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विनोद जी का सही मूल्‍यांकन हुआ ही नहीं

[caption id="attachment_16137" align="alignleft"]संतोष भारतीयसंतोष भारतीय[/caption]विनोद शुक्‍ल हिंदी पत्रकारिता के नेपोलियन थे : विनोद जी (स्वर्गीय विनोद शुक्ल) से मेरी पहली मुलाकात, यदि मुझे सही ढंग से याद है तो दिलीप शुक्‍ला ने करवाई थी। उन दिनों दिलीप शुक्‍ला ‘आज’ के कानपुर संस्‍करण में संवाददाता थे तथा विनोद जी ‘आज’ अखबार के सब कुछ। कहने को वे प्रबंध सम्‍पादक थे पर थे वे अखबार की सांस। चाहे चपरासी रहे हों या मशीनमैन, उप सम्‍पादक या संवाददाता, सभी विनोद जी को खुश देखना चाहते थे। इसीलिए वे जी-जान से काम करते थे और चाहते थे कि विनोद जी उन्‍हें मुस्‍कराकर देखें। यह किसी डर या लोभ की वजह से नहीं होता था बल्कि उस प्‍यार के बदले में होता था, जो उन्‍हें विनोद जी से मिलता था।

संतोष भारतीय

संतोष भारतीयविनोद शुक्‍ल हिंदी पत्रकारिता के नेपोलियन थे : विनोद जी (स्वर्गीय विनोद शुक्ल) से मेरी पहली मुलाकात, यदि मुझे सही ढंग से याद है तो दिलीप शुक्‍ला ने करवाई थी। उन दिनों दिलीप शुक्‍ला ‘आज’ के कानपुर संस्‍करण में संवाददाता थे तथा विनोद जी ‘आज’ अखबार के सब कुछ। कहने को वे प्रबंध सम्‍पादक थे पर थे वे अखबार की सांस। चाहे चपरासी रहे हों या मशीनमैन, उप सम्‍पादक या संवाददाता, सभी विनोद जी को खुश देखना चाहते थे। इसीलिए वे जी-जान से काम करते थे और चाहते थे कि विनोद जी उन्‍हें मुस्‍कराकर देखें। यह किसी डर या लोभ की वजह से नहीं होता था बल्कि उस प्‍यार के बदले में होता था, जो उन्‍हें विनोद जी से मिलता था।

 यह प्‍यार ही विनोद जी की सबसे बड़ी ताकत भी थी। जो एक बार उनसे मिल लिया, उनका ही होकर रह गया। मैं लखनऊ में ‘रविवार’ का प्रतिनिधित्‍व कर रहा था। आज जो इन पंक्तियों को पढ़ेंगे उनमें से हो सकता है कुछ को न मालूम हो कि ‘रविवार’ ने हिन्‍दी पत्रकारिता में गुणात्‍मक योगदान दिया है। विनोद जी ‘रविवार’ के प्रशंसकों में थे और मेरे नाम से परिचित थे। जब मिले तो लगा कि सालों पुरानी जान-पहचान है। वैसे यह विनोद जी की खासियत भी थी कि वे किसी को आभास नहीं होने देते कि वे उसे नहीं जानते हैं।

कानपुर यूं भी आना-जाना होता था क्‍योंकि अस्‍सी के शुरुआती दशक में कानपुर खबरों का केंद्र हुआ करता था। इटावा, बुंदेलखंड और फर्रुखाबाद के त्रिकोण का केंद्र था कानपुर। इटावा में चम्‍बल जहां नेकसे जैसे डाकुओं का वास था, फर्रुखाबाद और मैनपुरी छविराम का कार्यक्षेत्र था तथा बुंदेलखंड में फूलन, विक्रम मल्‍लाह, लाला राम – श्री राम तथा गया कुर्मी की वजह से लोग कांपते रहते थे। मैं जब जाता पहले विनोद जी के पास जाता। विनोद जी चाय या लस्‍सी मंगवाकर, अपने केबिन में दिलीप शुक्ला सहित संबंधित पत्रकारों को बुला लेते। बात शुरू हो जाती और वह मेरे दिमाग में एक नक्‍शा बना जाती। इन सारे इलाकों का मुख्‍य अखबार उन दिनों ‘आज’ था, इसलिए स्‍वाभाविक रूप से वह उन दिनों संदर्भ केंद्र का काम करता था।

सबसे ज्‍यादा केंद्र में फूलन थीं, उन्‍हें अखबार दस्‍यु सुंदरी भी  लिखते थे। ‘रविवार’ के सम्‍पादक सुरेंद्र प्रताप सिंह ने जिम्‍मेदारी सौंपी कि फूलन पर बड़ी रिपोर्ट लिखनी है। फूलन उन दिनों विनोद जीबीहड़ में मशहूर नहीं हुई थी। मैं कई सप्‍ताह तक बीहड़ में पड़ा रहा। जालौन, पंचनदा के जंगलों और गुढ़ा का पुरवा के बीच फिरकनी बन गया और तब कई बार की फिसलन के बाद फूलन से मुलाकात हुई। सारे संसार के सामने फूलन देवी और विक्रम मल्‍लाह की कहानी सामने आई। देश और दुनिया के अखबारों ने उसका अनुवाद किया। किसी ने उसका सहारा लिया तथा कुछ बड़े पत्रकारों ने तो उसमे अपनी कल्‍पना तक मिलाई। विनोद जी ने उस रिपोर्ट के बाद मेरे साथ दिलीप शुक्ला को कहीं भी, कभी भी आने-जाने की छूट दे दी।

जो भी पत्रकार बाहर से आता था, वह पहले विनोद जी से मिलने की कोशिश करता था। आनन्‍द बाजार ग्रुप के पत्रकार तो विनोद जी को अपने ग्रुप के सीनियर की तरह देखते थे। बिना हिचक उनके घर रुक जाना, जो भी मदद हो मांग लेना, उनकी आदत बन गई थी। निर्मल मित्रा, कल्‍याण मुखर्जी तो विनोद जी के परिवार के सदस्‍य हो गए थे। दोनों सम्‍पादक, एसपी सिंह और एमजे अकबर विनोद जी को साधिकार फोन कर देते थे और सूचनायें मांग लेते थे। यही विनोद जी का बड़प्‍पन था, वे अपने अखबार के अलावा भी बाकी सब की भी मदद करते थे। संयोग था कि उन दिनों कानपुर में उनके अलावा कोई नाम नहीं था जिसके पास जाकर कोई बात की जा सकती थी और यह संयोग अंत तक बरकरार रहा। जब विनोद जी लखनऊ आये तो उनके बिना कानपुर सूना हो गया।

पत्रकारिता की दुनिया के वे हलचल भरे साल थे जब विनोद जी कानपुर में थे। बेहमई का हत्‍याकांड तभी हुआ, छविराम की मौत तभी हुई और सबसे बड़ा हादसा हिंदू-सिख दंगा तभी हुआ। इंदिरा जी की मौत और लोगों का पागलपन जो एक दिन के भीतर अपराधियों के हाथ का हथियार बन गया। मैं सबसे पहले दिल्‍ली में दंगे की शुरुआत के दूसरे दिन कानपुर आया, जो-जो देखा उससे दहल गया। विनोद जी के पास गया। विनोद जी बिफरे बैठे थे। सरकार की अक्षमता, अधिकारियों की संलिप्‍तता और और अधिकारियों की शहर पर चली हुकूमत ने उन्‍हें अंदर ही अंदर रुला दिया था। जो उनके अखबार में नहीं छप सका, वह तो बताया ही साथ ही वह भी बताया जो वे छपाना चाहते थे। उन्‍होंने कहा, देश में तुम्‍हीं लिख सकते हो, शहर का अखबार होने की सीमायें हैं। मेरी उन रिपोर्टों ने लोगों को हिला कर रख दिया, पर वे उतनी प्रभावशाली हो ही नहीं पातीं यदि विनोद जी से मेरा संपर्क नहीं होता।

विनोद जी को स्‍वयं नहीं पता था कि वह खुद कितने बड़े संस्‍थान हैं। कानपुर में रहते हुए उन्‍होंने जितने पत्रकार बनाये और जितनों को उन्‍होंने निखारा, वह अपने आप में उदाहरण है। विनोद जी का आज तक सही मूल्‍यांकन हुआ ही नहीं। ‘आज’ के मालिक शार्दूल विक्रम गुप्‍त उनके भाई जैसे मित्र थे, कुछ ऐसा रिश्ता जिसे भाई और मित्र के बीच में तलाशा जा सकता है। विनोद जी की लोकप्रियता से जलने वालों ने शार्दूल जी व विनोद जी में दूरियां बढ़वानी शुरू कीं। विनोद जी को दैनिक जागरण के नरेंद्र मोहन जी ने अपने यहां आने का आमंत्रण दिया। एक दिन विनोद जी ने इसका जिक्र किया तो मैने कहा कि नरेंद्र मोहन जी की तस्‍वीर बिल्‍कुल अलग है, कैसे काम करेंगे? विनोद जी ने कहा कि उन्‍होंने लखनऊ संस्‍करण पूरा हाथ में देने का वायदा किया है। नरेंद्र मोहन जी ने अपना वायदा निभाया, लेकिन विनम्रता से इतना अवश्‍य कहना चाहूंगा कि जागरण समूह ने भी विनोद जी का पूरा फायदा नहीं उठाया।

विनोद शुक्‍ल हिंदी पत्रकारिता के नेपोलियन थे। उनमे नेतृत्‍व की क्षमता थी, वे लोगों में उत्‍साह भर सकते थे, दिशा दे सकते थे। विनोद जी में खबरें सूंघने की अदभुत क्षमता थी। विनोद जी को लक्ष्‍य दे दीजिये, वे उसे प्राप्‍त कर लेते थे पर यदि उन्‍हें लक्ष्‍य कैसे प्राप्‍त करना है, समय-समय पर बताया तो वह अनमने हो जाते थे। विनोद जी के आलस्‍य ने हम सब पर अत्‍याचार किया। उन्‍होंने लिखा नहीं। विनोद जी को पत्रकारिता में बदलाव ने परेशान तो किया ही अगर वे इसे ही सीरियलाइज कर देते तो हिंदी के वे सब, जो विनोद जी का अनुभव जानना चाहते हैं, उन्‍हें धन्‍यवाद देते।

विनोद जी, जब मैं संतोष भारतीय बनने की प्रक्रिया में था, आपकी सहायता, आपकी दी गई सीख, आपके संकेत, आपकी सहायता, आपके प्‍यार, आपके स्‍नेह और भ्रातृत्‍व को कभी भुला नहीं पाऊंगा। वह ऐसा ऋण है जिससे इस जीवन में तो मैं उऋण हो ही नहीं सकता।


लेखक संतोष भारतीय वरिष्ठ पत्रकार हैं और ‘चौथी दुनिया’ के प्रधान संपादक हैं. उनका यह आलेख विनोद जी की स्मृति के लिए बनाए गए ब्लाग चौमासा पर प्रकाशित किया गया है। आप संतोष जी के लिखे इस आलेख पर टिप्पणी देने के लिए यहां क्लिक कर सकते हैं- चौमासा
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0 Comments

  1. Marion31Silva

    August 23, 2010 at 10:41 pm

    Houses are expensive and not every person can buy it. However, home loans was invented to support people in such kind of cases.

  2. LenaRAYMOND

    October 23, 2010 at 4:43 am

    Following my analysis, millions of people on our planet receive the mortgage loans at well known banks. Hence, there is good possibilities to find a bank loan in all countries.

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