अगर प्रभाष जोशी जी ने लोकसभा चुनाव के दौरान रुपए लेकर खबर छापने वाले अखबारों की आलोचना की है तो इसमें बुरा लगने वाली बात क्या है? ठीक ही तो किया है उन्होंने। अखबार जनचेतना के प्रतीक होते हैं। अगर वही धन लेकर उम्मीदवार के पक्ष में खबर छापेंगे तो फिर रह ही क्या गया। क्या विश्वसनीयता रही अखबार की? अखबार जनप्रहरी होते हैं। दलाल नहीं। अगर जनप्रहरी ही खोटा निकल गया तो फिर दूसरा सजग प्रहरी उसके खिलाफ आवाज उठाएगा। अंधेरगर्दी और भ्रष्टाचार को महिमामंडित नहीं किया जा सकता। गलत तो गलत ही है। उस पर कुतर्क चाहे जितना कर लिया जाए। जो अखबार पैसा लेकर झूठ लिखता है या किसी भी तरह का अनैतिक काम करता है, वह लोकतंत्र के लिए शर्म है। और भाई साहब, पाठक क्या कर पाएंगे। उन्हें तो वही पढ़ना है जो आप पढ़ाएंगे।
वे सड़क पर उतर कर आंदोलन नहीं करेंगे। उनके पास खबर मिलने के कई स्रोत हैं। अखबार कोई साबुन, तेल जैसा उत्पाद नहीं है। यह एक जिम्मेदार माध्यम है और इससे उम्मीद की जाती है कि यह पाठक को सही सूचना देगा। धोखा नहीं करेगा, पाठको के साथ ठगी नहीं करेगा। झूठ को सच बताने का धंधा नहीं करेगा। वह विज्ञापन और खबर को एक में नहीं मिला देगा। हम तो प्रभाष जोशी जी के आभारी हैं कि उन्होंने एक खतरनाक शुरुआत को बार- बार रेखांकित किया।
कम वेतन देकर अपने स्ट्रिंगरों को उगाही करने के लिए उकसाने वाले अखबारों की भी प्रशंसा नहीं की जानी चाहिए। प्रभाष जी हमेशा वहां चोट करते हैं जहां करना जरूरी है। और कौन कहता है कि वे बीते युग के पत्रकार हैं। कोई नौजवान उनके पास बैठ कर जरा बहस तो करे तब उसे लगेगा कि वह किस दिग्गज के पास बैठा है। वे जितने पुराने पत्रकार हैं, उतने ही अत्याधुनिक भी। उनकी पैनी दृष्टि के अनेक लोग कायल हैं। जनसत्ता क्या है, इसे किसी की सर्टिफिकेट की जरूरत नहीं है। आज भी इसे सम्मान से पढ़ा जाता है। अगर जनसत्ता के पाठक नहीं होते तो इसकी टिप्पणी से इतनी बौखलाहट नहीं होती। चाहे कोई भी अखबार अगर धन लेकर झूठी खबरें छापता है तो वह पाठक के साथ धोखा करता है और उसकी भर्त्सना की जानी चाहिए।
अगर धन लेकर खबर छापने के खिलाफ प्रभाष जी लिखते हैं तो हमें उनका सम्मान करना चाहिए। वे नई पीढ़ी के लिए प्रेरणा के स्रोत हैं। डंके की चोट पर झूठ को झूठ कहने वाले प्रभाष जी श्रद्धा के अधिकारी हैं। सच्ची पत्रकारिता की राह तो यही है। अगर आप कहें कि सबका पतन हुआ है तो अखबार इससे क्यों अछूते रहें, तो फिर आम आदमी के साथ कौन खड़ा होगा? फिर अखबार को चौथा खंभा कहना क्या छोड़ दिया जाना चाहिए?