिम इच्छा है कि जब मैं मरूं तो दारू पीकर मरूं और मरते वक्त मेरे बगल में दारू रखी हो, इससे अच्छी मौत की कल्पना मैं आज तक नहीं कर पाया।