मुरादाबाद जैसे शहर में क्राइम रिपोर्टिंग करते हुए कोई कौन सी बड़ी स्टोरी कर सकता है? यही कि कभी कोई आईएसआई के एजेंट की गिरफ्तारी पर खबर मिल जाए या किसी नए प्रशिक्षु आईपीएस के चाल-चलन पर रिपोर्टर की नजर पड़ जाए। लेकिन, मैं खुशकिस्मत रहा। प्रियंका को रॉबर्ट भाए या रॉबर्ट को प्रियंका अच्छी लगीं, इस पर मीडिया में कभी कुछ ज्यादा लिखा नहीं गया। पर, रॉबर्ट के पिता राजेंद्र वढेरा ने 15 साल पहले पहली बार दोनों के रिश्तों का खुलासा किया था।
तब यह खबर “अमर उजाला” अखबार के सभी संस्करणों के पहले पन्ने पर छपी थी। यह खबर पढ़कर दिल्ली के तमाम पत्रकार मुरादाबाद पहुंचे और इन्हीं में से एक भावदीप कंग का एक वाक्य मेरे कानों में बहुत दिनों तक घूमता रहा – “You are wasting your time in Moradabad.” मेरे काम को किसी दूसरे पत्रकार से मिली वो पहली बड़ी तारीफ थी और आज अगर मैं एक न्यूज़ चैनल का मैनेजिंग एडीटर बन पाया तो उसके पीछे रॉबर्ट–प्रियंका की वो स्टोरी और उसके बाद भावदीप कंग के उस वाक्य का बड़ा हाथ रहा है। उस दिन से पहली रात का पूरा वाकया कुछ इस तरह रहा कि अपना पूरा काम निपटा कर आदतन मैं रात कोई 11 बजे मुरादाबाद के सभी पुलिस थानों को फोन कर रहा था कि कहीं कोई लेट नाइट क्राइम तो नहीं हुआ। इसी समय पता चला कि शहर के किसी घर के आगे ब्लैक कैट कमांडोज खड़े हैं। कोई वीआईपी जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क से चलकर दिल्ली जा रहा है और कुछ देर के लिए शहर के एक घर में रुका है। रात में तो खैर ज्यादा इस बारे में कुछ पता चला नहीं लेकिन अगली सुबह मैं इस मामले की तह में जाने के लिए निकल पड़ा। दो तीन घंटे की खोजबीन के बाद जो सामने आया, उसे पकड़कर आगे बढ़ा तो राजेंद्र वढेरा के घर तक जा पहुंचा। शुरुआती ना नुकुर के बाद राजेंद्र वढेरा बात करने को तैयार हो गए।
राजेंद्र वढेरा ने अपने घर के बाहर ही सड़क किनारे एक फोल्डिंग चेयर डालकर मुझसे बात शुरू कर दी। उन्होंने खुलकर बताया कि अपनी पत्नी से उनके रिश्ते बस नाम भर के रह गए हैं। अपने परिवार के बारे में उन्होंने और भी तमाम जानकारियां दीं। दोनों बेटों रिचर्ड और रॉबर्ट के बारे में बताया। बेटी मिशेल के बारे में भी बातचीत की। लेकिन, उस दिन की मेरी पड़ताल सिर्फ प्रियंका और रॉबर्ट की दोस्ती को लेकर थी और राजेंद्र वढेरा ने तब बताया था कि दोनों की दोस्ती बैले डांसिंग के दौरान हुई। उस दिन के बाद जब तक मैं मुरादाबाद में रहा राजेंद्र वढेरा से मेरी बातचीत होती रही। देश के प्रधानमंत्री रहे एक शख्स की बेटी से अपने बेटे की दोस्ती पर उन्हें नाज़ रहा हो, ऐसी कोई बात कभी इस बातचीत के दौरान सामने नहीं आई। उनकी आवाज़ टूटे रिश्तों का बोझ ढो रहे एक ऐसे शख्स की आवाज़ लगती थी, जिसने अपने सपनों को अपने सामने तार तार होते देखा। फिर 2001 में बेटी मिशेल की एक कार दुर्घटना में मौत और दो साल बाद यानी 2003 में ही बेटे रिचर्ड वढेरा की मौत ने शायद राजेंद्र वढेरा को भीतर तक तोड़ दिया।
राजेंद्र वढेरा मेरे लिए कभी मेरी पहली ऑल एडीशन बाइ लाइन वाली ख़बर के सूत्र भर नहीं रहे। मुरादाबाद छूटने के बाद उनसे मेरी बातचीत भी कम होती गई, लेकिन इस बातचीत के दौरान कई बार उन्होंने ऐसी बातों की तरफ़ इशारा किया, जो सुर्खियां बन सकती थीं। लेकिन, उन ख़बरों की ना तो पुष्टि संभव थी और ना ही उनके सिरे तलाशने की मेरी तरफ़ से ही कोई जद्दोजहद की गई। आज सुबह अख़बार में राजेंद्र वढेरा के निधन की ख़बर पढ़कर उनका चेहरा मेरी आंखों के सामने घूम गया। वही फोल्डिंग चेयर पर सफेद पाजामा और एक सामान्य सी शर्ट पहने बैठे राजेंद्र वढेरा का चेहरा।
राजेंद्र वढेरा अपने टूटे रिश्तों से लाचार थे। शायद, जो सुख पाने की लालसा में उन्होंने जवानी के जोश को दांव पर लगाया वो उम्र ढलने के साथ उनको शांति नहीं दे पाया। वो बातचीत में हताश लगते रहे, दिल्ली वो अक्सर आते जाते रहते थे, लेकिन दिल्ली ने भी शायद उनका दिल तोड़ा और इसी टूटे दिल के साथ वो दुनिया से विदा हो गए। राजेंद्र जी के निधन पर मुझे काफी अफसोस हुआ, मैं अख़बार पढ़ने के बाद देर तक दुखी भी रहा। लेकिन, वो मन्ना डे का गाया गाना है ना…कसमें वादे प्यार वफ़ा सब, बातें हैं बातों का क्या, कोई किसी का नहीं ये झूठे नाते हैं नातों का क्या…।