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”अरे, ये नहीं लिखा कि एसएसपी किस थाने का है!”

स्ट्रिंगरों की दास्तान 

स्ट्रिंगर। वह शब्द है जिससे सभी परिचित होंगे। जो नहीं परिचित हैं उनको सरल तरीके से बता दें कि किसी भी राष्ट्रीय चैनल में प्रदेश की राजधानियों को छोड़कर बाकी सभी शहरों के पत्रकारों को स्ट्रिंगर कहते हैं। इनका अपने चैनल से एक कांट्रैक्ट होता है जिसके तहत उनको हर खबर पर पैसा मिलता है और ये 800 से 2500 रुपये के बीच फिक्स होता है। चैनलों की मीटिंग में स्ट्रिंगरों के लिए एक वाक्य आमतौर पर कहा जाता है कि आप लोग ही तो चैनल की रीढ़ हैं। बात इसी रीढ़ की। चैनलों के बड़े लोग जिनके चेहरों पर नाना प्रकार के मुखौटे लगे हैं, भले ये बात स्वार्थ सिद्धि के लिए कहते हों, मगर ये व्यावहारिक तौर पर सच है कि स्ट्रिंगर किसी भी चैनल का रीढ़ होता है।

<p align="center"><strong><u><font color="#0000ff">स्ट्रिंगरों की दास्तान</font></u></strong> </p><p align="justify"><strong>स्ट्रिंगर।</strong> वह शब्द है जिससे सभी परिचित होंगे। जो नहीं परिचित हैं उनको सरल तरीके से बता दें कि किसी भी राष्ट्रीय चैनल में प्रदेश की राजधानियों को छोड़कर बाकी सभी शहरों के पत्रकारों को स्ट्रिंगर कहते हैं। इनका अपने चैनल से एक कांट्रैक्ट होता है जिसके तहत उनको हर खबर पर पैसा मिलता है और ये 800 से 2500 रुपये के बीच फिक्स होता है। चैनलों की मीटिंग में स्ट्रिंगरों के लिए एक वाक्य आमतौर पर कहा जाता है कि आप लोग ही तो चैनल की रीढ़ हैं। बात इसी रीढ़ की। चैनलों के बड़े लोग जिनके चेहरों पर नाना प्रकार के मुखौटे लगे हैं, भले ये बात स्वार्थ सिद्धि के लिए कहते हों, मगर ये व्यावहारिक तौर पर सच है कि स्ट्रिंगर किसी भी चैनल का रीढ़ होता है। </p>

स्ट्रिंगरों की दास्तान 

स्ट्रिंगर। वह शब्द है जिससे सभी परिचित होंगे। जो नहीं परिचित हैं उनको सरल तरीके से बता दें कि किसी भी राष्ट्रीय चैनल में प्रदेश की राजधानियों को छोड़कर बाकी सभी शहरों के पत्रकारों को स्ट्रिंगर कहते हैं। इनका अपने चैनल से एक कांट्रैक्ट होता है जिसके तहत उनको हर खबर पर पैसा मिलता है और ये 800 से 2500 रुपये के बीच फिक्स होता है। चैनलों की मीटिंग में स्ट्रिंगरों के लिए एक वाक्य आमतौर पर कहा जाता है कि आप लोग ही तो चैनल की रीढ़ हैं। बात इसी रीढ़ की। चैनलों के बड़े लोग जिनके चेहरों पर नाना प्रकार के मुखौटे लगे हैं, भले ये बात स्वार्थ सिद्धि के लिए कहते हों, मगर ये व्यावहारिक तौर पर सच है कि स्ट्रिंगर किसी भी चैनल का रीढ़ होता है।

लेकिन चैनलों में स्ट्रिंगर के साथ जो व्यवहार किया जाता है उससे लगता है स्ट्रिंगर शब्द एक गाली है। मैं नही कहता कि सभी स्ट्रिंगर काबिल होते होंगे मगर फील्ड में काम करने वाला पत्रकारिता का ये सबसे शोषित तबका चैनल के हेड ऑफिस के उन तमाम कर्मचारियों से हर हाल में ज्यादा बुद्धिजीवी और ज्यादा जानकर होता है जो इसी स्ट्रिंगर की खबर या स्क्रिप्ट को काटते-छांटते हैं। अगर किसी स्ट्रिंगर ने अपनी खबर में एसएसपी की बाईट का जिक्र किया है और उसके पास हेड ऑफिस से फोन आ जाए कि अरे, आपने इसमें ये नही लिखा है कि एसएसपी किस थाने का है  तो वह चौंकाता नही है क्योंकि उसकी स्क्रिप्ट काटने वाले इन एडिटरों के इस प्रकार की अज्ञानता का वह कई बार सामना कर चुका होता है। केवल महानगर की सभ्यता और संस्कृति को जानने वाले इस प्रकार के स्क्रिप्ट एडिटरों से और कोई उम्मीद ही नहीं की जा सकती।

लोगों के शोषण के खिलाफ लड़ाई का दम भरने वाले ये तथाकथित न्यूज़ चैनल (तथाकथित इसलिए क्योंकि न्यूज़ चैनल पर आजकल कोई न्यूज़ आ रही है, इसे तो आप भी नही मानते होंगे) शोषण करने का सबसे बड़ा अड्डा हैं। लड़कियों के शोषण के किस्से तो आपने बहुत सुने होंगे मगर कोई भी ऐसा चैनल नही है जो अपने स्ट्रिंगर का शोषण न करता हो। और तो और, कुछ छोटे-छोटे चैनल ऐसे हैं जो अपने स्ट्रिंगरों को कांट्रैक्ट के बाद भी पैसे ही नहीं देते। केवल ऊपर के कुछ चैनलों को छोड़ दिया जाए तो कोई भी चैनल अपने स्ट्रिंगर को पैसा नहीं देता।

फिर बात आती है कि पैसा नही मिलता तो काम क्यों करते हैं। साहब, चैनल के ये रीढ़ अपने चैनल को एक्सक्लूसिव खबर देने के लिए अपने जिले भर में इतनी दुश्मनियां कर चुके होते हैं कि अगर पत्रकार नाम का तमगा इनके पास न हो तो इनका और इनके परिवार का जीना दूभर हो जाएगा। नेता, मंत्री, पुलिस, माफिया- सब दुश्मन। किसी भी चैनल में रोज परोसी जाने वाली 10 खबरों में 5 स्ट्रिंगर की ही होती है। मगर शायद ही कोई ऐसा बॉस होता होगा जो अपने स्ट्रिंगर को बाईलाइन देता हो, तब भी जबकि कैमरा वर्क से लेकर स्क्रिप्ट और पैकजिंग तक सब कुछ स्ट्रिंगर का हो।

बाईलाइन न देना तो इतनी साधारण बात है कि स्ट्रिंगर को कभी-कभी तो अहसास ही नहीं होता कि बाईलाइन न दे कर उसके साथ अन्याय किया जा रहा है। वाकई में स्ट्रिंगरों के साथ हो रहे तमाम अन्याय में बाईलाइन न मिलने जैसी बात बहुत छोटी ही है। अगर स्ट्रिंगर से कोई खबर या विजुअल छूट जाय तो उसका बॉस अपने बॉस के सामने पूरी जिम्मेदारी स्ट्रिंगर पर डाल देता है और अगर कोई अच्छी खबर मिल जाय तो पूरी क्रेडिट खुद लेता है, मानो उसी ने अपने निर्देश देकर खबर पूरी करवाई हो। वैसे भी स्ट्रिंगर की अच्छी खबरों को डकार जाना बहुत आम बात है। ऐसा भी नही है कि किसी स्ट्रिंगर को कभी अच्छा बॉस न मिला हो। इलेक्ट्रानिक मीडिया के ऐसे कई जाने माने चेहरे हैं जो कभी स्ट्रिंगर ही रहे हैं। मगर विडम्बना ये है कि ये चेहरे जाने पहचाने बनने के बाद खुद स्ट्रिंगर नाम की विरादरी को अछूत समझने लगे।


लेखक उत्तर प्रदेश के फैजाबाद जिले के हैं और इन दिनों बतौर स्ट्रिंगर एक न्यूज चैनल के लिए कार्यरत हैं। उनसे [email protected] के जरिए संपर्क किया जा सकता है।

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